गुरुवार, 15 जुलाई 2021

गद्य रचनाएं

 काफी हाउस में  वे रोज़ की  तरह ,  पांच बजे  इकट्ठे  हुए !!  उनकी टेबल  खिडकी  के पास  ही  थी ! वे सब बुद्धिवादी थे  और रोज़ देश की किसी  ना किसी  समस्या पर  बहस   करते  थे ! वे पूरी  बहस में सरकार और व्यवस्था की धज्जियां उडाते  और वर्तमान  को कोसते ....बहस में कभी कभी इतने  उत्तेजित हो  जाते कि लगता वे एक दूसरे  की  कालर  पकड़ लेंगे !!


        आज जब इकट्ठे  हुए तो घोष बाबू बहुत चिंतित थे ! सुबह के अखबार में  उनके शहर से सेकडों किलो  मीटर  दूर .मेरठ में एक भीषण  दुर्घटना हुई थी  जिसमे  एक युवक ट्रक के नीचे आ कर छितरा  गया  था ! घोष बाबू ने बात  शुरु की  कि ट्रेफिक  पुलिस कुछ नही देखती उसकी लापरवाही से .एक युवा और एक भरे पूरे घर का तो पूरा  भविष्य ही ऊजड  गया ! फौरन  ही तिवारी ,  भल्ला , मेहता , केलकर , नायर  ,विषय में  कूद गये ! पहले  पुलिस की ,फिर ट्रक ड्रायवरों की ,  फिर व्यवसाईयों की , फिर ज़िले की व्यवस्था की , फिर नेताओं की  , फिर राजनितिक पार्टियों से होती  हुई  बहस केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री  तक पहुँच गयीं !इस बीच तीन बार  काफी आई और खत्म हो गयी !आवाजें  इतनी तेज  हो गयीं , और चेहरे इतने तमतमा गये कि लगा हाथा पायी  ना हो जाये !


      खिडकी  से बाहर इस बीच एक बहुत जोर से आवाज  आयी ! लगा  जैसे  कोई गाडी किसी और गाडी से टकरा  गयीं ! एक मोटर सायकिल शायद एक ट्रक के नीचे आ गयीं थी ! थोडी देर में वहां भीड  हो गयीं .! कुछ लोग चिल्लाते हुए किसी घायल व्यक्ति को रिक्शे में टांग  कर ले गये ..उसे उठाते समय ट्रेफिक पुलिस के सफेद कपडे भी  खून में सन गये !  थोडी देर में ही भीड छंट  गयीं ! 


      काफी  हाउस की खिडकी  एयर टाईट  थी ! बाहर दिखा तो ज़रूर लेकिन आवाजे  नही  सुनाई दीं ! 

काफी हाउस के अन्दर उनकी बहस बदस्तूर चालू रही ! बात मेरठ की थी सभी का ह्रदय  बेध चुकी थी और तब भल्ला केन्द्र में नेत्रत्व परिवर्तन की  जोरदार वकालत  में लगा  था !


    आधा घंटे  बाद भल्ला को जब फ़ोन आया तो वे सब काफी छोड  कर बदहवास उठ  खड़े हुए .!


       भल्ला का  बेटा अस्पताल  में था  ...उसका एक एक्सीडेंट मोटर साएकिल से अभी अभी ..काफी  हाउस  के पास वाली रोड पर  हुआ  था !  सड़क चलते लोगों ने  ट्रेफिक पुलिस की सहायता से उठा कर समय  रहते अस्पताल  पहुँचा दिया था .!!


    कहते हैं मौके पर उपस्थिति लोगों  ने  बातचीत में समय जाया ना  करके तुरंत उसे अस्पताल पहुँचा दिया  इसलिये  उसकी जान बच गयीं !!


 ---- सभाजीत

***********

फिल्म इंडस्ट्री को प्रतिभावान  अभिनेता , डायरेक्टर , स्क्रिप्ट राइटर प्रदान करने हेतु स्थापित की गई   पूना फिल्म इंस्टीट्यूट भी साधारण विद्यार्थी को विद्यार्जन देने  हेतु उनकी  आर्थिक  सीमाओं  से सदा बाहर रही !  इसलिए यह संस्थान सिर्फ उस अभिजात्य वर्ग के ही काम आया , जो पैसा देकर , अपने बच्चे  को  शिक्षा प्राप्त करवा सकते थे !


     दूसरे  , यह संस्थान सिर्फ पूना जैसे ' महानगर ' की सीमा में  सिमट कर रह गया ! यह ' यूनिवर्सिटी ' नहीं बन पाया , और  "  डिस्टेंट  "  एजुकेशन देने के लिए योग्य नहीं बन पाया ! 

 इसके हास्टल खर्चे भी बहुत थे , और महानगर होने के कारण  विद्यार्थी की पाकिट मनी भी अधिक खर्च होती थी ! 


     वस्तुतः , जब तक फिल्मे , सेल्युलाइड आधारित रही ,,,उसकी तकनीक भी जटिल रही ! 

   पहले  तीव्र प्रकाश में फिल्म शूट करना होता था , फिर प्रोसेस करके , निगेटिव बनाना , फिर कांटेक्ट प्रिंट जिस पर एडीटिंग होती थी ,  विभिन्न  टुकड़ों  को मोबीला पर काट काट कर फिर जोड़ना ,  फिर साउंड स्टूडियो में  एडिटिंग , और फिर अंत में ' रिलीस प्रिंट ' !  


      इन जटिल कार्यो के लिए मुंबई में ही लेब स्थापित हुई , और साउंड स्टूडियो भी !  किन्तु इनके पोस्ट प्रोडक्शन का  व्यय  इतना अधिक था , की कलात्मक फिल्म बनाने वाला  यह व्यय  उठा ही नहीं सकता था ! इसलिए सत्यजित राय ने  ३५ एम एम की जगह पहले १६ एम एम कैमरे का उपयोग किया , जिसमे पोस्ट प्रोडक्शन  व्यय कम था ! 


      लेकिन , आज , digital   सिस्टम आने के बाद  जरूरी नहीं रहा की फिल्म को  ' उद्योग ' की तरह , एक चहारदीवारी में कैद रखा जा सके ! आज कैमरे में फिल्म की जगह छोटी सी मेमोरी कार्ड लगती है , जिसमे कई घंटे की शूटिंग रिकार्ड हो सकती है !  एक से एक इफेक्ट से सुसज्जित , एडिटिंग सॉफ्टवेयर  आ गए , जो एक कंप्यूटर सिस्टम पर काम करते हैं ,,,और अब एडिटिंग कोई कठिन काम नहीं रहा ! 


     ऐसे में भारी भरकम फीस युक्त  फिल्म इंस्टीट्यूटों  की प्रासिंगकता समाप्त ही मानी जानी चाहिए ! ,,, तकनीक के सरलीकरण के बाद , जो शेष बचता है , वह प्रतिभा पर निर्भर करता है -- जैसे अभिनय , निर्देशन ,   और इसके लिए कोई व्यक्ति किसी इस्टीट्यूट  पर निर्भर नहीं ! 


     दिलीप को एक्टिंग किसने सिखाई ,,,,मीना कुमारी किस इंस्टीट्यूट की क्षात्र थी ,,?? देवानंद  ने क्या पढ़ कर काम किया ,,,?? ,,,यह सवाल स्वयं फिल्म इंस्टीट्यूट  की निरर्थकता का जबाब हैं ! 


      इसलिए आज , बस फिल्म बनाने की लगन , और जज़्बा चाहिए ,,,, अगर वह है ,,,तो सब कुछ आपके आसपास ही है ,,,दूर जाने की जरुरत नहीं !! 


     एक बात और है , पिछले ६५ वर्षों से हम फिल्म को मुंबई की सीमाओं से मुक्त नहीं करवा पाये ,,, इसका कारण यह है की यह शिक्षा के पाठ्यक्रम में जोड़ा ही नहीं गया ! काश की यह विधा हर यूनिवर्सिटी  में , अन्य पाठ्यक्रम , एमबीएस , इंजीनियरिंग , की तरह पाठ्यक्रम से चालु करती ,,,क्यूंकि आज इस पाठ्यक्रम को संचालित करने के लिए ना तो  अलग से किसी बड़े केम्पस की जरुरत है , ना  किसी बड़े स्टूडियो या लेब की , और ना किसी बड़े बजट की !   '

--'सभाजीत '

मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

 कविताएं,,

गरीब हूँ,,


दिमागी ज़िल्लत  नहीं,,

 बस,,

,,,' पेट,,और,,जीभ ' ,,हूँ ।

,,,गरीब हूँ,,।।


सोता हूँ ,,पीता हूँ ,,खाता हूं ,,

उतना ही कमाता हूँ ,,

जितना पचाता हूँ ,,

न कोई मेरा मुरीद,,

न में किसी का मुरीद हूँ ,,।

,,,,,,,,गरीब हूँ ।।


लुट जाऊंगा ,,

इसका भी कोई  डर नहीं ,,

क्योंकि ,,

मेरा पास अपना कोई घर नहीं ,,।

  वक्त ने ,,जिसको ,,

जगह जगह रफू किया 

खूंटी पर टँगी,एक ,

 फटी हुई  कमीज हूँ ,,।


,,,गरीब हूँ ।


मेरे बारे में सोच कर ,

  कई कई लोग ,,हैरान है ,,।

 सदियों से बहता पसीना ,,

 ही मेरी एक पहचान है ,,

  उजले रंग रूप में ,

मेरी कोई जगह नहीं ,,

 कीचड़ और गन्दगी में बसे 

  लोगों का नसीब हूँ ,,।। ,,


गरीब हूँ ।


कुछ भरे पेट लोगों के लिए,,

एक ' बर्निंग ' ,,सब्जेक्ट हूँ ,,

संविधान के पेजों में दर्ज ,

कानूनी एक्ट हूँ ,,

बड़े बड़े पैकीज के लिए ,

सरकारी  पैक्ट हूँ ,

किसी को  आंखों से न दिखे ,,

ऐसा एक फैक्ट हूँ ,,

चुनावों में मसीहा

बाकी समय  खुद ,

,,बेजान,,,' सलीब '  हूँ ,,।


गरीब हूँ ,,।


---सभाजीत

**विकास ***

  

     मेरे  दादा  के पास  ,

     नही  थी  कोई  जेब ..,

      क्यूँकी 

      वे पहनते  थे  एक  धोती ...ओर बंडी ,

        जिसमे नही होती थी  जेबें .!


        ओर 

        पिता के पास  थी दो  जेबें ,

         उनके  कुरते  में ,

           इसलिये थोडा डरते  रहे ,

           अकले  सड़क  पर  जाने  से ,


            मेरे  पास  है ,.. हैं  कई  जेबें ,

            चोर जेबें .., चैन बन्द जेबें ..,

            आधुनिक जींस ..पेंट   ओर शर्टों  में ,

            ...  डरा  हुआ  रहता  हूँ ..,

               नही  निकलता घर  से  बाहर ,

                कि पता  नही   कौन हो  लुटेरा ,

                  दोस्त ,भाई , यार  की  शक्ल में  ,


मन से कोई बात,,

कभी,,

 सीधी ,,उतर गयी कागजों पर ,

उसे पहचान बना लिया ,,

कुछ लोगों ने ,,,

, मेरी,,!


