रविवार, 10 फ़रवरी 2019


विंध्य की विरासत

सतना    इन्द्र धनुषी  भूमि

भाग २

   गगन  में  चमकते   इंद्रधुष   के विविध छटाओं  की तरह  ,   सतना  जिले की चारों और की   विस्तृत  भूमि भी कई रंगों , कई छटाओं , को बिखरती मनोरम भूमि है !  पूर्व दिशा की और रीवा रियासत , और बघेल राजवंश  के स्मृति चिन्ह , सज्जन पुर की गढ़ी , माधव गढ़ के किले , और रामपुर बघेलान  जैसे कस्बों की गाथाएं हैं  , तो पश्चिम दिशा   में सोहावल  की गढ़ी , नागोद का किला ,  और कालीलजनर किले   की इतिहास के साथ ,  चौमुखनाथ का शिव  मंदिर , और  श्रेयांस गिरी के जैन  मंदिर और कन्दराएँ  ,  लोगों   के मन में जिज्ञासा  जगाते   है   , उत्तर दिशा में राम के  बारह वर्षीय वनवास के पग चिन्ह अंकित किये हुए    चित्रकूट ,  भक्तों को आकर्षित करटा  है , और  कोठी , का किला , अपनी कथा कहने को निमंत्रित करता है ,  तो दक्षिण में  ,  भरुहत पहाड़ पर मिले बौद्धकालीन स्तूपों के अवशेष  , उंचेहरा  की  धातु शिल्प की जादूगरी ,    मैहर का संगीत , और माता शारदा का पवित्र  धाम  लोगों को  सम्मोहित  करता है !   विंध्यके पर्वत श्रेणियों के रूप में दक्षिण से पश्चिम की और फ़ैली , परसमनिया पठार की भूमि  कई ऐतिहासिक धरोहरों को अपने आँचल में छिपाए है ! यहां बौद्ध धर्म के अवशेष हैं , तो जैन धर्म के मंदिर भी ,  यहां राम के पद चिन्ह हैं , तो शिव के विभिन्न  दर्शन भी ,  यहां  मैहर की  शारदा हैं , तो भरजुना की दुर्गा भी , यहां संगीत कला की  उत्कृष्ट  साधना है तो आदिकालीन  धातु कला की चमक भी , यहां  कालिंजर जैसे  अजेय दुर्ग हैं , तो   ऐतिहासिक  किलों के साथ   सामंती इतिहास की  गढ़ियाँ  भी ,  यह क्षेत्र  सभी धर्मों , सभी पंथों , और सभी राजवंशों की यादगार  भूमि है , जो अपने आप में अनोखी है !

   हम आप के साथ चित्रकूट और मैहर की भूमि के दर्शन करें , इससे पूर्व , यहां  की   विभिन्न  भूमि में  फ़ैली  , विभिन्न धरोहरों को देखते चलते हैं !

     भरहुत पहाड़ 
    विजय के बाद  , हिंसा के प्रति , उत्पन्न हुई वितृष्णा से  ग्रसित होकर   सम्राट अशोक ने जब , बौद्ध धर्म अपना कर , पूरे भारत में उसके प्रचारार्थ , बौद्ध मठ और स्तूप बनवाये , तो उसी श्रंखला में , सतना के निकट स्थापित इस भरहुत पहाड़ पर अंकित हुआ वह इतिहास , जिसकी झलक ना सिर्फ अभी भी इस पहाड़ पर विदवमान है , बल्कि इसकी चमक बंगाल के कलकत्ता  इंडियन  म्यूजियम और विदेशों के अन्य  म्यूजियम को भी चमत्कृत कर रही है !

    इस स्थान में निकले पाषाण मूर्तियों के अवशेष , स्तूप , और  तोरण  द्वार , , सांची के स्तूप की शैली के बताये गए हैं , किन्तु इनके निर्माण का समय ,  ईसा से ११० वर्ष पूर्व से ले कर तीसरी  सदी  पूर्व तक माना गया है  इससे  ऐसा  विदित होता है की यहां के स्तूपों का निर्माण धीरे धीरे कई वर्षों तक होता रहा है !


