गुरुवार, 14 जनवरी 2021

कविताएं

 

भन्ते,,।


आना भिक्षाटन हेतु ,

किसी दिन अपने ही घर ,,।


पर आना दिन में ,,

रात न आना चुपके चुपके ,

अपराध हुआ वो   न दोहराना 

चुपके चुपके ,,।

वहः पुण्य नहीं था पाप ,

किया जो तुमने छुप के,,

एक बार तो देखा होता ,

सोते पुत्र को  मुड़ के,,? 


तकता जो   सूनी डगर,

अश्रु आंखों में भर,,भर ।।



तुमने त्यागा, पर 

तुम्हें त्याग सकती थी कैसे ,,? 

आँचल के  तले दुलारी ,,

 तुम्हारी  मूरत ऐसे ,

 न कभी उऋण हो पाओगे ,



,,,,,4,,,,,


शानदार पल ,,।


***************


    निशीथ के आगमन का इंतज़ार करते हम फिर से रामलीला भवन के उस  कार्यालय में बैठ गये जो अब आधुनिक विवाह भवन का कार्यालय कक्ष था  । यह कार्यालय कक्ष  भवन के पीछे के  उस भू भाग में बनाया गया था जहां एक लंबे कक्ष में कभी हम लोग स्वरूप बना करते थे । इसी कक्ष में लोहे की बड़ी बड़ी पेटियों में , राम लक्ष्मण , भरत , शत्रुघ्न , और सीता माता के भव्य सुंदर , रत्न जड़ित मुकुट सहेज कर रखे जाते थे । हमारे मुख पर पहले मुर्दाशंख का लेप लगाकर  , हमें गोरा बना दिया जाता , फिर माथे और कपोलों पर लाली मल के , उन पर गोल बिंदुओं के चक्र बनाये जाते । भौंहें गाढ़ी की जाती और ललाट पर एक बहुत बड़ा विष्णु मुखी तिलक ।  जब हम वस्त्र धारण कर , और भव्य मुकुट बांध , राम लक्ष्मण सीता आदि का रूप धारण करके एक पंक्ति में एक साथ बैठते , तो हमें अपना स्वयम का कोई बोध शेष न रहता । हमें लगता ,,हम सब वही हैं ,,ईश्वर के स्वरूप। और तब अन्य सभी पात्र ,  परशुराम , बाली , सुग्रीव , यहां तक कि रावण और मेघनाद भी एक एक कर आकर हमारी आरती उतारते और आंखें मूंद प्रार्थना करते कि यदि उनसे लीला का निर्वाह करते हुए कोई त्रुटि हो जाये तो हम उन्हें क्षमा करें । 


     लीला से पूर्व , हमारे श्रृंगार होते समय , इस कक्ष पर कड़ा पहरा रहता कि कोई अंदर न आने पाए । इस कक्ष में बैठते ही मेरी आँखों में श्रृंगार करने वाले उन लोगों की ,  छवि तैर गईं जो ईश्वर को रचते थे । हल्के महाराज और गुल्ली सोनी के चेहरे मुझे अब भी याद थे । बीच बीच में , विनोद भाई के ताया जी , नगर के अत्यंत प्रतिष्ठित व्यक्ति  घिस्सू बाबू आकर ताकीद करते कि लीला का समय हो रहा है ,, सब तैयार हो जाएं । नौगावँ की रामलीला में सूत्रधार की वाचक परम्परा भी थी जिसे स्वयम घिस्सू  बाबू निभाते । घिस्सू  बाबू का नौगावँ के लोगों के दिलों पर एकछत्र राज था । उनका इतना सम्मान था कि उनकी कही बात अकाट्य होती थी । वे बहुत कम बोलते थे ,, किन्तु उनके बोले दो शब्द भी महत्वपूर्ण होते थे । वे दो साथियों के साथ , मंच के एक कोने पर खड़े हो , रामायण हाथ में ले , प्रसंग का  सस्वरपाठ करते और तब लीला प्रारम्भ होती । 