उम्र भर ,,

वही पहचान लिए,,

घूमता रहा ,,

हाट बाजार,,,

और बेचता रहा,,

चिन्दी चिन्दी  लिखा,,,

बहुत कुछ ,,।।


हर बार,,

मिलते रहे तमगे,,

कीमत की तरह ,,

और सजते गए ,,

मेरी पहचान पर,,

मेडल की तरह,,।


एक दिन,,

मुड़ के देखा,,

तो पाया,,

हज़ारों लोगों को ,,

पीछे खड़े हुए ,,

मेरी तरह ही 

तमगे लगे हुए ,,

 हँस रहे थे ,,

 मेरे जैसे कई लोग ,,,


और,,

नज़र उठा कर जो देखा सामने ,,

तो देखा ,,

  कब्रों में सोये थे ,,

कई लोग,,


तमगे,,

जिनकी कब्र पर ,

बिछे हुए थे फूलों की तरह ,,।


दायें और बाएं,,

खड़े थे और भी 

बहुत से ,,,

तमगों से सजे ,,

आंखों से घूरते ,,

होठों से मुस्कराते ,,

कई,, कई लोग ,,।


घबरा कर ,,

पूछा मन से ,,

क्या कोई मैं,,फौजी था,,?

या अपनी बात मौज में कहने वाला,,

एक मनमौजी था ,,?? 


मगर,,

मन पर तो जड़ चुके थे,

अब,

कई कई  तमगों के ताले ,,

मन में कहां उपजने वाले थे ,,

सहज जवाब,,

पुरानी  अनुभूतियों  वाले ,? 


--' सभाजीत '

हुआ,,

,,थालियों का ध्वनि नाद,,,

यह उद्गघोषित करने के लिए,

कि हम हैं,,जिंदा

अपने घरों में रह कर

' अपने लिए ,,'

 ' अपनों के लिए ,,',,!


और कृतज्ञ हैं उनके भी ,

जो हैं जिंदा,,

' दूसरों के लिए ।' 


जो हमें नहीं जानते,

और जिन्हें हम भी नहीं जानते,,,

उनके और  हमारे बीच ,,

 एक रिश्ता है ,

,,'कर्तव्य 'का,,।

 अहसास का,,

 कि,,

  जब भी हम होंगे असहाय 

 उनके सुदृढ हाथ ,,

  सम्हाल लेंगें हमें ।


 जरूरी है यह अहसास,,

  ये रिश्ता ,,

  हम उन सब के बीच ,,भी

  जहां की खिड़कियों ,,

  छतों ,,बालकनियों से , 

  उठी है ध्वनि तरंगें ,,

  एक दूसरे के समवेत स्वरों में ,

  एक दूसरे को देखते हुए ,,

  की यह ध्वनि तुम्हारे लिए भी है ,,

  तुम भी अब अजनबी नहीं हो ,,

  जब भी होंगे असहाय  तुम 

,,,,तो ,

  पुकार लेना हमें ,, ,,

   तुम अकेले नहीं  हो

  हम सम्हाल लेंगें तुम्हें ,, 

  आकर बे हिचक,,

   और सौंप देंगें तुम्हें 

   विश्वास के उस  मसीहा के सुदृढ हाथों में ,,

    जिनके कृतज्ञ हैं हम ,,।


   ये भोजन की थाली की ध्वनि ,,

   सिर्फ ध्वनि नहीं ,,

    एक ,,,रिश्ता है ,,

    ,,,अहसास है ,,

   जो गूंज रहा है , कानों में ,,,शब्द बन कर ,

    कि

    भले ही हम घर में हैं ,,लेकिन,,यह समझ लो ,,

    हम भी जिंदा थे,

    ,जिंदा  हैं ,,

  '  दूसरों के लिए '


  -- सभाजीत

मुझ पर  रख कर पैर ..,

    कई  '  ऊँचाई ' पाये  ,

  मुझ  पर  रख  कर  पैर  .

    कई  नीचे   भी   आये ..,


 सीढी थे या कि 

    फिर  सीढी  का डंडा ...,

        फिर भी खुश  थे ..,

           चलो किसी  के  काम  तो   आये  ..!!


        जीवन के  दिन  हमने अपने ..,

              यही   बिताये ...!!


वे सब मरे हुए हैं ,,

  जो ,,

 मृत्यु से डरे हुए हैं ,,!!


मृत्यु की प्रतीक्षा में ,

  जो  जीते हैं जिंदगी , 

   जीत जिनका लक्ष्य है ,  , 

   है देश जिनकी बंदगी ,,


   शोक कैसा ,,,?? 

 उनके लिए ,,??? 

    वे तो   हैं बलिदानी ,,!! 

वे नहीं हम सब जैसे , 

 वे तो  हैं ,,,,देश - अभिमानी ,,!! 


  घर से जिस दिन  चले थे , 

 सब मोह उस दिन त्यागे थे , 

  छातियाँ दीवार थीं , 

 टकराने , सबसे आगे थे ,,!! 


 छल से होगा वार  , 

तो  वे  बल से करेंगें छार छार 

 खंजर की नोक नहीं ,,,

   तलवार की  हैं  वे ,, तीखी धार , !


  आँखों में आंसू नहीं , 

    गर्व  को धारण करो , 

  करो जय घोष ,  भरो हुंकार ,

  युद्ध का  ,

  उच्चारण करो ,,!!


!!जो हम से टकराएंगे 

    हम जड़ से उन्हें मिटाएंगें ,,  !!


बसन्त में सब कुछ पीली पीली है 

यही सोच कर मोहल्ले के शराबी ने ,

सुबह से ही पीली है ,,,,।

शरीफों ने कहा -नासपीटे ,

 आज तो शर्म करता ,,,आज बसन्त है ,

    सबको  बोतल पलट दिखाते बोला,,,।

      देखलो,'बस अंत ' है ।


 #कलजुगी_बसन्त 


  😂😄😆


बिना  पते  लिफाफे  सा ,

         अपने अन्दर  लिये एक संदेश 


      भटकता रहा  शहर  शहर  , गाँव गाँव  ,

        हर गली ,हर कूँचे , बिना  ठांव ,


            हाथों में कुछ देर थाम ,

                कुछ देर  घूरते  रहे  लोग , 

                   अजनबी  निगाहों  से ,

            ओर फिर  लौटा दिया ,

                 यह कह कर ..,

                   कि  '  उनका  नहीं  मैं .' ..!!


       तो किसके लिये  लिखा  था  संदेश ?

                     उस ईश्वर ने ..??

                        मेरे  अन्दर ...!

                       ज़िसका  ना  था  कोई  पता ,

                           ना  जात   ना  पांत ,

                             ना  घर बार ..ना धर्म ,

                 सिर्फ धुंधला  सा  नाम भर  था ,

             ...''  इंसान ''


" अहसास "  अगर  ' माँ  "  है ,

     तो ' विश्वास  ' है  पिता ..!

    ' धड़कन  '  है  अगर    माँ  तो ,

       हर  ' सांस  '  है  पिता ..!!


        छतरी   की  तरह सर पे  रहे  ,

          हर जगह  हर वक्त ,

         जब याद करो,  पाओगे तुम्हारे   ,

          आसपास   है  पिता ..!!..



."..गन " ...के साये में .. , 

' गण ' - स्वतंत्र है 

सर्द , ठिठुरता 

लोक तंत्र है ..!!


  परम्पराएँ  ही ,,,

" धर्म -ग्रंथ " है ..,

धर्म है मकडी ,

हम पतंग है ..!


हम सब पापी .,

धर्म के घाती ,

मुल्ला .- पंडित 

सभी संत है ..!!


पंथ के अन्दर , 

कई पंथ है ,

मठों में बैठे ,

कई भुजंग है


चतुर शिकारी ,

ठग -व्यापारी ,

हाथ में थामे ,

राजदंड हैं ..!


बर्गर -पिज्जा ,

मांस ओर मज्जा ,

खाने की ,

पहली पसन्द है ,


बिकती शिक्षा ,

दान ओर भिक्षा ,

राजनीति का ,

प्रसंग है ,


आशायें तो , 

बहु अनंत है ,

हाथ है खाली ,

जेब तंग है ..,


चलो कि सब ,

जन मन गण गाये ,

नेताओं को हाथ हिलायें ,

कहो कि हम सब भारत वासी ,

नेताओं के संग संग है ..!!


--sabhajeet


वो  उनकी फ़ौज है ,,,

और 

ये हमारी फ़ौज़ है ,,,।

बन्दूकें जब भी चलेंगी ,,,

तो जो चलाएंगे 

उनकी निश्चित मौत है ।

लेकिन 

जो चलवाएंगे ,

वे  पहले भी सदा सुरक्षित रहे ,

आगे भी रहेंगे,,

उनकी पहले भी मौज थी ,

आगे भी मौज है ,,,।


😣😩


खाली बैठे आदमी को ,

हाथों में दे कर कुछ रकम ,

उसने कहा ,,घर से निकल, 

 चल  ,

 हल्ला बोल ,,। 

चीखता वह सड़क पर ,

दौड़ा एक दिशा में ,,

और  शांत हवा भी ,

थिरक गई ,,

हल्ला बोल,,हल्लाबोल,,।

क्या हुआ ,,,?? 

,पूछा किसी ने ,

तो था जबाब ,,

बस हल्ला बोल ,,।

कुछ हुआ है ,,

सोच कर जो लोग  कुछ निकले घरों से ,

हर तरफ हर कोई बोला ,

हल्ला बोल ,हल्ला बोल ,,।


जिस तरफ देखा ,,

तो हाथ लहराते दिखे ,

झंडे , बैनर , तख्तियां ,

हाथों में  फहराते दिखे,,

व्यवस्था को बदलने जो ,

गीत दुष्यंत ने लिखे ,

व्यवस्था को ' तोड़ने ' का लक्ष्य साध ,

वो गीत ,

बच्चे गाते दिखे ,,!!


व्यवस्था को बनाये रखने ,

 किसी बच्चे का पिता ,

वर्दी पहन जो  ड्यूटी पर दिखा ,

 डिगाने कर्तव्य से ,

  दोस्त के ही पिता पर , 

  बच्चे ,

पत्थर बरसाते दिखे ।


 जो गए थे बनने,

इस देश का भविष्य ,

विद्या के मंदिरों में ,

धर्म के खातिर ,

वो सभी ,

खुद को बरगलाते दिखे ।


नागरिकता,,नागरिकता,,।।

  देखो छिनी नागरिकता,,

  देखो लुटी नागरिकता ,,

  नहीं  मिली नागरिकता ,,

    धर्म ढली  नागरिकता ,,।।

   

  किसको खली नागरिकता ,?

