सोमवार, 10 दिसंबर 2018

किताबों के कीड़े ,
किताबों में रहते हैं ,,
किताबें कुतरते ,
किताबें खाते हैं ,,
और जब बहुत मोटे हो जाते हैं ,
 तब बाहर आते हैं ,,!!

बाहर निकलने पर ,
वे दीमक को समझाते हैं ,,!
की किताबें तो बस  वही  हैं ,,
जिसको उन्होंने पढ़ा ,,
बाकी तो ,,बकवास है ,
 ' मूर्खों का गढ़ा ',,!!

वर्जनाओं को तोड़ दो ,
 हवाओं का  रुख मोड़ दो ,,
तुम घुसो हर  जगह पर ,
हर पुराने घर ,
फोड़ दो ,

तुम  लिखो  कि,,
नदियों के धारे ,,
ऊपर से नीचे क्यों नहीं बहे ,,?
तुम कहो कि,,
पर्वत घमंडी ,,
सर उठाये क्यों खड़े ,,??

तुम ये पूछो ,
 क्यों हवा में ,,परिंदों का राज है ,,?
तुम ये  पूछो  ,
 शेर क्यों ,,
 बकरी को खाने को आज़ाद है ,,??
तुम बताओ ,,
 नई पीढ़ी को,,, कि ,,
वाद ही संवाद है ,,!
तुम  समझाओ ,
प्रगति का  मतलब  ही  बस ,
 प्रतिवाद है ,,!!

बदल दो तुम देश ,
 हर परिवेश ,
तोड़ कर पुराने विश्वाश ,
मिटा दो किंबदंती ,
  कि,,लिख लो ,
खुद नया इतिहास ,,,!!
भुला दो पूर्वजों के नाम ,
पुराने खानपान ,,!
कि किंचित शेष ना रह पाए ,
 अपने आप की पहचान ,,!!

प्रगति के नाम पर ,
विदेशी हाथ,,,
 थाम कर ,,
तुम धरो एक लक्ष्य ,
की हो तुम्हारा ,,
चतुर्दिश ,,एकछत्र ,,राज ,,,
रटाते रहो सबको सदा ,
की बाकी सब हैं ,
 गरीब और मजदूर ,,
एक तुम ही हो ,
 सबके ,,," गरीब नवाज़ " ,,,!!
रियासत से ,,
 सियासत तक ,
प्रजा कहलाये ,हरदम ,एक चिड़िया ,,
और तुम   रहो  ,,
उनके शिकारी ,,,
 आसमां में उड़ते ,,,' बाज़ ' ,,!!

---  सभाजीत