     रामलीला भवन के कायाकल्प में सबकुछ बदल चुका था । अतीत के कोई चिन्ह अब शेष नहीं बचे थे । इसी बीच ,,मुझे इधर उधर ताकते देख विनोद भाई ने पूछा ,,-' यह परिवर्तन तुम्हें  कैसा लगा सभाजित ,,?? " 


       मैंने कहा ,,-" यह तो कायाकल्प है ,,मुझे तो पूरे नगर का कायाकल्प हुआ दिख रहा है ,, आप यहां हैं इसलिए इसे आप सिर्फ परिवर्तन मान रहे हैं ,,लेकिन परिवर्तन में मूल आत्मा तो उसी काया में रहती है ,,काया नहीं बदलती ,,। " 

    

      विनोदभाई मेरे इशारे को समझ गए । बोले ,,-"  तुम तो जानते ही हो ,, नौगावँ के लिए हमारे पूर्वजों का कितना बड़ा योगदान है ।  यहां की रामलीला की स्थापना  भी  125 वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों ने की । यह रामलीला भवन भी उन्होंने बनाया ,,उस युग का अद्भुत थियेटर या कहो नाट्यगृह , उन्ही ने सजाया । यहां का भव्य पुस्तकालय भी उन्हीं की  देंन  था । यहां की धर्मशाला भी उनकी धार्मिक सोच का परिणाम थी । नौगावँ में विशाल लाल  कोठी थी जो नौगावँ की पहचान और उसका गौरव थी । जानते हो ,,?? ,,,,,उस कोठी में 69 कमरे थे । किसी महल से कम न थी वहः कोठी । डिसलरी थी ,,पेट्रोल पम्प्प था ,,। हमारे अपने प्लेन थे ,, जो नौगावँ की  हवाई पट्टी पर शान से उतरते थे । लेकिन इस सब धन संपदा से आगे  बढ़ कर थी  - हमारी वहः प्रतिष्ठा ,,जो हमने नौगावँ को निस्वार्थ सजाने के लिए अर्जित की थी  । नौगावँ हमारा ऋणी था और हम नौगावँ के । नौगावँ हमारे लिए एक मंदिर था और हम थे पुरोहित ।  तब लोग नौगावँ के लिए जीते थे ,,और अब सिर्फ खुद के लिए जीते हैं । पहले सबकुछ निस्वार्थ था ,,अब सब के पीछे स्वार्थ है । " 


      वे थोड़ा भावुक होने लगे  थे ,,उन्होंने कहा ,,--" अब नए नए धनकुबेर पैदा हो गये हैं और नेता भी । नौगावँ की एक एक इंच भूमि को भुना लेना चाहते हैं । नई पीढ़ी में हमारे परिवार के लोगों के प्रति श्रद्धा का भाव समाप्त है । लोग नए नए दावे करते हैं ,,अदालतों में खड़े हो कर हमें अपनी ही भूमि के अधिकार पत्र सिद्ध करने पड़ते हैं । लोग हर संस्थान को सार्वजनिक करना चाहते हैं । मैं जानता हूँ ,,रामलीला कमेटी यदि पंचायती हो गई तो सब अधिकार की बात करेंगें किन्तु नौगावँ की इस विरासत का मेंटेनेंस कोई नहीं करेगा । इस स्थिति में यही उचित था कि इसका कायाकल्प कर दूं ।  टाकीज का चलन जब से खत्म हो गया ,,यह भवन अनुपयोगी हो गया,,। स्कूल में इतनी आय नहीं कि वहः इस विशाल भवन की मरम्मत करवा सके । इसलिए बहुत सोच बिचार कर इसे विवाहगृह बनवा दिया । अमर तो कुछ भी नहीं ,,किन्तु इसके  कायाकल्प से मेरे पूर्वजों द्वारा निर्मित यह भवन अब और कुछ वर्ष जी जाएगा ,,यही मेरे लिए संतोष की बात है । " 