 किसको भली नागरिकता ,?

  किसने छली नागरिकता ,?

   किसकी टली नागरिकता ,,,?? 


   एक मुंह ,,हज़ारों बात ,

    दावँ पेंच ,घात,, आघात,,

     सुबह शाम , दिन और रात ,,

      डाल डाल ,,पात पात ,,।।


       ढूंढते रहे नागरिकता ,,

        शहर शहर,राज्य राज्य ,,

         बूझते रहे नागरिकता,,

        द्वार द्वार ,,गली गली ,

         पूछते रहे नागरिकता ,,


         मगर,,

          उन्हें न दिखी ,

          केम्प में ठिठुरी ,, 

           सहमती   अस्मत बचा ,

            भागी हुई ,

           बेसहारा मां की गोद में 

             दुधमुंही   

              नागरिकता ,,

               खुद के भविष्य के 

                सहारे के लिए ,

               भारत के नेताओं से ,

                नन्हे नन्हे हाथ उठा ,,

                 शरण की भीख मांगती ,,

                   जीवन से दुखी ,

                    नागरिकता ,,।।


            ,,सभाजीत


जा मिया

जाम कर ,,

तिरंगे थाम कर ,

देश को 

बदनाम कर ,,।।


बजा ढपली ,

गीत गा ,

जिस जमाने से ,

सहम , 

लिखीं , पंक्तियां दुष्यंत ने ,

उस जमाने को भुला,

कुछ  तालियां 

अब 

पीट आ ,,।।


क्या तेरा ,

कोई लक्ष्य है ,?

या की तू  खुद ,

पथभृष्ट है ,,?? 

क्या है आज़ादी का मतलब ? ,

' गुलामी ' से ,,

 पूछ आ,,।


या फिर  चोरों के लिए,

कर सेंधमारी ,

और अंधेरे में ही ,

भटक कर ,

सिपाही से ही ,

जूझ जा ,,।।


पेड ..,

      कभी  होते थे ,

      रास्ते के  रखवाले ...,

      

       गुजरते हुए लोग , 

        उसके नीचे ,

       थक  कर लेते  थे   सांस ,

        रूक  कर,

        बतियाते  थे ,

        अजनबी, 

           गावं  वालो से ,

   

          नापते   थे  दूरी ,

          तय   किये   सफर की ,

          ओर  भरते  थे ,

           प्राण वायु , स्फूर्ति,,

            अपने अन्दर ,

             अगले   अनजाने  सफर   के  लिए ..!!

        

         बातियाते लोग ,

            कहते थे ..राह तो है ,

           एक थकान ,

           दो घरों   की  दूरी ,

            पर

            पेड  है जीवन ,

           जीने  के  लिये  ...

             ज़रूरी ...!


          धीरे  धीरे ...,

          फैलते   गये  रास्ते , मर्यादायें तोड़,

          ओर सिकुडते   गये  पेड ,

           

           यहां तक कि ,

            एक दिन वे बन गये.   

            रास्ते के  व्यवधान ,

           तेज  गति  यात्रियो के   लिए . 

           ,,,,,, रोडे !

          

            विहंगो का  बोझ लादे ,

             परोपकारी  साधक ,

             रास्ते  के  सोंदर्य   में ,  

             हो  गये बाधक , 

         

              दिन  दिन  संवरती ,

              इठलाती,,,

           ,,,,,,  राह  , 

              बन  गयी .

             ..रूपवती  रोड ,

              कटते ,,कटते   पेड ,

              बन गए ,

               बस,,,

               मार्ग दर्शक   बोर्ड 

         

             अपने अपने  पंखो को  संभाल ,

             दाने पामी की तलाश में ,

             दूर देश के लिए ,,

              उड   गये  विहंग ,

               बूढे   पेड  के  लिये  ,

               क्यों करें ,, 

                कोई  अब रंज ...??


              ,,,सभाजीत


प्रदर्शन में ,,

मर गए लोग ,,!

वहां क्यों गए थे ,,? 

ये  शायद उन्हें  भी नहीं पता था ।


उन्हें सिर्फ किसी ने बताया था ,,

कि वे खतरे में है ,,।

कोई समझा,,,

आसमान टूटने वाला है ,

किसी को लगा ,,ज़मीन फट रही है ,,

किसी को कहा गया ,,

कल ही प्रलय हो जाएगी ,,

किसी ने समझा ,,

शरीर से लिपटा धर्म ,,

आने वाला बवंडर,,

 उड़ा देगा 

 और वे 

फटेहाल ,,अनावृत  हो जाएंगे ।

कोई डर गया कि कल , 

छीन लेगा कोई ,

उनके बाप दादाओं के ज़माने के घर ,

और भेज देगा उन्हें सात समुंदर  पार,,

काले पानी की तरह ,,।


कठपुतलियों की तरह ,

बिना अपनी किसी समझ के , 

बिना प्रयोजन , 

वे नाचते रहे ,,

उस तमाशे का हिस्सा बन ,

जिसकी तालियां , सिक्के , और वाहवाही ,

तय थी उस तमाशाई  के लिए , 

जो नचा रहा था उन्हें,,

 पर्दे के पीछे खड़ा होकर ,

और बजा रहा था सीटी ,

चतुरता से,,

उंगलियों में उलझे धागों से , 

फंसे किरदारों को उचकाते हुए ।


काठ और आग का रिश्ता ,

नहीं जानती ,,

कठपुतलियां ,,

की आग सुलगती रहे इसलिए,,

काठ जरूरी है ,

 जलने के लिए ।


तमाशे में ,,

 कुछ कठपुतलियां , 

जल गईं ,, मर गईं ,,

तो क्या  हुआ ,,?? 

तमाशाइयों और तमाशों का रिश्ता 

तो बना रहेगा ,,

चोली दामन की तरह ,,

क्योंकि कठपुतलियां तो हिस्सा ही  है ,,

लड़ाई ,,और मरने मारने के 

तमाशे दिखाने  का ,,।


नौकरी ,,  वो है ,

जो , 

करी तो करी ,

,वरना ,

,ना  करी  ,,!!


सेवा ,, भी वो है,

 जो , 

 करी तो मन से करी , 

 वरना,

 ना करी !


खिदमत ,,,  वो है ,

जो , 

खादिम  द्वारा ,, 

 मालिक की,,

 हर हालत में  ,,

 करी ही करी ,

 

कभी भी ,  

किसी भी हालत में ,,

',ना ', 

 ना करी ,,!!


हुज़ूर को , 

 नौकर नहीं चाहिए , 

ना चाहिए ,,सेवक , 

चाहिए  बस 

' खादिम ',, 


  ढूंढ ही लेते हैं वे , 

 सात फाइलों में दबे , 

 अपने ,,,उसको ,,!


 

 जो खड़ा रहे  अलादीन के जिन्न  की  तरह  ,


 ज़रा  भी घिसी जाए , 

  जब भी , किसी फ़ाइल की तली  , 

 तो हाथ जोड़े ,

आ जाए भागता ,,कहता हुआ ,,!

, मेरे आका ,,  क्या है  हुकुम ,,??


****

किताबों के कीड़े ,

किताबों में रहते हैं ,,

किताबें कुतरते , 

किताबें खाते हैं ,,

और जब बहुत मोटे हो जाते हैं , 

 तब बाहर आते हैं ,,!!


बाहर निकलने पर , 

वे दीमक को समझाते हैं ,,!

की किताबें तो बस  वही  हैं ,,

जिसको उन्होंने पढ़ा ,,

बाकी तो ,,बकवास है , 

 ' मूर्खों का गढ़ा ',,!!


वर्जनाओं को तोड़ दो ,

 हवाओं का  रुख मोड़ दो ,,

तुम घुसो हर  जगह पर , 

हर पुराने घर , 

फोड़ दो , 


तुम  लिखो  कि,,

नदियों के धारे ,,

ऊपर से नीचे क्यों नहीं बहे ,,? 

तुम कहो कि,,

पर्वत घमंडी ,,

सर उठाये क्यों खड़े ,,??


तुम ये पूछो , 

 क्यों हवा में ,,परिंदों का राज है ,,? 

तुम ये  पूछो  , 

 शेर क्यों ,,

 बकरी को खाने को आज़ाद है ,,?? 

तुम बताओ ,,

 नई पीढ़ी को,,, कि ,,

वाद ही संवाद है ,,!

तुम  समझाओ ,

प्रगति का  मतलब  ही  बस , 

 प्रतिवाद है ,,!! 


बदल दो तुम देश , 

 हर परिवेश , 

तोड़ कर पुराने विश्वाश ,

मिटा दो किंबदंती , 

  कि,,लिख लो , 

खुद नया इतिहास ,,,!!

भुला दो पूर्वजों के नाम , 

पुराने खानपान ,,!

कि किंचित शेष ना रह पाए , 

 अपने आप की पहचान ,,!!


प्रगति के नाम पर , 

विदेशी हाथ,,,

 थाम कर ,,

तुम धरो एक लक्ष्य , 

की हो तुम्हारा ,,

चतुर्दिश ,,एकछत्र ,,राज ,,,

रटाते रहो सबको सदा , 

की बाकी सब हैं , 

 गरीब और मजदूर ,,

एक तुम ही हो , 

 सबके ,,," गरीब नवाज़ " ,,,!!

रियासत से ,,

 सियासत तक , 

प्रजा कहलाये ,हरदम ,एक चिड़िया ,,

और तुम   रहो  ,,

उनके शिकारी ,,,

 आसमां में उड़ते ,,,' बाज़ ' ,,!!


---  सभाजीत


******

कवियों  में कविता है ,

  कविता  में ' लाईने   ' है  , 

  कवि  मगर  खुद ,

   टूटे - फूटे चटके हुए आईने हैं ।

    


   बसों  में , ट्रेनो  में , 

     ठसाठस  लोग  हैं ,

       डाक्टरों  की क्लीनिक में 

           ,लाइन  भी एक् ' रोग '   है ,

  

  फोन पर  भी  '  रुकिये  ,

       आप क्यू में है '..आवाज है ..!

         मंदिरों  की लाईने   तो  , 

     ....    भगवान के घर  की  राह  है !

   

 लाईने  ही  मर्ज   है  , 

      लाईने ही  फर्ज  है ,

        लाइनो  को  तोड़ना भी ,

           किसी  के  लिये  आदर्श  हैं ..!!

       

               लाइनो  पर ट्रेन है ,  

              सभी  फ़ास्ट मेल है 

             बोगियां तो सुधर गईं  ,

               इंजन ही फेल हैं ।

              


        लाइने  तरंग   हैं .. 

           आयेंगी जायेंगी ,

             सिंधु तट को  भिगो  कर  ,

                नई  ईबारते  लिख जायेंगी !!