    

  उंचेहरा का धातु शिल्प 

   सतना मैहर मार्ग पर बसा है , बौद्ध काल का गौरवमयी गावं उंचेहरा ! यहां कभी कांसे के बर्तन , और सिक्कों की ढलाई का काम आदिकाल से हो रहा था ! कांसे के बर्तनों में , बेले , थालियां , आदि प्रमुख थे , जो उत्तर भारत के कई नगरों तक जाते थी !  किसी समय घर घर भट्टियां लगती थीं और  ताम्बे और रांगे को , एक निश्चित अनुपात में मिला कर  , मिश्र धातु तैयार की जाती थी , जिसे यहां की भाषा में फूल कहा जाता था ! फूल से अर्थ था , फूल जैसे नाजुक बर्तन , जो थोड़े से आघात से तुरंत टूट जाए !   थाली बनानी की प्रक्रिया में सभी कारीगर हस्त कला का उपयोग करते थे , जो श्रम साध्य काम था !
      वक्त ने , ना सिर्फ देश की सांस्कृत परम्पराओं पर कुठारघात  किया , बल्कि   कुटीर कला को पूरी तरह नष्ट कर दिया ! आज फूल के बर्तन बनाने का पैतृक कार्य उंचेहरा में कोई नहीं करना चाहता , इस लिए फूल के बर्तन बनाने की कला अब लुप्त होती जा रही है !  कला के लुप्त होने और संस्कृति के बदलते रूप के प्रति आज पुराणी पीढ़ी का क्या कथन है आइये मिलते हैं उंचेहरा निवासी ,,,,,,से !

 ( इंटरव्यू )

     


    नाचना का चौमुख नाथ मंदिर 

    शैव मत के साधकों का स्थान था नाचना कुठरा  गावं   जो की  नागोद के निकट जसो गावं से थोड़ा आगे स्थित है !  उसके आस पास  फैले विशद क्षेत्र में  कभी शिव के कई मंदिर बने थे , जिन्हे गुप्त काल का कहा गया है !  अभी जो शिव मंदिर उपलब्ध है , उसमें शिव की चार मुख मुद्राएं , शिव लिंग के स्वरूप में  चारों और उत्कीर्ण है !   इन मुद्राओं में तीन मुद्राएं शान्ति स्वरूप में है , जबकि एक मुद्रा में शिव की जीभ को , विष के प्रभाव से ऐंठता हुआ दिखाया गया है ! शिव की यह  मुख  मुद्रा अध्भुत है , और   देखते  ही बनती है !  चौमुखी शिवलिंग होने के कारण , इसे चौमुख नाथ कहा गया है !
     कहते हैं समुद्र मंथन से निकले हुए तीव्र हलाहल से जब पूरी श्रष्टि जलने लगी तो , शिव ने उस हलाहल को पी लिये ! हलाहल पीते समय जो उन्हें कष्ट हुआ , उससे उनकी मुद्रा में जो तनाव उत्पन्न हुआ , और जीभ ऐंठी , उसका चित्रण इस मूर्ती में बहुत सजीव है !

    आज यह स्थान पर्यटन स्थल बन गया है !  चौमुखनाथ मंदिर के अलावा और भी कई मंदिर यहां ध्वस्त अवस्था में है जो शोधकर्ताओं के लिए आकर्षण की चीज है !