       उनकी बात से मैं विस्मित हो गया । मैं अतीत में विचर रहा था,,वे वर्तमान में थे ।  मैं अतीत के स्वप्नलोक में था तो वे वर्तमान के कठोर धरातल पर । रामलीला में मुझे तीर बनाकर ,,'  ,,राम जी ,,!!  ,,इस तीर से मारना रावण को ' कहने वाले सरल हृदय सहपाठी विनोद ने जीवन के कितने उतार चढ़ाव देखे थे ,,में उससे भिज्ञ था । अपने अधिकार और न्याय की लड़ाई में उनके अपनों ही से उन्हें  कितना उलझना पड़ा था ,,ये बात किसी से छुपी न थी । सचमुच परिवर्तनशील तो इंसान  है ,, और जब उसमें  परिवर्तन होगा तो अन्य बातों में परिवर्तन तो स्वाभाविक ही था ।


    तभी निशीथ आ गये । वे गर्मजोशी से गले लगे । निशीथ की काया वैसी ही थी ,,लिन थिन,,।  ,,यानी स्लिम । अलबत्ता बाल सफेद हो चुके थे और कुछ दांत गिर चुके थे । निशीथ उदास थे । मैनें पूछा ,,- " निशीथ तुम जल्दी बूढ़े क्यों हो गये। ? " ,,तो निशीथ ने बताया कि उनके साथ एक बहुत दारुण घटना घट चुकी है । पिछले वर्ष कोरोना में उनके युवा  बड़े  पुत्र की अचानक मृत्यु हो गई । वे मिठाई की दुकान के संचालक थे ।  मुझे भी धक्का लगा । मैनें कहीं पढा जरूर था किंतु वहः निशीथ के पुत्र थे यह मुझे नहीं मालूम था । निशीथ ने कहा ,,उसके दो छोटे छोटे बच्चे हैं ,,हमने उन्हें अभी भी मालूम नहीं होने दिया है ,,वे पूछते हैं ,,पापा कब आयेंगें तो हम उन्हें बहला देते हैं । लेकिन अब शायद वे समझ चुके हैं ,,ज्यादा जिद नहीं करते । " ! निशीथ की बात से मुझे बहुत दुख अनुभव हुआ ।  माहौल थोड़ी देर के लिए विषादपूर्ण हो गया । मुझे निशीथ का वहः  बाड़ा नुमा  बड़ा घर याद हो आया जिसके बाहरी अहाते में  बाद में वे लोग दुर्गा जी बैठामे लगे थे । मिठाई की दुकान भी इसी अहाते में बना दी गई थी ।  तभी विनोद बोले ,,

      -" जानते हो ,,?? निशीत को भी अपनी प्रोपर्टी सिद्ध करने अदालत तक जाना पड़ा । तब मैनें अदालत को बताया कि नौगावँ की प्रसिद्ध  कोठी वाली जमीन हमारे पूर्वजों ने निशीथ के पूर्वजों से ही खरीदी थी ,, वे यहां के हमसे भी पहले के लैंडलॉर्ड हैं ,,! " 


        मुझे इस रहस्योद्घाटन पर आश्चर्य हुआ । मैनें कहा ,,विनोद भाई ,,!मैं तो सोच रहा था कि आप लोग नौगावँ की स्थापना से ही यहां आ गये  होंगे ,,और निशीथ के पूर्वज बाद में ,,। " 


           विनोद ने कहा "  ,,नहीं ,,!  निशीथ के पूर्वज यहां पहले आये ,,हम बाद में । 


              निशीथ ने बताया कि उसके पूर्वज अंग्रेजों के यांत्रिकी विभाग के इम्प्लॉयी थे । तो जब छावनी यहां आई तभी उसके पूर्वज उसके साथ यहां आ गये थे ।  तभी यह जमीन और कोठी के वहः जमीन जिसमें बाद में कोठी बनी ,,उनकी सम्पत्ति हो चुकी थी । 


       मैनें  विनोद से पूछा ,,-" तो आपका परिवार फिर नौगावँ क्यों आया ,,?? "    