 

तरंगो को  गिन  कर। ,

   हम भला  क्या  पायेंगे ? 

  जब तलक  खुद सिंधु में   

   एक् नाव  लेकर ना  उतर  जायेंगे  ??


  ,,सभाजीत


********


चलो , 

 दस दिन और , 

 भटक लें ,,!


एग्जिट पोल के, 

 कयासों पर , 

लगा कर , 

" अटकलें ,,!! 


 किसी को , 

 बैठा दें  , 

 सिंहासन पर , 

किसी को , 

 मन ही मन , ,

 नीचे पटक लें ,,! 


चौराहों पर , 

बघारें 

अपनी पार्टी की तारीफ़ , 

दूसरे गर बघारें , 

तो चुपचाप , 

 वहां से , 

 सटक लें ,,!! 


बना कर , 

किसी को मसीहा , 

खुद पांच साल के लिए , 

अपनी ही बनायी क्रूस पर , 

 फिर से ,

  लटक लें ,! 


 वोटों को , 

 बाँट कर जातियों में , 

 इंसानो को , 

 छान , बीन कर , 

 लोकतंत्र के सूपे  से , 

 फटक लें ,! 


नागनाथ की जगह , 

 सांपनाथ के बदलाव को , 

मान कर ,  अपनी  नियति 

अगर , रेप , लूट , और घोटाले हों  भी , 

तो आगे ,

 आँखों में आये , 

 आंसुओं को , 

 हलक के नीचे , 

बिना सिसकी लिए , 

 खामोशी से , गटक  लें ,,!


---सभाजीत


**********


टोपियों के  बाजार  में ,

  जब गया वह ....

   तो उसे  भायी ...एक  ही  टोपी ,

    फौजी  की ...!!


   वैसे  वहां  ओर  भी  टोपी थी ..,

    ज़िसे  पहन  रहे  थे  लोग ,

    ओर  निहार रहे  थे  शीशे  में ,

    खुद  को  बार बार  आत्म मुग्ध  हो कर  .!


    नेता , खिलाडी  ,  इंजीनियर ,  ओर  

      व्यवसायी  के  रूपों  में ...!


       लौटा   जब घर  , 

      तो  सिहर  गयी  ...माँ ..,

       यही  टोपी  तो  पहन  कर  गये  थे  वो ..

       ओर  फिर  नही  लौटे ..!


        लौटी   थी  तो एक  बर्दी   , 

        जो  उसने  छिपा   कर  रख  ली थी 

        संदुकची   में ...

         अमानत   समझ कर ..!


         छब्बीस  जनवरी  को ,

         उसे  मिला  था एक तमगा .,

         एक सनद   ओर  कुछ रूपये ..!!

          जो दीवार पर आज  भी टंगे  है ..!!


        पेट में  था  शिब्बू  ,

        जब चले  गये थे वो ..,

  तो बेटे   को सिर्फ फोटो  में ही

       दिखा पायी  थी वह ,

        उसके पापा  को  ,..!!


      फोटो में ,टोपी  पर  रीझ कर ,

      मांगता   था  वह ..,

      . वही  टोपी ..बार  बार ...,

        हर  त्योहार  पर ,

        ओर  टालती  थी  वह ..,

        की उससे  भी कोई ओर रंगीन  टोपी ,

         ला  देगी अपने   बेटे  को ..!!


        लेकिन ...शिब्बू  तो , 

        ले आया  वही  टोपी ...

         पहन   कर  जाने  को था तैयार..,

       पिता  को खोजने ..,

        उसी  सरहद पर ,

        जहां पर   कोई भी  खो  सकता है  ..

        कभी भी ....!!


        भरे मन से ,

          बेटे की ज़िद पर ..,

           जाने  दिया  था  बस  कुछ साल पहले ,

            की हर दिन ...,

            फोन का इंतजार  करके ,

            चहक   उठती   थी  वह ...

             एक सवाल ..,

              खाना तो  ठीक से  खाते हो  ना ..??


            पडोस   के  गावं  में  ,

            लड़की  देख ली है ..,

             देव उठनी ग्यारस   के बाद ..,

             हाथ  भी पीले  करने  है    तुम्हारे ..!

              आओगे  ना  ??

             एक माह पहले ..??


              लौट रहा था अब वह घर ,

               उसके  बुलाने पर ..,

                 बारात ले  कर ...!


         गजरों से सजा गावं    

              बिगुल   बजाते   फौजी ,

                

               फूलों   की माला ...ओर ,

                तिरंगे   का बाना पहने ,

                बिलकुल अपने  पिता की तरह ,

                  शांत ...मुस्कराता हुआ ..!

                    फर्क  बस  इतना था , 

                  पहले एक वर्दी  भर  थी  ..,

                  अब वर्दी में  शिब्बू था ..!!


                  भरी   निगाहों  से .,

                  उसे  दिख  रही  थी  ..,दूर दूर तक ..,

                 टोपियां   ही  टोपियां  ..

                  नेताओं  की .., पुलिस की ,

                   पंचों की  सरपंचों  की ,

                   आम  की ..खास की  ,

                    दूर की ..पास की ...


                 युवाओं  के सैलाब  में .,

                  उसे  नही  दिखी  ..,

                   वह टोपी ...

                   ज़िसे पहनी थी शिब्बू  ने ...

                      प्यार से ...,

                   अपने  पिता  की  बहादुरी पर ,अपने ,

                   अधिकार से ..!!         


     .....सभाजीत .

***********


जल में...,

       एक  छोटी  मछली  को ,

        बडी  मछली  खा  गयी   ,

          हलचल  हूई ,भगदड  मची ,

           हिलोरें उठीं .,  और  कुछ नही हुआ ..!!

              लोगों ने  बल  को  नियति  मान ,

                 मत्स्य  को पूज  लिया ,

                    और  छोटी मछलियो  को  भोजन  मान ,

                       उन्हे अपने जालों में फंसा ,

                         खुद  खा  गये ...!!

                           

                           जल  के  किसी कोने में , 

                             किसी भी  तल  पर 

                               ना कोई संवेदना जागी   

                      ना  फूटी  कोई  विद्रोह  की आग .!!


              थल  में  ,

                एक शेर ने ..अचानक  झपट्टा  मार ,

                   शांति   से  घास  चरते  ,

                     मृगों   के झुंड  पर  किया वार  ,

                        मार कर उन्हे ,

                         बना लिया   अपना आहार ,

                           लोगों ने  बल  को नियति मान ,

                             शेर को पूज लिया ,  

                             

                         ओर मृगों   को  भोजन  मान ,

                          निकल पडे  करने   उनका शिकार !!


                   कही भी    इन निरीहों के प्रति ,

                  ना उठी  हूक , ना बही कहीं ,

                    द्रग  धार ...!!


                      नभ में भी  ,

                         बलवानो  ने किया राज ,

                          छोटे  परिन्दों  को , 

                            खा गये  चील  , बाज ,

                              लोगों ने बल को नियति मान ,

                                 गरुडों  को पूज लिया ,

                                  छोटी  चिडियों  को      


     खुद अपने भोजन के लिये फंसा  ले गये .,

        फंदेबाज ..!

           इन  नि:शक्तों  के लिये , नभ में ,

            ना हुआ  कोई  घमासान  ,

              ना उठी आवाजें ,

                ना  दिये किसी ने प्राण ...!!

                 

                    आश्चर्य कि ,

                     युगों   युगों से ...,

                        जल ,थल ओर नभ में           

                          निर्बल  ओर बल ..,

                            श्रष्टि  के बने रहे अनिवार्य  अंग ,

                               विपरीत  ध्रुवों पर टिके  , 

                                 एक दुसरे के परस्पर . 

                                    विरोधी हो कर भी   ,                                         

                                      चलते रहे संग संग ..!! 

                         

                न हुए  एक दुसरे के खिलाफ ,  

                  न ही  हुए कभी लाम  बद्ध ..,

                     एक दूसरे  को  मिटाने  .नही  लड़े  कोई     

                      युद्ध,,।

                        

                       फिर क्यू  मानव ,

                        दो दलों  में बंट गया  ??

                         एक दूसरे  को काट कर ,

                             क्यू  खुद   भी ,

                               कट्  गया ...??


             शायद  यहां    निर्बल  ओर बल  के बीच ,

                 एक ओर  वर्ग --  

                  ' दुर्बल  ' भी था ,

                      ज़िसके मन में   

                        ' बलशाली  बन ,

                            सत्ता बल हाथियाने का

                                छल था  ,


         निर्बल ओर  बल , 

           इस दुर्बल  के शिकार बने .,

           

                तलवारें,, दुर्बल के हाथ  रही ,

                 निर्बल,,  बस उसकी धार  बने ..!!


              ----सभाजीत

************


पूनम  का   चांद ,

      यूँ  तो  हर माह  , 

       मेरे  आंगन  में  आता  है ,


        अपनी धवल मुस्कान से ,

          मेरे  मन  को  लुभा  जाता  है .!!


            लेकिन 

          ओ " शरद पूर्णिमा " ,, के "ज्ञानी "   चन्द्र  ,

              तेरी गुरूतर  सीख , 

             मेरे  काम  ना  आयेगी ,


            शरद ऋतु की  चांदनी रातें , 

              मेरे  मन  को साल,,,साल  जायेगी ,

                  पिय   जो  बसे  परदेश  ,

                 तो तेरी  शीतलता   भी ,

                   मेरे  हृदय  को ,

                  विरह  की  आग  में     

                        झुलसायेगी....  !!

---' सभाजीत' 

***********

माता - पिता 

      ******


मर जाते हैं लोग ,

जन - परिजन ,

 सुह्रद ,

  माता - पिता ,

  धुंधला जाती है 

  छवि ,

   लेकिन

 ' अहसास ' नहीं मरते ।

  

   घुप्प अंधेरे में ,

   जहां ,,

   सूझता नहीं 

    हाथ को हाथ ,,,

    या निर्जन में ,

    दिशाहीन  घनघोर ,

    समस्याओं के  

   आच्छादित   जंगल में ,

     एक घट जल की तलाश में  ,

    तरसते ,

    सूखे कुएं की तरह ,

     आवाज देते , रह रह कर झांकते ,

     अपने ही मन में , 

     जब घबराता है दिल ,

     तभी लगता है ,

     की कोई है जरूर साथ

     क्योंकि ,

      कभी भी ,,

      सिर पर , 

    आशीष से सराबोर , 

     कंपकंपाते दो  

    अदृश्य हाथों के ,       

  '   विजयी भव,,,'

      वचनों के , 

     विश्वाश नहीं मरते है ।।


   -- सभाजीत

**************

जब  भी  दर्पण   में  देखती ,

     तो  ईठला कर ,  मुस्कराते हुए ,

         वह पूछती   रही    ..,

          पहचानते हो  मुझे  ,..??

          ओर  हर  बार  ,

            मुंह  बिचका कर ,

              चिढाती रही ,   मैं  उसको  ,

                चलो हटो ,

                  मुझे   ओर  भी  कई   काम  हैं ,

                 तुम्हें   निहारने  के  अलावा ..!!