    श्रेयाशगिरि 
   श्रेयांशगिरि एक पर्वत है , जिस की  प्राकृतिक में  जैन धर्म की कई मूर्तियां आदिकाल से स्थापित है ! कुछ   इतिहासकार इसे ईसा से  चौथी  सदी पूर्व के समय का बताते हैं ! क्यूंकि यहां पर उत्कीर्ण मूर्तियों के लिए कोई शिला लेख उपस्थित नहीं है , इसलिए इसका समय काल निश्चित रूप से तय कर पाना कठिन है !  जैन  धर्माचार्यों के कथना नुसार , सामान्यतः , अन्य जैन  मूर्तियों  के स्थलों में २४ रेखाओं के चक्र मिलते हैं , जबकि यहां १४ रेखाओं के चक्र हैं , जो मोक्ष के प्रतीक माने जाते हैं  इसलिए यह स्थान बहुत प्राचीन काल का  है ! श्रेयांश गिरी की प्रथम गुफा में ३२ ारों से युक्त भगवान् आदिश्वर की प्रतिमा स्थित है ! सिद्ध पीठ पर विराजमान आदिनाथ कमलासन मुद्रा में है !  इस मूर्ती में सही वत्स नहीं है ! केश विन्यास अनुपम है  और मूर्ती के नेत्र खुले हैं !  मूर्ती के दोनों और चमर  धारी यक्ष है ! मूर्ती के पृष्ठ भाग में विशाल प्रभा मंडल है !
 इस गुफा के पीछे एक और गुफा है जो लाल पत्थरों से ढंक दी गयी है ! जबकि दूसरी गुफा में सिंह पीठ पर भगवान् पार्श्वनाथ खड़े हुए हैं ! गतिशील लेकिन खड़ा चक्र है ! मूर्ती के पार्श्व में सात फनो  वाली  नागावली है !

     इस गिरी की मूर्तियां दर्शनीय हैं !  प्राकृतिक गुफा में उत्कीर्ण मूर्तियां पर्यटकों के लिए आश्चर्य  के साथ गहन श्रद्धा  और आस्था का भाव  उत्पन्न करती हैं


   भाकुलबाबा 

  नागोद तहसील के जसो गावं के  वन क्षेत्र में स्थापित है शिव का मंदिर ! यहां एक गुफा है ,, जहां जाना दुरूह है ! संभवतः यह मंदिर भी उन्ही शिव आराधकों ने बनवाया है , जिन्होंने नाचना में चौमुखनाथ का मंदिर बनवाया है ! यह गुप्त कालीन है और सम्बहव्तः चौथी सदी का है !



  भरजुना का दुर्गा मंदिर  
और भटनवारा का देवी मंदिर 

  इसकी जानकारी ज्यादा नहीं है ! शूटिंग के समय साधारण ढंग से शूट करलें   इसे मुख्य कमेंट्री में दिखासा दें !
  धारकुंडी आश्रम 

      धन वैभव , से विरक्त हो कर जैम नौशी शान्ति की तलाश में , राजप्रासादों को छोड़ कर वन में आता है तो , पर्वत और कंदराएँ ही उसे आश्रय देती हैं , और आध्ययात्म की और उन्मुख करती हैं !  धार कुंडी , सतना के बिरसिंगपुर के निकट , एक संत द्वारा स्थापित किया गया आश्रम है जहां  आने पर मन को ना सिर्फ शान्ति मिलती है , बल्कि रमणीय प्रकृति के दर्शन होते हैं !
         यहां  संत ,,,,,,,,, का आश्रम है !और एक देवालय भी है !  यह आश्रम स्वावलंबन का पाठ पढ़ाता है ,,क्यूंकि यहां आवश्यकता की चीजें आश्रम में ही उत्पन्न की जाती है !  खेतों से उपज , सब्जियां मिलती है , और बहती हुई जल धारा से विद्युत् शक्ति , जिससे आश्रम  प्रकाशित होता है !  आज यहां आयुर्वेद का बड़ा अस्पताल भी बन गया है , जिसमें चारों और बसे ग्रामीण  निशुल्क चिकित्सा का लाभ लेते हैं !
  सतना का यह धारकुंडी आश्रम  लोगों की आस्था का केंद्र है !
 गिद्ध कूट 
     