             उन्होंने कहा ,," लंबी कहानी है । हमारे पूर्वज नेपाल उत्तराखंड के निकट के थे ।  उन्होंने अंग्रेजों के समय कुछ बांध बनाये । अंग्रेजों ने कांट्रेक्टर में रूप में ,,उन्हें  उत्तर प्रदेश  बुला कर छावनी की बिल्डिंग बनाने  का काम सौंपा तो वे उत्तर प्रदेश आये । वहां उनका व्यवसाय पनपा तो जब नौगावँ में छावनी आई तो उन्हें यहां बुलाया गया । आज जो नौगावँ की मिलिट्री छावनी की बिल्डिंग्स है वे हमारे पूर्वजों ने ही बनाईं । यहां के तीन पुराने प्रमुख बांध भी हमारे द्वारा बनवाये थे । मजबूत इतने की कुदाली मारो तो कुदाली मुड़ जाए पर दीवार में निशान न पड़े ।  किसी समय जब नौगावँ से रीवा जाने के लिए आधुनिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम नहीं था तब माल ढुलाई और आवागमन में लिए हमारी ही बग्घी सीरम चलती थी । हम अंग्रेजों के प्रथम श्रेणी के कांट्रेक्टर जरूर रहे किन्तु हमने अपनी धार्मिक आस्था , रहनसहन , संस्कृति नहीं बदली । नौगावँ  के लिए हमने वहः सब कुछ किया जो एक आदर्श नागरिकऔर उसके संरक्षक  को करना चाहिए था । हमारे पास आज भी जमीन की सभी पुरानी रजिस्ट्री मौजूद हैं ,,यहां तक कि शाहजहां काल में आबंटित जमीन के रुक्के भी हमारे पास उपलब्ध हैं । " 


      विनोद की बताई बातों में सच्चाई थी । जब हम बहुत  छोटे थे तब एक बार हमने कोठी परिवार का एक इंजिन का एक वायुयान हवाई पट्टी पर  उतरते देखा था । बाद में जनरल करिअप्पा के मिलिट्री वायुयान को भी नौगावँ की हवाई पट्टी पर उतरते देखा था । नौगावँ कि हवाईपट्टी छोटे वायुयानों की लेंडिंग के लिए सर्वथा उपयुक्त थी ।  


       अचानक विनोद ने फोन लगाया और दिल्ली में बस गये  मेरे एक अंतरंग  सहपाठी  नवल से कहा ,,, नवल ,,! सभाजित आया है लो उससे बात करो । "  नवल भंडारी  मेरे साथ पढा था । उसने छूटते ही कहा ,," लक्ष्मण और  राम के टू इन वन  सरूप को नमन । "  मुझे हंसी आ गयी । मैनें भी कहा ,,मुझे मुकेश के रिकॉर्ड्स सुनाने वाले ,,तुम्हें जिंदगी के उजाले मुबारक । '  नवल भी जोर से हंसा ।  वस्तुतः नवल के  घर उन दिनों एक रिकॉर्ड प्लेयर होता था ,,और नवल छांट छांट कर मुझे मुकेश के रिकॉर्ड्स सुनाता था ।  कुछ देर तक पुरानी यादें ताजा की । नवल अब दिल्ली में बड़ा उद्योगपति बन चुका था ।  लेकिन अब पूरा कारोबार बच्चों को सौंप कर आनन्द का जीवन व्यतीत कर रहा था । 


      अब तक शाम के चार बजे गये  थे । बच्चे आतुर ठेवकी कब हमारा मिलन पूरा हो और हम सतना की ओर प्रस्थान करें तो हमने एक बार फिर विनोद से विदा मांगी ।  चलते चलते मैनें कहा कि सब मिल गए ,,बस गुड्डन पाठक नहीं मिले । शायद वहः इंदौर में है ,,इसलिए फोन नहीं उठाया ।  इतना सुनते ही विनोद बोले --"  ,,कौन ,,??  गुड्डन पाठक विधायक ,,??  वो तो यहीं है ,,। ठहरो अभी बुलाता हूँ । " ,,और उन्होंने तुरंत फोन कर कहा --" कहां हो गुड्डन ,, ?? ,,फौरन रामलीला भवन चले आओ ,,। सभाजित आया है ,,। यहां तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं हम लोग ,,! " 