                    इस  दुनिया  में ....,!!


            ना जाने  कब   ओर  कैसे  ,

             बस  गयीं थी एक  नयी  दुनिया ,

              उसी   कमरे में  ,

           जहां रखा  था  ..आदमकद आयना  ,

                मेरा बालसखा   ,  

                मेरी उम्र  का  राजदार ,

                जो  मायके  से  मुझे पछयाये ,

                  चला  आया था ,

                  डोली   चढ  कर  

                   मेरे  साथ ..!!


                  बच्चों  की  निकर , 

                   बिटिया   का  दूपट्टा ,

                    इनकी   शर्ट ,

                    ओर कभी  कभी ,

                     मेरी साडी ,  

                  जब  टंग जाती  उस  पर ,

        तो  ना  वह  मुझे  कभी  देख पाता ,

               ओर  ना  मैं  उसे  ..!!


                   धीरे  धीरे  बीतता गया समय  ,

                    ओर  पड़ता  गया धुंधला वह ,

                    इतना  धूमिल  ,

                      कि  उसे देखने  की  

                      आदत   ही  नही रही ,


              लेकिन ...

               कई  सालों बाद ,

         आज हम  आमने  सामने थे  कमरे , में ,

           निपट  अकले  ..,

           कोई  नही  था  वहां  ,


                बच्चों  की  निकर  ,

                 अटेची   में  बाँध ,

                   ले  गयीं थी  बहूएं  अपने साथ ,

                     बेटी हो  गयीं थी  विदा ,

                    ओर  इनकी शर्ट  ,

                     दे   दी थी मैने  दान ,

                       क्यूँकी उसे  पहनने के  लिये  , 

              वे  थे  ही  नही  उस  दुनिया  में ,

                वही  दुनिया  ,

                अब  नही  थी  वहां ,

           जो  शुरु  हुईं  थी  इसी  कमरे  से ,


         आयने में  उभरी  

        उसी  आक्रति ने  जब पूछा  मुझे ,

        " पहचानती   हो  मुझे  ,"  ??

            तो  मैने  भी  खिलखिला कर  कहा ,

             बखूबी ...,

               तुम्हें भूली  ही  कब  थी  ..??

                तुम्ही   तो  हो  , 

                 जो  मुझमें रही हमेशा  समाई ,

                  ए मेरी  छाया ,

                अभी  शेष है   उम्र  ,

                 तो  रहेंगे साथ  साथ  ,

                   करेंगे दिन  रात  ,

                   ढ़ेर  सारी  बात  ,

                   ना बचे  है वे  वस्त्र , 

                   जो  तुम्हें  ढ़क पायें ,

   --' सभाजीत ' 

***************

दिन रात ..

तपिश झेलता ,

धरती के चारों और ...,

 घूम घूम कर ...,

सूरज से  ...,

आँख मिचोनी खेलता ,

 चन्दा क्या जाने की  .. ,

वह सलोना है ...,

 किसी  नन्हे  से बच्चे  को

बहलाने का   ,

 एक खिलोना है !!

--'सभाजीत' 

**************

कमर भर पानी में ,

खडे  होकर ,

अपलक  ताकते हुए  .. आसमान  में .,

एक अंजुली  पानी .

.फेंका था ..,

तुम्हारी  तरफ ...,

जो वापिस आ  गिरा 

मेरे ही मुह पर ... ,

शायद  तुम प्यासे नही थे ,

प्यासा था ...मै  ही ..!


हाँ ...प्यासा था मैँ ...,

साल के पन्द्रह दिनो में .,

तुम्हे याद करने के लिये ..,

इन  पन्द्रह  दिनो में ही तो ..,

एक दिन तुम्हारा  था ..,

जन्म का नही .,

तुम्हारी  मृत्यु  का ...,

उस विदा  का .दिन ,

जब तुम चले गए  थे ,

सदा  के लिये ...!!


य़ाद  आने को तो ,

कई बातें थीं ...,

तुम्हारी ऑर  मां  की ..,

वो मां का कंघी  काढ देना ..,

मोजे  पहनाना ..,

और  तुम्हारा ..

सायकिल में लगी छोटी सीट पर मुझे बैठा कर ,

बाजार ले जाना ..,!

अपना   पेट  काट  कर ,

मुझे पढाना ..,

ऑर मेरे अफसर  बनने  पर ,

गर्व  से मुझे निहारना ..!!


लेकिन पन्द्रह दिन तो ,

यूँ ही  गुज़र गये ...,

इधर  उधर  पानी देते  ,

कोवों को बुलाते ..,

पंडित  को खिलाते ..,

ना तुम याद आये  ना  तुम्हारी य़ादें ..!


एक दिन ,तुम्हारे ..,टूटे  बक्से  में .

दिख गये ...तुम  ऑर मां   ,...एकसाथ ..!

जब एक पैन ..ओर  पुराना  टिफिंन ..

एक कोने में धन्से  हुए , टकरा  गये मेरी ऊँगलियो से ..,

ना जाने क्यू ..

सहसा ..बिलख  गयीं  ..मेरी आँखे ..,

 फफ़क  कर रो पडा मैं ..,

वह पानी  ,

धार बन कर बह गया ,  आँखो से ..,

  अविरल   रुका ही  नही ,

ज़िसे मैने फेंका था ...अंजुली भर ..,

नदी में धन्स  कर .., 

मेरे होठों  को कर गया ..तर ., 

आकंठ  की 

लगा अब कोई प्यासा नही ..रहा ..,

ना तुम  ..,

 ना मैं .. !!

- ' 'सभाजीत ' 

*************

दूर  से  ,

        पुराना  लिबास   पहने   आदमी ,

         बदला   हुआ  नही  दिखता ..!


           होता  है  आभास ,

             जैसे ..वही  है  ताजापन ,

               वही हिम्मत ,

                 वही  कुछ  कर  गुजरने की ताकत ,

                    वही   नूर ..!


                रोज  धो कर  पहनते हुए  ,

                   लिबास के  रेशे   रेशे ,

                      तार   तार    ,

                      धूप  बरसात से  उडे   हुए  रंग ,

                         कब  हुए  जार  जार   

                         ये  रोज  देखती  आँख  की 

                           हैसियत   से  बाहर  था  !!


                 दूर  से उसी  लिबास को  देख ,

                     सोचते   रहे  लोग ..

                       देखो  नही  बदला  ये  शख्श ,

                        

                     कोई  नही  जानता ,

                        कि  बदलने  को ,

                           दूसरा  लिबास , 

                              उसके पास  था  ही नहीं   .!!


                              और,,,

                                 लिबास बदलने का अर्थ ,,,

                                        बदलना नहीं होता ,,!!

   --' सभाजीत ' 

************

कई दिनों पहले से ,

खो गयी है किताब ।


वो किताब ,

जिस में झांक कर ,

ढूंढ लेता था ,

अपने सवालों के हल ,

कुछ खास पेजों पर ,,


वो किताब ,

जिसके  कई पेज के कोने 

मोड़ कर रखे थे ,,

की जब भी हो मुश्किलें 

आसानी से खोल सकूं ,,

टटोल कर उन्हें ,,।


वो किताब ,

जिसे पढ़ने में 

 कई बार रुक गया था ,

और  बोझिल आंखों  को बंद कर ,

खो गया था सपनो में ,,

और 

जूझता रहा था कि ,

कल्पना और सत्य  क्या कभी ,

एक हो सकते हैं ।??


वो किताब ,,

वर्षों पहले से ,,

जिसमें रखा था ,

एक ,,

मटमैला सा नोट ,,

इनाम में  में मिला ,

किसी  बड़े के आशीष के 

 स्मृति चिन्ह की तरह ,,।


वो किताब ,

जिसमे दबे थे ,

कुछ नम्बर ,,

कुछ खत ,

कुछ निशान ,

मोरपंखी धागों की तरह ,,


जिनके धुंधले  चेहरे ,,

अब याद करने पर भी 

याद नहीं आते ।

बिना किताब देखे ,,

लेकिन जिन्हें 

भूल नहीं पाते,

,,जो मिटते भी नहीं ,,

बार बार मेटे ,,!!


 ।


--'सभाजीत '

**************

गाय मत पालिये ,

पालिये एक ' कुत्ता ',,!

क्योंकि ,,

गाय तो माँ है ,,,

और 

कुत्ता है ,,

,,नॉकर ।


गाय के लिए जरूरी है चारा ,

चारे के लिए जरूरी है चरोखर ,,

चरोखर के लिए  चाहिए मैदान ,,।

मैदान के लिए चाहिए ज़मीन ,,!

और ज़मीन बहुत कीमती है भाई ,,।


मैदान अब प्लाट हैं ,, 

प्लाट पर उगते हैं फ्लैट ,,

फ्लैट होते हैं  कांक्रीट ,

और,,

कांक्रीट खाया नहीं जा सकता 

क्योंकि ,,

कांक्रीट ,,खुद खा जाता है ,,

आदमी को ,,

आदमी ,,वही ,

जो पालता था कभी गाय ,

,,एक माँ को ,,,।


तो बिना चारा,,, 

,,आज ,,

कैसे पल सकती है  कोई गाय ,,?

पल सकता है , तो ,,बस ,कुत्ता ,,।

क्योंकि  खाता है  वहः झूठन ,,

लज़ीज़ मांस ,

अंडा ,,

जो नहीं उगता मैदानों में ,,

मिल जाता है आसानी से ,

बूचड़ खानों में ।


कुत्ता ,,

लड़ता है मालिक के लिए ,

भौकता है रात दिन ,

हिलाता है। दुम  ,,

चाटता है मालिक को ,

वफादारी निभाता है ,,

मालिक के फेंके हुए ,

एक एक कौर के लिए ।

दे देता है जान ,,।


एक दिन ,

जब हर इंसान के पास होगा ,

एक कुत्ता ,,

तो कुत्ते ही ,

दे देंगे जान , 

आपस में लड़ मर कर ,,

अपने मालिक की खातिर ,

और ,,

 बचा रहेगा ,,इंसान ,,

कुत्तों के खातिर ,,।।


--'सभाजीत '

****************

लिखा जो मेने कुछ ,

 तो क्यों लिखा  ??,

 यह सोच कर में हैरान हूँ , 

 अपनी बचपन की दोस्त , 

 इस कलम से , 

 में परेशान हूँ। ।!!

 --' सभाजीत ' 

**************

अभिमन्यु की मृत्यु पर , 

छाती पीट कर नहीं रोये पांडव , 

क्योंकि वे जानते थे , 

अभिमन्यु का जन्म हुआ ही था , 

 ' वीर गति ' के लिए ,,!!