   प्राकृतिक स्वच्छता के संरक्षक अगर कोई जीव हैं , तो वे हैं गिद्ध !  गिद्ध पूरी तत्रह प्रकृति पर निर्भर हैं  और प्रदूषित मांस नहीं खाते हैं , इसलिए , निरंतर बढ़ते प्रदुषण के कारण यह प्रजाति अब समाप्त होने की कगार पर है !
     सतना से अमरपाटन हो कर , रामनगर जाते समय मार्ग में पड़ता है गिद्ध कूट ! यह एक पर्वत है , जिस पर बहु संख्या में गिद्ध आज भी निवास कर रहे हैं !  कहते हैं की यहां , हनुमान जी को , लंका में बैठी , सीता जी का पता जिस सम्पाती गिद्ध ने दिया था , यह रामायण काल के बलिष्ठ गिद्ध , बालयकाल की ,सम्पाती की    निवास भूमि थी !    (अपनी   डॉक्यूमेंट्री लगा दें )

   नागोद का किला

1478 में, राजा भोजराज जूदेव ने उचेहराकल्प (वर्तमान में उचेहरा शहर) की स्थापना की थी जिसे उन्होंने तेली राजाओं से नारो के किले पर कब्जा कर प्राप्त की थी। 1720 में रियासत को अपनी नई राजधानी के नाम पर नागौद नाम दिया गया। 1807 में नागौद,  पन्ना रियासत  के अन्तर्गत आता था और उस रियासत को दिए गए सनद में शामिल था। हालांकि, 1809 में, शिवराज सिंह को उनके क्षेत्र में एक अलग सनद द्वारा मान्यता प्राप्ति की पुष्टि हुई थी। नागौद रियासत, 1820 में बेसिन की संधि के बाद एक ब्रिटिश संरक्षक बन गया। राजा बलभद्र सिंह को अपने भाई की हत्या के लिए 1831 में पदच्युत कर दिया गया था। फिजुलखर्ची और वेबन्दोबस्ती के कारण में रियासत पर बहुत कर्ज हो गया और 1844 में ब्रिटिश प्रशासन ने आर्थिक कुप्रबंधन के कारण प्रशासन को अपने हाथ में ले लिया। नागौद के शासक  १८६७ के विद्रोह  के दौरान अंग्रेजों के वफादार बने रहे फलस्वरूप उन्हें धनवाल की परगना दे दी गई। 1862 में राजा को गोद लेने की अनुमति देने वाले एक सनद प्रदान किया गया और 1865 में वहाँ का शासन पुनः राजा को दे दिया गया। नागौद रियासत 1871 से 1931 तक बघेलखण्ड एजेंसी का एक हिस्सा रहा, फिर इसे अन्य छोटे राज्यों के साथ बुंदेलखंड एजेंसी को स्थानांतरित कर दिया गया। नागौद के अंतिम राजा, एच.एच. श्रीमंत महेंद्रसिंह ने 1 जनवरी 1950 को भारतीय राज्य में अपने रियासत के विलय पर हस्ताक्षर किए।

        नागोद एक रियासत के रूप में माना गया है , जिसका मूल उंचेहरा है ! उंचेहरा और नागोद दोनों जगह किले हैं ! यह किले यद्यपि सुदृढ़ स्थिति में नहीं हैं , किन्तु दर्शनीय हैं !  यहां के वर्तमान राजा नगींद्र सिंह , मध्यप्रदेश के गृहमंत्री रह चुके हैं ! 

     