    वैभव ने कार चालू कर ली थी । मेरे बैठने का इंतजार कर  ही रहा था ,,विनोद की आवाज सुन उसने चुपचाप फिर कार  बन्द कर ली । वहः जान गया था कि अब जल्दी ही पापा  नौगावँ से  बाहर नहीं निकल पाएंगें ।


   गुड्डन पाठक मेरे लिए अनुज समान है ।  जब 1966 में , हम लोग शिवोम के बगल वाले रैकवार के मकान में किराए से दो वर्ष रहे ,,तब नन्हे  गुड्डन पाठक को फ्रेंड्स फ़ोटो स्टूडियो के बरामदे में पैंया पैंया चलते देखता रहता था । गुड्डन मुझसे 12 वर्ष छोटे भाई शार्दूल के सहपाठी भी रहे । बाद में हम लोग  1968 में पाराशर के प्रेस के बगल वाले मकान में शिफ्ट हो गये जहां  प्रदीप  के साथ मिल कर हमने अलंकार संगीत संघ बनाया , वहीं गिटार सीखा , वहीं पोलटेक्निक पास किया और वहीं से 1970 में नॉकरी करने बालाघाट निकल गया । 


            बाद में जब 1990 में विद्युत मंडल का अधिकारी बन फिर से  दो वर्ष हेतु नौगावँ आना हुआ तो गुड्डन से निकटता बढ़ी । गुड्डन का विकसित फोटो स्टूडियो स्थापित हो चुका था ,,। अक्सर में वहां जाता और गुड्डन से आग्रह करता कि वहः वीएचएस पर स्थानीय मोन्यूमेंट ,,मऊ सहानिया के छत्रसाल के महल पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाये । मेरे नौगावँ के अल्पकालीन निवास के कारण वहः सम्भव नहीं हुआ । 


           इस बीच गुड्डन ने क्षात्र राजनीति अपना ली और राजनीति में चले गए । बाद में एक दिन शार्दूल ने बताया कि गुड्डन विधायक हो गए ।  गुड्डन फिर एक बार निकट आये और एनआरआई बर्ड्स में आकर तो वे प्रतिदिन के साथी हो गये  । अब विनोद को आश्चर्य हो रहा था तो मैनें उन्हें गुड्डन से अपने सम्बन्धों के बारे में  बताया ।


          गुड्डन ने ज्यादा इंतजार नहीं करवाया । वे आते ही बोले,,भाईसाहब ,,!  मैनें देर से आपका कॉल देखा ,,और जब वापिस लगाया तो आपका फोन बंद हो चुका था ।  


             मैनें जांचा तो पाया कि सचमुच मेरा फोन बंद हो चुका था ।  


           गुड्डन ने फ़ोन करके रामलीला के अत्यंत पुराने पड़ गए एक राजगद्दी का फोटो घर से  मंगवा कर विनोद को थमाया और कहा की पहचानिए,,अगर इसमें कोई व्यक्ति पहचान में आ रहा हो ।  फोटो पुराना होने के कारण बिल्कुल फेड हो चुका था फिर भी विनोद ने नजर गड़ा कर कई लोगों को,,मन्नी भैया , गुल्ली सोनी , रामकुमार जी ,,आदि को पहचान लिया किन्तु राम लक्ष्मण आदि को पहचानने में विफल रहे । उन्होंने मुझे वहः फोटो थमाते हुए कहा ,," अब तुम देखो,,किसी को पहचान पाओ तो बताओ ,,। " 