  चक्रव्यूह  भेदने  का  ज्ञान , 

 सबको नहीं होता , 

 और जिन्हे होता है , वे होते हैं भय रहित ,

 जन्म मृत्यु से परे , 

व्यूह के अंतिम द्वार तक पहुँच कर , 

वे लड़ते हैं अकेले ही , 

अंतिम लक्ष्य ,,,' जय - विजय ' के लिए ! 


 जब लक्ष्य हो जय विजय , 

 और दृष्टि हो ,,' हस्तिनापुर ' , 

तो फिर सभी योद्धा ही हैं , 

वे भी जो मार देते हैं , 

   और वे भी  जो  मर जाते हैं ,,!

  फिर रुदन किस बात का ,?? 

 क्या यह भय है  उन जीवितों को , 

   की एक दिन वो भी मर सकते हैं , 

" लड़ते  "  हुए ,,? 


   समर का अगर हिस्सा हुए , 

   तो मृत्यु तो है अंतिम परिणीति , 

  फिर चाहे हो  ' अश्वतथामा हथ भयो ' के झूठे शब्द , 

   या  किसी शिखंडी की आड़ ,  जिसके पीछे से चलें , 

    तीक्ष्ण बाण ,,!

    धराशायी करदें , किसी ' द्रोण ' या ' भीष्म ' को , 

   लेलें  कवच कुण्डल दान में , 

     और ,,

   रथ का पहिया उठाते कर्ण का , 

   करदें वध , 

   कह कर यही ,,,की यही है ' न्याय " ,,!

   

   दुश्शाशन की ,  जांघ पर,

   हो  वर्जित गदा का  प्रहार , 

   या फिर बदले की आग में , 

   जला दे कोई ' उत्तरा '  की कोख " ,,!


    समर  है  , 

  यदि जय विजय  का  , 

   तो सभी हैं   युद्ध ' अपराधी ' !

   वे भी , जो छिप कर चलाते हैं बाण , 

   और वो भी जो लाक्षागृह की आड़ में , 

   रचते हैं ,," षड्यंत्र " ,,!


    जय विजय सेआगे   , 

     यदि शेष बचती है तो केवल ' आस्था ' 

    जो दिखती है ,,किसी को कृष्ण के रूप में , 

    युग पुरुष सी , 

    या किसी को , 

    बस  छलिया ,!

   किसी को दिखती है पाषाण में  ,

    ईश्वर की छवि , 

    तो   किसी को केवल,

      एक  खुरदुरा पत्थर ,,!!


 सत्य सिर्फ भौतिक ही नहीं , 

    आत्मिक भी होता है , 

 यह जान लेने के बाद , 

   शायद शेष ही ना रहे , 

   जय - विजय का समर ,,!! 

   मरने - मारने की आकांक्षा !!

   ना छाती पीट कर रोने की परम्परा , 

  ना रुदालियों का जमघट , 


  रह जाएँ शेष तो बस , 

 कबीर के ढाई अक्षर प्रेम के , 

  मीठे व्यंग के चुटीले बाण , 

   जिसे मुस्करा कर झेल लें सब , 

  और बाँध लें ' सार - सार ' अपनी गांठों में ,,!!


    कह कर की हे मनीष ,,! 

,,,' साहब सलाम ' 

   हे काली मसि  में  मुंह   डुबोती  ,,,

     अमृत कलम , 

     तुझे  ,," प्रणाम " ,,!! 


      ,,,सभाजीत

**************

,,,, बाढ़ में ,,,,

           

             डूब  गया

             ,मेरा , ,,,' बस्ता ,,,!

           

           बह  गयी मेरी ,,,

          ' पाठशाला ,,,

         

           ढह    गया  वह   घर ,,,

           जिसमें रहते थे ,,,

           मेरे  बूढ़े  टीचर जी ,,,!!


           , 

           घर में रंभाती ,,,

             ,,, ' भेंस ' 

           ना    जाने  कैसे  ,,  बच गयी 

          जो नहीं थी बिलकुल ' पढ़ी लिखी ' ,,१


           नहीं जानती  थी ,,

           जो ,  ' बीन ' का संगीत , 

           ,,नेता का भाषण , 

             स्वागत गीत ,,,!!


            जानती थी 

            बस मुझको , 

            बचपन से ,,,

           चाटती थी मेरा हाथ , 

          

            , मालुम थी उसे ,

          ' प्यार '   की भाषा , 

            ' स्नेह ' का अर्थ ,,,!!


            जानवर होकर भी ,

            समझती  थी   

            मनुष्य के प्रति अपना फ़र्ज़ ,,,!!


           मेरी आवाज़ , उसके साथ ,

        , अब ,,

          रोते रोते मंद है , 

          क्यूंकि ,,, 

         चैनलों पर होरहे प्रोग्रामों में , 

         दिल्ली की कुर्सी के आगे , 

           सबकी आँख 'परदे' पर है ,   

          और  ' कान ' बंद हैं ,,,!!

    --' सभाजीत ' 

*************

कौन जानता है ,

'गरल' और 'अमृत'  का स्वाद ..?

शायद गरल 'मीठा' हो ..,

 और अमृत 'कड़वा' ..!!

गरल एक सत्य है ..,

 मृत्यु जैसा ..!

जो है अनिवार्य..!!

और.. अमृत है बस.. 'चाह'..!,

 कुछ पलों,दिनों, और वर्षों की ..!!

चाह है असीमित..,

उम्र  सीमित..!

चुनना है मुझे उन दोनों में से कुछ एक..,

  तो मैं चुनूंगा- "मिठास" !!

'कडवाहट' के साथ  जी कर भी क्या करूँगा मैं ..??

*************

यह  बबूल का पेड़ जो माँ ,

     होता जे एन यू तीरे ,

     में भी उस पर बैठ ,,कन्हैया ,

        बनता धीरे धीरे ,,।


       ले देती गर माइक मुझको ,

           एक लाउडस्पीकर वाली ,

             किसी तरह अध्यक्ष की कुर्सी ,

                मिल जाती गर खाली ,,।


               कूद क्षात्रों के कंधों पर ,

                  उचक के जो चढ़ पाता 

                    देश विरोधी नारे  मैं भी ,

                         गला फाड़  चिल्लाता ,,।।

                

                      हर विपक्ष का दल ,आगे बढ़ ,

                       हर दिन मुझ को फुसलाता ,

                           और चुनाव का टिकट मुझे ,

                         देने को रोज बुलाता ,,।


                      पर बबूल  का पेड़ नहीं तब ,

                       कहीं मुझे  फिर दिखता ,

                        बस  नोटों के बीच हमारा ,

                         सारा   जीवन  पलता,,।


        😆😆😎

     ( एक पुरानी कविता की पैरोडी )

**************


         हर द्रश्य आज तमाशा है ।

और तमाशाई है लोग ,,।।

आंख से नहीं देखते ,

देखते हैं मोबाइल से ,

जिसमें नहीं होता ,,

,,, दिल ,!!


  चमकता है  वहां ,

 बस ,," रिचार्ज "का बिल ,,!!


दिल जो भर आता था ,

कभी कभी छलक जाता था ,,

दिल जो गाता था ,

उसमें  कोई समाता था ,

दिल जो टूट जाता था ,

कोई अनजान भी ,

उसे लूट जाता था ,

दिल जो जिद पर आता था , 

रातों में रुलाता था ।

दिल जिस पर होता था गुमाँ,

दिल जो कभी होते थे जवां,।


अब कहाँ गए चे वो  दिल ? 

जो मर गए उदास हो ,

घुट कर तिल तिल ।

अब तो सीने में " कलेजे " हैं ,

बड़े से जिगर है ,

और मष्तिस्क में 

 " भेजे  " हैं ,

शीशों के घरोंदों में रहने वालों ने 

 नाज़ुक से दिल ,

 किसने कब  सहेजे हैं ??


दिल तो  आज रोटी रोजी है ,

मोबाइल में कैद ,,

एक "इमोजी " है ।


हो सके तो ,

दिल को ढूंढ लाएं ,

चलो ,,कब्रगाहों , श्मशानों में 

घूम आएं ,,

जहां बेजान शरीरों में , आत्माओं में  भी ,

दिल  अभी  कहीं  ज़िंदा हो ,

 उनके दिल से मिल कर ,

 हम ,

 आज 

 ,खुद ,अपने से थोड़ा 

,,,शर्मिंदा हों ।


-'सभाजीत

************

अवतार...!!


जाने कितने भजन हमने ,

मंदिरों में दिन रात गाये,


'राम ' फिर वापिस न आये ॥!!


कितने पुतले ,

हर गली हर जगह ,

गाँधी के लगाए,


सौ बरस के बाद , गाँधी को न पाए ॥!!


दीन दिख कर ,

खुद को हमने कहा निर्बल ,

भक्त बनकर ,

असहायों की , पंक्तियों में , हुए शामिल ,

बचाने अब हमें शायद,

फिर से वो अवतार आयें ॥!!


हर तरफ देखा सभी दिन,

धर्म धारण , कर रहें है ,

प्रकति के प्रत्येक अंग,

कर्म को ही धर्म कहते ,

बृक्ष , पानी, सूर्य चन्द्र ,

प्रकृति के इस धर्म की फिर ,

क्योँ इबारत पढ़ न पाए,


अग्नि ,जल , मिटटी , और वायु,

से बने है जीव सब,

हम प्रकृति के अंश है ,

हम में ही बसता है वो " रब" ,

'को अहम् 'से 'सो अहम्' का ,

मंत्र क्यों ना , जान पाए॥,


ग्लानिहोगी धर्म की जब ,

'असत' का होगा विकास,

उदित होऊंगा " में " तब ,

करने सभी दुष्टों का नाश,,

कृष्ण के इस " में " को हम ,

क्यों नहीं पहचान पाए॥?


" में " नहीं कोई 'अहम् ' ,

न कोई 'अभिमान ' है॥,

में तो केवल आत्मा का ,

'सत्य धारी ' नाम है ,,

उसने कितने बार पकड़ा॥,

हम रहे दामन छुडाये ॥!!


मुझ में ही है सभी वे सब ,

राम , गांधी , और कृष्ण ,

खुद से ही हम , खुदा है ॥,

और खुद में ब्रम्हा और विष्णु,

हमारे अंतस का ' में "

जिस भी दिन जग जायेगा ,

यह ज़माना , उसी दिन ,

अवतार सन्मुख , पायेगा ॥!!