    कालिंजर का अजेय दुर्ग 
 प्राचीन काल में यह दुर्ग  जे जाक भुक्ति  साम्राज्य के अधीन था। बाद में यह १०वीं शताब्दी तक  चंदेला  राजपूतों के अधीन , और फिर  रीवा के सोलंकियों  के अधीन रहा। इन राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर  महमूद गजनवी , , कुतुबुद्दीन ऐबक   शरशाह सूरी  और  हुमायूं  आदि ने आक्रमण किए लेकिन इस पर विजय पाने में असफल रहे। कालिंजर विजय अभियान में ही तोप के गोले से शेरशाह की मृत्यु हो गई थी। मुगल शासनकाल में बादशाह  अकबर  ने इसपर अधिकार किया।
बाद में यह राजा  छतरसाल  के हाथों में आ गया और अन्ततः अंग्रेज़ों के अधीन आ गया। इस दुर्ग में कई प्राचीन मन्दिर हैं, जिनमें से कई तो  गुप्तवंश  के तीसरी से पांचवी शताब्दी  तक के ज्ञात हुए हैं। यहाँ  शिल्प कला  के बहुत से अद्भुत उदाहरण हैं। 
कालिंजर शब्द (कालंजर) प्राचीन पौराणिक  हिन्दू ग्रंथों  में उल्लेख तो पाता है, किन्तु इस किले का सही सही उद्गम स्रोत अभी अज्ञात ही है। जनश्रुतियों के अनुसार इसकी स्थापना  चंदेल वंश  के संस्थापक चंद्र वर्मा ने की थी, हालांकि कुछ इतिहासवेत्ताओं का यह भी मानना है कि इसकी स्थापना केदारवर्मन द्बारा  करवायी गई थी। एक अन्य मान्यता के अनुसार  औरंगजेब  ने इसके कुछ द्वारों का निर्माण कराया था। हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार यह स्थान  सतयुग  में कीर्तिनगर, त्रेता युग  में मध्यगढ़,  द्वापर युग में सिंहलगढ़ और  कलियुग  में कालिंजर के नाम से विख्यात रहा है! जिस पहाड़ी पर कालिंजर दुर्ग निर्मित है, यह दक्षिण पूर्वी  विंध्याचल  श्रेणी का भाग है।! पर्वत का यह भाग १,१५० मी॰ चौड़ा है व ६-८ कि॰मी॰ में फ़ैला हुआ है। इसके पूर्वी ओर एक अन्य छोटी किन्तु ऊंचाई में इसी के बराबर पहाड़ी है, जो कालिंजरी कहलाती है। कालिंजर पर्वत की भूमितल से ऊंचाई लगभग ६० मी॰ है। यहाँ विंध्याचल पर्वतमाला के अन्य पर्वत जैसे मईफ़ा पर्वत, फ़तेहगंज पर्वत, पाथर कछार पर्वत, रसिन पर्वत, बृहस्पति कुण्ड पर्वत, आदि के बीच बना हुआ है। ये पर्वत बड़ी चट्टानों से युक्त हैं व यहाँ ढेरों प्रकार के वृक्ष एवं झाड़ियां पाई जाती हैं, जिनमें से कई औषधीय भी हैं।इस दुर्ग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ढेरों युद्धों एवं आक्रमणों से भरी पड़ी है। विभिन्न राजवंशों के हिन्दू राजाओं तथा मुस्लिम शासकों द्वारा इस दुर्ग पर वर्चस्व प्राप्त करने हेतु बड़े-बड़े आक्रमण हुए हैं, एवं इसी कारण से यह दुर्ग एक शासक से दूसरे के हाथों में चलता चला गया। किन्तु केवल चन्देल शासकों के अलावा,: कोई भी राजा इस पर लम्बा शासन नहीं कर पाया।
इस दुर्ग में सात द्वारों से प्रवेश किया जा सकता है। दुर्ग का प्रथम द्वार सिंह द्वार कहलाता है, और यही मुख्य द्वार भी है। इसके उपरान्त द्वितीय द्वार गणेश द्वार कहलाता है, जिसके बाद तृतीय दरवाजा चंडी द्वार है। चौथे द्वार को स्वर्गारोहण द्वार या बुद्धगढ़ द्वार भी कहते हैं। इसके पास एक जलाशय है जो भैरवकुण्ड या गंधी कुण्ड कहलाता है। किले का पाचवाँ द्वार बहुत कलात्मक बना है तथा इसका नाम हनुमान द्वार है। यहाँ कलात्मक शिल्पकारी, मूर्तियाँ व चंदेल शासकों से सम्बन्धित शिलालेख मिलते हैं। इन लेखों में मुख्यतः  कीर्तिवर्मन तथा मदन वर्मन का नाम मिलता है। यहाँ मातृ-पितृ भक्त,  श्रवणकुमार  का चित्र भी दिखाई देता है। छठा द्वार लाल द्वार कहलाता है जिसके पश्चिम में हम्मीर कुण्ड स्थित है। चंदेल शासकों का कला-प्रेम व प्रतिभा यहाँ की दो मूर्तियों से साफ़ झलकती है। सातवाँ व अंतिम द्वार नेमि द्वार है। इसे महादेव द्वार भी कहते हैं। इनके अलावा मुगल बादशाह आलमगीर औरंगजेब  द्वारा निर्मित आलमगीर दरवाजा, चौबुरजी दरवाजा, बुद्ध भद्र दरवाजा, और बारा दरवाजा नामक अन्य द्वार भी हैं। यहीं एक कुण्ड भी है जो सीताकुण्ड कहलाता है। किले में स्थित दो तालों, बुड्ढा एवं बुड्ढी ताल के जल को औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है जिसमें स्नान कर स्वास्थ्य लाभ उठाया जाता था। इनका जल चर्म रोगों के लिए लाभदायक बताया जाता था व मान्यता है कि इसमें स्नान करने से कुष्ठ रोग भी ठीक हो जाता है।
यहाँ कई त्रिमूर्ति भी बनायी गई हैं, जिनमें  ब्रम्हा , विष्णु ,  एवं शिव  के चेहरे बने हैं। कुछ ही दूरी पर  शेष शायी विष्णु  की  क्षीरसागर  स्थित विशाल मूर्ति बनी है। इनके अलावा भगवान  शिव , कामदेव , शचि (इन्द्राणी), आदि की मूर्तियां भी बनी हैं। इनके अलावा यहाँ की मूर्तियां विभिन्न जातियों और धर्मों से भी प्रभावित हैं। यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि चन्देल संस्कृति में किसी एक क्षेत्र विशेष का ही योगदान नहीं है। चन्देल वंश से पूर्ववर्ती बरगुजर शासक शैव मत के आवलम्बी थे। इसीलिये अधिकांश पाषाण शिल्प व मूर्तियां शिव, पार्वती,  नंदी  एवं शिवलिंग की ही हैं। शिव की बहुत सी मूर्तियां नृत्य करते हुए में ताण्डव मुद्रा में, या फिर माता पार्वती के संग दिखायी गई हैं। इनके अलावा अन्य आकर्षणों में वेंकट बिहारी मन्दिर, दस लाख तीर्थों का फल देने वाला सरोवर, सीता-कुण्ड, पाताल गंगा, आदि हैं। 

