किताबों के कीड़े ,
किताबों में रहते हैं ,,
किताबें कुतरते ,
किताबें खाते हैं ,,
और जब बहुत मोटे हो जाते हैं ,
तब बाहर आते हैं ,,!!
बाहर निकलने पर ,
वे दीमक को समझाते हैं ,,!
की किताबें तो बस वही हैं ,,
जिसको उन्होंने पढ़ा ,,
बाकी तो ,,बकवास है ,
' मूर्खों का गढ़ा ',,!!
वर्जनाओं को तोड़ दो ,
हवाओं का रुख मोड़ दो ,,
तुम घुसो हर जगह पर ,
हर पुराने घर ,
फोड़ दो ,
तुम लिखो कि,,
नदियों के धारे ,,
ऊपर से नीचे क्यों नहीं बहे ,,?
तुम कहो कि,,
पर्वत घमंडी ,,
सर उठाये क्यों खड़े ,,??
तुम ये पूछो ,
क्यों हवा में ,,परिंदों का राज है ,,?
तुम ये पूछो ,
शेर क्यों ,,
बकरी को खाने को आज़ाद है ,,??
तुम बताओ ,,
नई पीढ़ी को,,, कि ,,
वाद ही संवाद है ,,!
तुम समझाओ ,
प्रगति का मतलब ही बस ,
प्रतिवाद है ,,!!
बदल दो तुम देश ,
हर परिवेश ,
तोड़ कर पुराने विश्वाश ,
मिटा दो किंबदंती ,
कि,,लिख लो ,
खुद नया इतिहास ,,,!!
भुला दो पूर्वजों के नाम ,
पुराने खानपान ,,!
कि किंचित शेष ना रह पाए ,
अपने आप की पहचान ,,!!
प्रगति के नाम पर ,
विदेशी हाथ,,,
थाम कर ,,
तुम धरो एक लक्ष्य ,
की हो तुम्हारा ,,
चतुर्दिश ,,एकछत्र ,,राज ,,,
रटाते रहो सबको सदा ,
की बाकी सब हैं ,
गरीब और मजदूर ,,
एक तुम ही हो ,
सबके ,,," गरीब नवाज़ " ,,,!!
रियासत से ,,
सियासत तक ,
प्रजा कहलाये ,हरदम ,एक चिड़िया ,,
और तुम रहो ,,
उनके शिकारी ,,,
आसमां में उड़ते ,,,' बाज़ ' ,,!!
--- सभाजीत
किताबों में रहते हैं ,,
किताबें कुतरते ,
किताबें खाते हैं ,,
और जब बहुत मोटे हो जाते हैं ,
तब बाहर आते हैं ,,!!
बाहर निकलने पर ,
वे दीमक को समझाते हैं ,,!
की किताबें तो बस वही हैं ,,
जिसको उन्होंने पढ़ा ,,
बाकी तो ,,बकवास है ,
' मूर्खों का गढ़ा ',,!!
वर्जनाओं को तोड़ दो ,
हवाओं का रुख मोड़ दो ,,
तुम घुसो हर जगह पर ,
हर पुराने घर ,
फोड़ दो ,
तुम लिखो कि,,
नदियों के धारे ,,
ऊपर से नीचे क्यों नहीं बहे ,,?
तुम कहो कि,,
पर्वत घमंडी ,,
सर उठाये क्यों खड़े ,,??
तुम ये पूछो ,
क्यों हवा में ,,परिंदों का राज है ,,?
तुम ये पूछो ,
शेर क्यों ,,
बकरी को खाने को आज़ाद है ,,??
तुम बताओ ,,
नई पीढ़ी को,,, कि ,,
वाद ही संवाद है ,,!
तुम समझाओ ,
प्रगति का मतलब ही बस ,
प्रतिवाद है ,,!!
बदल दो तुम देश ,
हर परिवेश ,
तोड़ कर पुराने विश्वाश ,
मिटा दो किंबदंती ,
कि,,लिख लो ,
खुद नया इतिहास ,,,!!
भुला दो पूर्वजों के नाम ,
पुराने खानपान ,,!
कि किंचित शेष ना रह पाए ,
अपने आप की पहचान ,,!!
प्रगति के नाम पर ,
विदेशी हाथ,,,
थाम कर ,,
तुम धरो एक लक्ष्य ,
की हो तुम्हारा ,,
चतुर्दिश ,,एकछत्र ,,राज ,,,
रटाते रहो सबको सदा ,
की बाकी सब हैं ,
गरीब और मजदूर ,,
एक तुम ही हो ,
सबके ,,," गरीब नवाज़ " ,,,!!
रियासत से ,,
सियासत तक ,
प्रजा कहलाये ,हरदम ,एक चिड़िया ,,
और तुम रहो ,,
उनके शिकारी ,,,
आसमां में उड़ते ,,,' बाज़ ' ,,!!
--- सभाजीत