-- सभाजीत शर्मा

*************

उसके शालीन  चेहरे पर बात हुई ,

वो किससे क्यों दूर , और किसके कितने  पास हुई ,

वो कब बहू बनीं , और कब सास हुई,

वो कब तलक आम रही , और कब खास हुई ,

वो किस पर मेहरबान , और किसके गले की फांस हुई ,


लेकिन ,,,

किसी ने न जाना ,,,

वो क्यों , कब , किसके लिए ,,अकेले में ,,

उदास हुई ,,।।


 - सभाजीत 


#ज़माना

***************

लकड़हारे को मिला ,

न्याय,,,

ईश्वर का ,,

अगले जन्म में बनाया

उसे एक पेड़,,,

और मरे हुए पेड़ को बनाया

एक ' लकड़हारा ' ।

जन्म से , ,,,बूढा होकर , 

सूख कर निर्बल हुआ पेड़ ,

डर से कांपते हुए , 

करता रहा इंतज़ार ,,,

कि ,,

न जाने कब आजाये ,,

लकड़हारे के वेष में ,

पिछले जन्म का पेड़ ,,

और काट दे उसे ,,समूल ,,जड़ से ,,

जैसा ,,उसने किया था ।


  बहती हवा से , 

उड़ते बादल से , 

कोटर में बैठे ,पंछियों से , 

लेता रहा टोह ,,हरदिन,,

मगर ,,

नहीं आया वह पिछले जन्म का पेड़,,

कुल्हाड़ी लेकर ,,।


एक दिन गुजरते हुए एक पथिक से ,

पूछा उसने ,, कि ,,

  कहां गया वह लकड़हारा - पेड़ ? 

तो पथिक ने बताया ,,

कि वह तो बन गया ,,

एक  कुशल ,"माली ",,!

ऊसर मिट्टी को अपने हाथों  सींच कर , 

हज़ारों हज़ार पौधे रोपे उसने ,,

जो अब बन गए हैं आज गहन जंगल ।

पानी भरे बादल , थम गये वहीं , 

रम गए नन्हे पंछी वहीं ,,उन्ही  डालों में ,,

हवा तो वहीं बतियाती रहती है हरदम ,,।


इसलिए किसी ने आकर ,

नहीं बताया तुम्हे। ,

उस भगवान के बारे में , 

जिसका न्याय यही था ,,

कि

तुम  महसूस करो आजन्म ,,

,,मौत की सिहरन ,

और वह भोगे ,,,

जीवन  का आनन्द ,,।।

क्योंकि 

नही जन्मे थे तुम दुबारा किसी बदले के लिए ,

बल्कि जन्मे थे ,, 

महसूस करने को  ,,

अपने कर्म ,,।


--सभाजीत

***************

रंगीनियाँ  नहीं ,  कोठे  नहीं ,

      अच्छा हुआ जो  गालिब ..तुम  मर  गये ,

        शायर सब  प्रागतिशील हो  गये ,    

          लेकर  अवार्ड  अपने  अपने  घर  गये ..!!


      😨😨😁

***************

WE INDIAN 


भक्त तो हैं ,

मगर आसक्त नही .,

क्रांति का मतलब ,

हमारे लिये .." लाल लाल रक्त " नही ..!

किसी ओर जगह बोये गये ,

ओर किसी ओर देश में जा निकलें ,

हम ऐसे विस्तारवादी ..." दरख्त " नही !!

ज्ञान हमारे लिये चिन्तन मनन है ,

राज करने के ताज ओ तख्त नही ..!!

हथोडा सिर में मार कर ,

हँसिये से काट ले सिर ,

हम इतने चालाक , कम्बखत नही ,

हमने अपने लुटेरों को भी ,

मेहमान मान इज्जत बख्शी ,

हम नर्म मीठे खर्बूजे ही रहे ,

चाकुओं की तरह चमकदार ,

कातिल ओर सख्त नही ..!!

---' सभाजीत ' 

*************

" योगेश्वर कृष्ण " 


'....मैं नहीं कोई अंग..

मैं तो आत्मा हूँ ,

जलने , कटने , मरने से मैं क्योँ डरुंगा ?

मैं नहीं कोई रंग ..,

मैं तो आसमां हूँ ..,

एक कोना भरने से क्या पूरा भरूँगा ?

मैं नहीं कोई राह ...,

मैं तो एक दिशा हूँ ..,

क्या किसी एक लक्ष्य पर जा कर रूकूंगा ?

मेरी सीमाओं को

ना परिभाषित करो..,

मैं तो हूँ अनंत , युग युग तक जियूँगा..!!........,


... सभाजीत

*************

सदियों पहले ,

आदम स्वर्ग से धकेला गया 

और लुढ़क कर ,

पृथ्वी पर आया ,,

पीछे पीछे हव्वा भी आई ,,

और ,,,

उसके भी पीछे ,

वह अधखाया फल ,

लुढ़कते हुए पृथ्वी पर आया 

और ज़मीन पर बिखर गया ।

पानी बरसा , 

गरमी मिली ,

और फल फिर धरती पर उग गया ।

एक बृक्ष बन कर ,,।

और धीरे धीरे ,

फैल गया चारों ओर ,

जंगल बन कर ,,।

आदम और हव्वा ,,

भूल गए कि कोई फल था , 

चाहत के विषफल का स्वाद ,

मुंह में लिए ,

उन्होंने भी बसा ली ,

बस्तियां ,,जंगलों के बीच ।

अब मनुष्य था ,

और हवस का जंगल ,

फैलते गए फैलते गए ,,

इतना कि ,

सागर और आसमान भी ,

छोटे पड़ गए  उनके लिए ।

कभी कभी ,

याद आता था उन्हें खुदा ,,

जो डराता था उन्हें ,,

की फल मत खाना ,,

लेकिन बस डर ही तो था ,

खुदा नहीं था ज़मीन पर ,

वो तो आसमान में था , 

जो दिखता ही नहीं था,,

तो  डरना भी क्या ?? 


आदम , हव्वा , और फल ,

हो गए चाहत और हवस का पर्याय ।

पुरुष आदम 

और स्त्री हव्वा , 

धर्म और कर्म हो गए ।

इतना ही शेष बचा ,,

फलों के  विषाक्त ढेर,,

दिन भर उनके चारों ओर सजे 

ललचाते रहे ,,

और बताते रहे ,,

स्वर्ग का मतलब ,

तो हम  तीन ही हैं न ? 

खुदा तो ,

हमारे मरने के बाद ही ,

आएगा हमारे सामने ,,

तब क्या करेगा ? ,,

हिसाब , फैसला ,? 

और तब कहां लुढ़कायेगा हमें ?

किसी दूसरी धरती पर ?? 

जहां फिर होंगे हम तीनों फिर से साथ साथ ,

क्योंकि हम तो अमर हैं ,,

रूह हैं ,,

खुदा के स्वर्ग की ,

और बिना स्वर्ग के ,

खुदा की क्या पहचान ?? 


😊😁

**************

वह कौन औरत है ,,? 

जो दिन में पालती है एक लड़की को , 

 बेटी की तरह , 

और रात को , 

 बेच देती है , 

चन्द सिक्कों के लिए ,,?? 


वह कौन सी गाड़ियां हैं , 

काली , लाल , नीली ,  पीली , 

 जो , 

 ढोती है मासूमों को , 

असबाब की तरह , 

 इस्तेमाल होने के लिए , 


वह कौन से रंगीन होटल हैं , 

जहाँ बुक होता है कमरा , 

व्यभिचार के लिए , 

 पूरी जानकारी के साथ ,,,

जहाँ से कोई सिसकी ,

  नहीं निकल सकती बाहर , 

 साउंड प्रूफ  खिड़कियाँ तोड़ कर , 


वह कौन सा यात्री है , 

जो ठहरता है,, कमरों में 

 पूरी निर्भीकता के साथ , 

की उसके  ऐशो आराम   के पूरे इंतज़ाम , 

 पहले से ही निश्चित हैं , 

 बिना किसी खतरे के , 


वह कौन सी पुलिस है , 

जो रखती है सतर्क आँखें ,

 होटल में लगे , 

, सी सी टीवी के कैमरे पर , 

  मगर देख नहीं पाती ,

  अंधेरे दृश्य ,,।

 जो भांप लेती है , किसी एक ही हलचल से , 

  किसी की भी नियत , 

  किसी भी  सूरत  में ,  देख लेती है ,  , 

 रोते हुए  चेहरे ,

 की कुछ तो घटा है गलत ,  

 रोशनी से नहाये होटल की , स्याह दीवारों के पीछे , 

मगर तलाश  नहीं पाती ,

धुँधलाया सच ।।


जिस दिन ,

कोई पुण्य प्रसून बाजपेयी , रवीश , सुधीर , रजत  

सियासत को बदलने की , बातों में ना उलझ कर , 

 सचमुच ढूंढने में लग जाएगा , 

इन सवालों के जबाब , 

 अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ , 

निर्भीकता से , 

उसी दिन , 

 शुरू हो जाएगी वह जंग , 

 जो बदल देगी , ना सिर्फ तस्वीर समाज की , 

 बल्कि ' तकदीर ' भी , 

 उन मासूम बेटियों की , 

 जिनकी जुबान सदियों से बंद हैं , 

 लेकिन आँखें बता रही हैं , कई दास्ताँ , 

 आंसुओं से भरी ,

 बेबस ज़िंदगी की ,,!!


 या फिर अगर , दूर दूर तक , नहीं हुआ कोई भी ,

 फिर भी , 

 लिजलिजी  मोमबत्तियां  नालियों में बहा , 

 अगर लोग निकल आएंगे , घरों से बाहर , 

 ढूंढने,

 इन सवालों के जबाब , 

 बल्कि ढूंढने  खुद , 

  उन लोगों को , 

जो छुपे हैं ,  सफ़ेद पॉश , , धवल वस्त्रों की चमक में , 

सुरक्षा घेरों में , 

 तो छिड़ जाएगी  वो जंग , 

 जिसका फैसला , 

 आरपार ही होगा , 

 सदा के लिए ,,!


,,,सभाजीत 

,**************

वचन  ही  तो  था .,

       

        एक  पिता का ...,

        जो  दिया  था  उसने ,,

         एक  बेटी  को  ,

         ,,,,' ऐ ,मेरे आंगन के कोमल  फूल ! '

        ,, पालूँगा मैं तुम्हें,

         एक  माली  की  तरह ...,! '

         

         रखूँगा  अपने घर  के  आंगन  में  , 

         सुरक्षित ...,

           बचाकर  आंधी , तपन से,,

          तना  रहूँगा  ,,

          एक  छाते  की  तरह ,

           तुम्हारे  सर पर , 

           अपनी  पूरी सामर्थ्य  के  साथ ,.

            तब तक , 

            जबतक ..

            .झुलस कर  धूप में ,

             खुद   मेरी  त्वचा ,,

              ज़र्जर   ना  हो  जाये ..!


         वचन  ही  तो  था ,

        

        जो  दिया  था ,,

         सहोदर  ने ,

         कि  रखूंगा ,,,

          एक  सेतु  की  तरह ,

          जोड कर  तुम्हें ,

          तुम्हारी अपनी   पुरानी  ड्यौढ़ी से ,

          हर साल  ,  

          जब  पडेंगे   इस गावं में  झूले ,

           तो  लाऊंगा  लौटा कर  वापिस ,

           कि  खो  ना  जाये  

           तुम्हारी  शरारत ,

           खिलखिलाहट  ,,

          ओर बचपन ,

            जो  रखा है  सहेजकर ,

            मैने अपने बस्ते में अभी तक , 

            चाकलेट  की तरह ,...!!