   मैनें ध्यान से देखा ,,तो मुझे लगा की सीता के रूप में मिट्ठू यानी चंद्रप्रकाश अवस्थी है ,,किन्तु शेष चेहरे पहचान नहीं पाया । तभी अचानक राम जी के पीछे चंवर डुलाते छोटे से चेहरे पर निगाह पड़ी तो मेरे मुंह से निकला ,," अरे ये तो मैं हूँ ,,लक्ष्मण के स्वरूप में ,, और फिर तत्काल सब को पहचान गया ,,दाएं भरत के स्वरूप में थे प्रेमलाल नायक , बाएं  शत्रुघ्न बने गोविंद शर्मा , और राम के स्वरूप में जगदीश तिवारी । यह फोटो 1962 में , गुड्डन के पापा जी ,  श्री के एन पाठक जी द्वारा खींची गयी ऐतिहासिक फोटो थी । 

    

       गुड्डन ने धरोहर के तौर पर वहः फोटो विनोद को सौंपी और कहा ,," चलिये ,,अब मेरे साथ भी देखिए अपने पुराने नौगावँ को । " 


          मैनें निशीथ और विनोद से विदा ली और चल पड़ा गुड्डन के साथ


 --' सभाजित ' 


 ( क्रमशः )


भाव  भंगिमाएं,,!


किसी लहर की तरह , 

आती हैं ,,

और 

तट की रेत के 

 खुरदुरे चेहरे पर ,

एक इबारत लिख चली जाती है ।


रेत के खुरदुरे चेहरों पर ,

यादों के पांवों के चिन्ह,,

बार बार भींगने पर भी ,

एकदम नहीं मिटते ,,

होते हैं धूमिल शनैः शनैः ।


रेत तपती है 

चटख धूप में ,,

और ठंडा जाती है 

चाँद की शीतल चांदनी से ,,।


चटख धूप , 

और नीरव रात में ,

कोई नहीं गुजरता रेत पर ,

नितांत अकेले होते हैं 

रेतीले चेहरे ,


भींगते 

नमकीन खारे पानी से ,

उलझते,,

लहर के वेग से ,,

कभी कभी चुप चाप ,

बतियाते हैं अंधेरी रातों में ,

टिमटिमाते तारों से ,

खुरदुरे चेहरे ,

वक्त गुजारने के लिए ,,।


की सूरज की पहली किरण बन कर , 

सुबह सबेरे ,

कोई  बच्चा आये ,

और बनाले अपने घरौंदे के महल ,

उसकी गोद में , 

दिनभर ,,

नन्ही आंखों में , 

सपने सजाने के लिए,,।।


--'सभाजीत '


है एक पुराना पेड़ ,,

स्कूल के मोड़ पर ,,

पूछता हूं उससे ठहर कर रोज ,

बताओ ,,,कैसा दिखता था ,

बचपन में ,,' मैं ',,!!


😑

घर की वह पुरानी पौर,,

जिसे कभी लोग , कचहरी ,

व बैठका भी कहते रहे,,

उसमें लगे अपने आराध्यों के चित्र,,

 कभी हमारे धर्म , कर्म , संस्कृति के प्रेरक रहे ,,।

सत्य अनुगामी रहें ,,हम,,

संकल्प  यह लेते रहे ।


उसके बाद ,,

उसी पौर में लगे,,

दादा, परदादा , पूर्वजों सहित ,

राणा , शिवा , गांधी जैसे युग पुरुषों के ,

तपस्वी चित्र हमें  ,

कर्म और धर्म , 

नीति और रीति ,

की दिशा देते रहे ,,

भटक न जाएं हम ,,कभी,,

ये  संस्कार संजोते  रहे । 


समय बदला,,


पौर भी बदली ,,

बन गयी ग्राईंग रूम 

और बदल गए  ,,

चित्र,,किसी कला दीर्घा की तरह,,।

उसने ,,जंगल और बस्ती का मिला जुला ,,

अजायबघर रूप धारण किया ,

शेर चीते , भालू, बंदर , 

बगुले बतख , काले कबूतर ,

कांच के शोरूम में सजे ,

अलमारी के ऊपर ,,,,

गन्धहीन फूल ,पौधे मनीप्लांट 

कमरों में उगे ।

कहीं खजुराहो की मूर्ति ,

कहीं अभिनेता अभिनेत्री के मुखड़े,

कोनों ,,दीवारों की 

रौनक बने,,।


उन्हीं के बीच कहीं ,

पुरातात्विक  वस्तुओं के टूटे फूटे ,,

विकलांग टुकड़े कहते दिखे,,

क्या थे हम और अब क्या हो गए,,।

हमारे कलात्मक मूल्य,,

कहां खो गये ,,!!