कालिंजर दुर्ग में प्रतिवर्ष  कार्तिक पूर्णिमा  के अवसर पर पाँच दिवसीय  कटकी मेला  (जिसे कतिकी मेला भी कहते हैं) लगता है। इसमें हजारों श्रद्धालुओं कि भीड़ उमड़ती है। साक्ष्यों के अनुसार यह मेला चंदेल शासक परिमर्दिदेव (११६५-१२०२ ई॰) के समय आरम्भ हुआ था, जो आज तक लगता आ रहा है। इस कालिंजर महोत्सव का उल्लेख सर्वप्रथम परिमर्दिदेव के मंत्री एवं नाटककार वत्सराज रचित नाटक रूपक षटकम में मिलता है। उनके शासनकाल में हर वर्ष मंत्री वत्सराज के दो नाटकों का मंचन इसी महोत्सव के अवसर पर किया जाता था। कालांतर में मदनवर्मन के समय एक पद्मावती नामक नर्तकी के नृत्य कार्यक्रमों का उल्लेख भी कालिंजर के इतिहास में मिलता है। उसका नृत्य उस समय महोत्सव का मुख्य आकर्षण हुआ करता था। एक सहस्र वर्ष से यह परंपरा आज भी कतकी मेले के रूप चलती चली आ रही है, जिसमें विभिन्न अंचलों के लाखों लोग यहाँ आकर विभिन्न सरोवरों में स्नान कर नीलकंठेश्वर महादेव के दर्शन कर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं। तीर्थ-पर्यटक दुर्ग के ऊपर एवं नीचे लगे मेले में खरीददारी आदि भी करते हैं। इसके अलावा यहाँ ढेरों तीर्थयात्री तीन दिन का कल्पवास भी करते हैं। इस भीड़ के उत्साह के आगे दुर्ग की अच्छी चढ़ाई भी कम होती प्रतीत होती है। यहाँ ऊपर पहाड़ के बीचों-बीच गुफानुमा तीन खंड का नलकुंठ है जो सरग्वाह के नाम से प्रसिद्ध है। वहां भी श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती है।

   विंध्य भूमि के इस ऐतिहासिक दुर्ग को देखे बगैर  विंध्याचल पर्वत की महत्ता को आंकना कठिन है , इसलिए राजवंशों के उत्थान पतन की गाथाएं हृदय में संजोये , इस दुर्गम  दुर्ग को नमन करना आवश्यक है ! 