          वचन  ही तो  था  , 

           

          जो दिया  था ..पति ने  ,

        ,,  रखूँगा तुम्हें  ह्रदय में ,

           एक  सुन्दर  मूर्ति  की  तरह ,

           कि  आलोकित रहे  मेरा  जीवन ,

             तुम्हारी मृदु   मुस्कान   से ,

            आंगन  की  तुलसी , 

             मन्दिर का दीप ,

             तुम्हें  सोंप कर  मेरी माँ  ,

             निश्चिंत  होजाये ...,

              जीवित रहेंगी  परम्परायें  ..,

                उसके जाने  के बाद भी  ..!

               

               घर  की  रुन झुन ..,

                बजे तुम्हारे आँचल  के  तले ,

                एक नन्ही  बेटी  का रूप  धर ,

                ओर मैं  दूँ  फिर एक वचन .

                .पिता बन ,

                 तुम्हारे पिता  की  तरह ..!


             ये  वचन  ही तो  थे

             वे  रक्षा  सूत्र ,

             जो निभाने   के  लिये  ही  हुए  थे  स्रजित ,

              एक  नारी की रक्षार्थ !

               एक पुरूष की  बलिष्ठ,,

                कलाई पर ,

               बंधे कुछ धागों के  रूप में ,

                अग्नि वेदी के  सामने ,

                 गन्ठजोडें के रूप में ,

                 जो आज  भी  शाश्वत है ,


               बस  छूट   गया  है... , 

               वह " पौरुष .."..

               जो परम्परा थी,,,

               पुरूष की गूंजती ध्वनि में ,

               आदि ग्रंथों  के ,,

               अमिट  लेख की तरह ,

                कि,,,,

        ..    "  प्राण   जायें पर वचन  ना  ज़ाई ..!"


              _____ सभाजीत 

************

कोई ,,

ऐसा क्यूँ  लगा ,?

जिससे कभी  नहीं मिले 

न कभी बात की ,

सिर्फ ,

नाम से ही परिचित रहे ,

जानते रहे ,उसे ,,ऐसे ,,

,जैसे ,,

 जानते हों  सदियों से 

 ,


कोई ,

 ऐसा क्यूँ लगा ? 

  कि जिसे टेर लें ,

  कभी भी 

  कोलाहल में ,

   , घबराकर , 

     असहाय से ,

    और दूर से ही जबाब मिले,,

     की परेशाँ क्यों हो ,,

      में हूँ न ,,,!!


कोई ,,

ऐसा क्यों लगा ? 

जिसका चेहरा ,

लगा ,,कि

अभी अभी  तो देखा है ,

घर में ,

बाहर में ,

भीड़ में ,,

अपने चारों ओर ,,

कि जिसकी सहज मुस्कान 

विश्वाश है ,

घने तिमिर में ,

कौंधती किसी ,विद्युत रेखा सी,

सावधान करती,

कदम उठने से पहले 

 सम्हलने की ।


कोई ,

ऐसा क्यों लगा ,

कि

चले जाने के बाद भी ,

होता रहा आभास ,

कि वह अभी बैठा है

 वहीं ,

जहां नज़र आता रहा ,

हर वक्त ,

हर घड़ी ,

की बात अभी पूरी ही कहाँ हुई थी,

उससे,

अभी तो सिर्फ मेरी ही  सुनी थी उसने ,

अपनी  खुद की बात ,

 कही  ही कहाँ थी ,,??


 ---सभाजीत 


    आदरणीय सुषमा स्वराज के जाने के बाद ,

        श्रद्धांजलि ।

*************

हक एक समंदर है ,

फ़र्ज़ एक मूंगा है 

हक के हज़ारों जीभ 

फ़र्ज़ मगर गूंगा है ।


हक है बोलना ,

हक है  डोलना ,

हक है खोलना ,

 ज़हर घोलना ,,।


हक है  ताकना , 

 दूसरों के घर  झांकना ,

   बेबसी   आंकना , 

,  कर्ज़ों  में फांसना । ।


कीचड़ में  घसीटना ,

सरेआम पीटना ,,।

लूटना खसोटना ,,

गिद्धों की तरह नोंचना ।


हक है झूमना 

 हक है चूमना ,

हक है घूमना,

हक है सूंघना ,,।।


हक है गरीबी , 

हक है नसीबी ,

 हक है नई बीबी ,

हक है हबीबी ।


हक है खरीद फरोख्त ,

हक है हर एक   गोश्त ,,

हक है  नई चोट 

 हक है  एक एक वोट ।


हकों के इस देश में , 

शरीफों के भेष में ,

 बड़े घाघ  शिकारी है ,

 कुर्बानी एक फ़र्ज़ है ,

   इसलिए सावधान ,,फ़र्ज़दाँ

  कल तुम्हारी बारी है ।


 --' सभाजीत '

**************

दूर तक 

करती रहीं पीछा ,

किसी की नज़र ,

,,कि  शायद 

देख ले वो ,

पीछे मुड़ कर ,,।


पीछे ,,,,

जहां उंकेरे थे ,

उसने अपने खुद के ,

पदचिन्ह ,,।

स्मृति क्षण ,,।


जहां , 

रुक कर ,,

सुस्ताया था ,,

पिया था मीठाजल ,

पोंछे थे स्वेद कण ,


पीछे 

जहां पूछा था उसने ,

आगे  गन्तव्य का पता ,,

किया था हिसाब ,

कि ,

कितना चल चुका ,,

और कितना शेष है , सफर ,,।


पीछे ,,

जहां रखी थी ,

अपने अनुभवों की गठरी ,,

जिसमें बंधी थी , कई पलों की यादें ,

मनुहारें , वादे , नेह -स्नेह के  , लबादे ,।


सब कुछ था पीछे ,

जबकि आगे कुछ नहीं था ,,

आगे तो था 

अज्ञात ,,

और पीछे था ज्ञात ,,।


है सिद्धार्थ 

फिर भी ,

नही  देखा मुड़ कर ,

एक भी बार ,,,

सिद्धि की चाह , 

क्या मोह नहीं थी ,

जिसकी चाहत में ।

तुमने त्याग दिए ,

सभी मोह ,

चाहत के ? 


जो निकले थे ,

पोंछने आंसू किसी आगत के ,,

तो क्यों विमुख हुए ,

पीछा करती सिसकियों और क्रंदन से ,

विलखते स्वर से

जो थे किसी अपने ही 

एक स्वजन , आहत के ??


---'सभाजीत '

****************

तुम्हारे कहने पर ,   

    अगर ये मान भी लें  

       कि वे 

       तानाशाह , फासिस्ट , ज़ालिम हैं,


        लेकिन

        अपने गिरेबान में 

          झांक कर बताओ ,

          कि,

          सचमुच  उन्हें हटा कर ,

           क्या आप ,

           उनकी जगह लेने के ,

           ' काबिल '  हैं ,,???

   --' सभाजीत ' 

***********

कन्या दान की वस्तु है , 

   पहले संपत्ति है पिता की , 

    फिर पति की ,,,! 

     ऐसी संपत्ति ,

    जो हस्तारंतित हो सकती है , 

     यही कहते हैं समाज के धर्म शाश्त्र , 

    एक बंधी हुई , मटमैली हो गयी , 

   किताब के अनुसार ,,,!


  कन्या एक  पौधा  है ,  

  नर्सरी में  , बो कर बड़ा किया गया पौधा , 

  जिसे बाद में स्थांतरित कर , 

 एक बगीचे में रोप दिया  जाए ,  , 

 जो दे सके

 फल , 

 छाया , हवा , आँचल की ठंडक , 

किसी अनजान बाग़ के रखवाले को , 


कन्या एक गाय है , 

जिसके गले में एक रस्सी , 

शुरू से ही बंधी रहती है , 

इसलिए की वह मचल ना सके ,

 ना कर सके किलोल ,  

 खूंटे से बंधने की आदत शुरू से ही ,

पाल ले वह , 

की बस उसे तो खूंटा बदलना है , 

चाहे यहां हो या वहां ,,!! 


वस्तु , गाय , पौधा ,,,

बन कर भी वह  ढूंढती  है , 

पुरुष की  नज़रों में , 

अपनत्व की वह ललक , 

 जो ना तोड़े उसका विश्वाश ,, 

 सजाये , सँवारे , दुलारे उसे , 

हाथों  की  सुरक्षित दीवारों के अंदर , 

की भय के अंदर  झांकने की , 

 कोई खिड़की हो ही ना वहां  , 

उस दीवारों के परकोटे में ,,!


  लेकिन क्या यह हुआ है कभी ??, 

   उस जहां में , 

   जहां के  परकोटे पारदर्शी हों , 

  और हर वक्त , 

   आदमी भेड़ियों की शक्ल में , 

    शिकार पर  झपटने  को तैयार हों , 

   हर वक्त , 

   तीखी कुल्हाड़ी हाथ में लिए , 

   पौधे ही काटने को तैयार हों ,,,लकड़हारे , 

    हर वक्त, 

    गाय को  मार कर भूख मिटाने को ,

     लपकने को तैयार हों , 

       कसाई ,,??

  --' सभाजीत ' 

************

क्रोंच पक्षी के ,

   प्रेमालाप ,

   और  बहेलिये के तीर से ,

   बिंधे,,

  '  नर   पक्षी '  के ,

   शरीर पर  क्रंदन करते ,

     करुणा से द्रवित हो कर ,

   बालमीक ने,

    एक कालजयी रचना कर दी ।


    जो समा गई हर दिल मे ,

     बदल दिए  युग मूल्य ,

     पूजी गई  घर घर ,,,

     लिखी गई बार बार ,

     जब तक नही निकली ,

     अश्रुधार ,

      हर आंख से ।


    लेकिन ,

     किसी क्रूर शिकारी ,,

    ' श्वान के मुंह मे दबी ' ,

     किसी नन्ही , कोमल  चिड़िया का ,

      पंख नोचे जाने पर ,

       मरणांतक ,

      उठा 

      आर्तनाद ,


       क्यों नही दिखा ,

       किसी  बाल्मीकि को ?

       क्यों नही उठा 

       करुणा का ज्वार ,

        कि ,,,लिख जाता ,

        एक ऐसा आदि ग्रन्थ ,

        जो सत्य था

        सदियों से सदियों तक ,

         

          एक ऐसा आदिग्रन्थ ,,

            जिसकी ,घटनाएं,

          कभी किसी ,

           मंच पर घटित नही हुई ,

       

        लेकिन , 

        घटना,,

        जो खेली गई,,

        खेली जाती रही 

        तब से आज तक,

       निरन्तर  ,

        बन्द कमरों में ,

        कई,,,  

       निर्जन स्थलों में ,


       हर दिन ,,हर समय ,,।।

  --'सभाजीत' 

*************



           

               


           ,


           


                         

                      ,


,