  





   बिरसिंगपुर के गैबी नाथ

   सतना से करीब तीस किलोमीटर दूर स्थित है , बिरसिंगपुर का अत्यंत प्राचीन शिव मंदिर गैबी नाथ मंदिर ! यहां शिव और पार्वती के अलग अलग मंदिर हैं जिनके बीच स्थापित है एक तालाब ! शिव मंदिर से पार्वती के मंदिर तक लम्बी बंधन की कतार है , जो उन्हें दंपत्ति के रूप में दिखाती है ! कहते हैं की यवनो के आक्रमण के समय , इस शिव लिंग पर किसी एवं ने तलवार चलाई तो इससे दूध की धरा  बह  निकली थी ! यह देख  यवन  भी इसे नमन कर वापिस लौट गए थे ! आज इस शिव लिंग का अभिषेक यहां के ग्रामीण आस्था के साथ करते हैं , और लोगों की मनोकामना यहां पूरी होती ही है !
 शिवरात्रि में यहां बहुत बड़ा मेला लगता है ! इस मेले में दूर दूर से ग्रामीण आते हैं ,
 यह इस स्थान का सिद्ध मंदिर है !
  सतना की भूमि पर यह सिद्ध मंदिर माना गया है जिसके दर्शन से पुण्य लाभ होता है !


 माधव गढ़  का किला


     रीवा के महाराजा  विश्वनाथ प्रताप  प्रताप सिंह , प्रकृति प्रेमी और  विद्वान थे ,  उन्होंने  अपने  राज्य के अंतर्गत , तमसा नदी के किनारे यह  गढ़ी  बनवाई और उसे अपने छोटे भाई लक्ष्मण सिंह को सौंप दी ! लक्ष्मण सिंह ने बाद में इस गढ़ी का विकास किया , और यहां अपने महल के साथ , एक छोटा सा दरबार हाल , और  तमसा नदी के सौंदर्य को निहारने के लिए किले की दीवार पर एक छायादार बैठक बनवाई !
   बल खाती , तमसा नदी यहां पथरीले क्षेत्र बहती है , इसलिए नदी की धार  उथली , और चौड़ी हो कर , इसकी रमणीयता बढ़ा देती है ! गढ़ी से जुड़ा  माधव गढ़ एक प्राचीन गावं है ! आज़ादी के बाद यह विकसित हुआ है , किन्तु मात्र दस किलोमीटर दूर सतना नगर इसकी सभी जरूरतें पूरी क्र देता है , इसलिए , यहां बाज़ार विकसित नहीं हुआ !

  ( अपनी डाक्यूमेंट्री लगा दें )

   किले और  गढ़ियों  में विशेष अंतर् यह है की ,  गढ़ियाँ  सामंतों के निवास हेतु बनती थीं  जबकि किले युद्ध से बचाव करने के लिए , चारों और के परकोटे सहित तैयार किये जाते थे !  कोठी की गढ़ी , सोहावल की गढ़ी , सज्जनपुर की गढ़ी ,  जैसी कई   गढ़ियाँ  इस क्षेत्र में मौजूद है , जो बघेल राज की सुदृढ़ता का प्रतीक हैं !  इसके अतिरिक्त यहां  मठ  भी देखने को मिलते हैं जो सन्यासियों के मठ कहलाते हैं ! किसी युग में सन्यासी भी  योद्धा  होते  थे , और वक्त पड़ने पर किसी भी  राजा की सहायता भी करते थे ! यह स्वतंत्र , घुम्मकड़ , स्वावलम्बी फौज थी  जो अखाड़े के रूप में घूमती रहती थी !
     धर्म के  सबसे बड़े मेले , कुम्भ में , आने वाले अखाड़े इसी परम्परा का प्रतीक हैं !   !



 रामपुर बघेलान

   सोलंकी राजपूत , बघेलों  की वृहत बस्ती है , रामपुर बघेलान !  यहां भी एक गढ़ी है ! आज यह एक विकसित  कस्बा है जहां शिक्षा , संस्कृति , के अलावा , एक समर्द्ध बाजार भी है ! 
   इस क्षेत्र में कभी पशुपालन को बहुत महत्त्व दिया जाता था , इस लिए यहाँ दूध और खोवे के अत्यंत स्वादिष्ट मिष्ठान बनते हैं , जिनमें   दूध से बने एक मिस्ठान ,,," खुर्चन " को बहुत पसंद किया जाता है !  खुर्चन , दूध की मलाई की परतों से तैयार होता है ! 
 

 स्थान की शूटिंग करें अगर उचित समझें तो लिख दिया जाएगा !

  रामवन 

    सतना रीवा मार्ग पर  बसे   सज्जनपुर गावं के निकट बना है ' रामवन ' जिसका तुलसी संग्रहालय ,  दर्शनीय है ! यहां   मूर्तियों के संग्रहालय के अलावा , हस्तलिखित प्राचीन रामायण भी उपलब्ध है ! यहां एक राम का मंदिर है , और उसके पीछे उपवन है !  उपवन में हनुमान जी के विराट स्वरूप को दर्शाने वाली ऊंची मूर्ती प्रतिष्ठापित है ! इस हनुमान परिसर में ,, राम की पूरी कथा , एक बड़ी गैलरी के रूप में , मूर्तियों  द्वारा उत्कीर्ण है !  आस्था , और मानवीय पवित्र संबंधों को भूलती , नयी पीढ़ी को अपने गौरवमयी संस्कृति से परिचय करवाने हेतु बना यह हनुमान मंदिर  सार्थक  है !
 हनुमान परिसर के सामने ही बना है , शिव परिवार का मनोरम दृश्य , जो कैलाश पर विराजे  शिव के साथ , गणेश , कार्तिकेय , और नंदी के दर्शन भी करवाता है !  यहां भी चारों और एक दीर्धा है , विभिन्न देवी देवताओं की !
        रामवन में , एक बहुत सुन्दर भवन है , जहां सदैव , धार्मिक संवादों के आयोजन होते रहते हैं !
   पर्यटकों  को आकर्षित करने के लिए , राम वन एक उपवन बन गया है , जहां अब  वाटर  पार्क के अलावा , बच्चों के स्वतन्त्र खेलने के लिए कई साधन उपलब्ध हैं ! रामवन परिसर में , अब एक  विविध व्यंजनों युक्त , केंटीन भी है , जहां जा कर पर्यटक , दर्शनों के पश्चात , भोजन भी प्राप्त कर सकता है !
 यहां बसंत पंचमी के दिन , ग्रामीणों का बड़ा मेला लगता है !

   सतना जिले का राम वन , आज पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बनता जा रहा है , जहां ज्ञान है , आध्यात्म है , दर्शन है , और उपवन का  आकर्षण है ! सतना आने पर यहां जरूर आना चाहिए !

 प्रिज्म सीमेंट  , जे पी सीमेंट   खजुराहो सीमेंट संयंत्र

    सीमनेट संयंत्र हैं ! इनकी अगर शूटिंग कर लें तो तथ्य लिख देंगें !
   सतना की भूमि , कई धरोहरों से युक्त भूमि है , जिसे देखने के लिए वृहत भ्रमण और पर्यटन की जरूरत है ! तथापि , अगर आप एक बार इस भूमि पर पग रखेंगें , तो बिना सब कुछ देखे , लौटने का मन नहीं होगा !
   एक बार मन बनाइये ,,, और यहां आकर प्रकृति , और धरोहरों के बीच खो जाइये !

    

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