किन्तु अब तो वहः पौर,,

पहचानी ही नहीं जाती ,

दरवाजों की ऊंची मेहराब 

नज़र नहीं आती ,,

गति के साथ 

सभी  बह गए ,,

पुराने प्रतीक सब ,

ढह गये ।

गावँ , गली , मोहल्ला तो वही है ,

एक दूसरे को टेर कर 

 प्यार अधिकार से बुलाने का 

हल्ला नहीं हैं ,,

अपने अपने कमरों में ,

सब मौन है ,,

आवाज़ के नाम पर , 

बस टीवी ऑन है ,,।

कोई किसी से नहीं पूछता ,,

माता पिता के अलावा ,,

आप कौन हैं ,,


 गर्व से कहता है आदमी ,,

ये नया दौर है,,

में ढूंढता हूँ ,,

जहां में चैन से दो मिनट  बैठ सकूं,,

वो कहां मेरे पूर्वजों की,,

 खोई  पौर है ।।


---" स्व0 श्री ज्ञानसागर शर्मा


सभी का आभार प्रकट करते हुए ,,,उनकी डायरी की एक बुंदेली रचना शेयर कर रहा हूँ ,,।

     ये रचनाये मेरे  पूज्य पिता स्व0 श्री ज्ञानसागर शर्मा जी की है । जो उन्होंने   अंतिम दिनों में लिखीं । ।

******** 


,,,हरएं ,,हरएं,,सब कछू हिरानों,,

    जों रओ ठौर ठिकानों,,।


 आज काल कौ चका चलत रओ ,

       बदल गओ जमानों,,।।

  फूलौ फूलों देख बगीचा ,

             फूल फूल मंडरानौ,,।

   रूप स्वरूप सँवारौ निसदिन ,

             राग रंग रस छानौ ,,।।

   उठी हाट , लुट गई बजरिया ,

        रओ सओ  सोई बिकानौ ।

 सब है,,!,,और लगत सब अपनौ,

         छिन में होत बिरानौ,,।

 'ज्ञान ',,ध्यान बिन , भवसागर में ,

          डूबौ और उतरानों,,।।


           --स्व0 श्री ज्ञानसागर शर्मा 

                    31-3-94


सूर्य,,!

***


   हे ,,सूर्य,,!


   तुम रोज सुबह ,

   पूरब में उगते ,,

   पश्चिम डूबते,,

   इस तरह आते जाते,,

  रोज के इस आवागमन से,

  नहीं ऊबते,,?? 


  जबकि ,,

  हमारे पूर्वजों ने ,

  इस ' आवागमन ' से मुक्ति पाने,,

  कितने कष्ट सहे,,

   कितने तप किये ,,।


   और,,,

    हमें भी,,

    इससे मुक्त होने के,

   कितने   सन्देश दिए,,।।


   किन्तु तुम,,??

   तुम तो रोज सुबह आते ,,

   सबको जगाते हो ,,।

   दिन भर की कड़ी धूप में तप कर ,

   थक कर ,,शाम को ,,

   अंधेरे की गोद में सो जाते हो,,।

    

     शायद इसलिए,,

     की तुम्हें हमारी पृथ्वी से प्यार है ,,

     इसकी सन्तति पर 

      दुलार है ,,।


      इसीलिए,,तो,,,

     तुमने ,,आवागमन , को अपनाया ,,

      विरक्ति, मुक्ति , मोक्ष ,, ठुकराया ,

      खुद जलकर भी 

      सतरंगी किरणों की चूनर से,,

       सुबह शाम ,,

      धरती को  सजाया ।


       रोज नई आशा,,

       तुम्हारा ही दिया दान है,,

        तुम्हारा निःस्वार्थ प्रेम ,,

        सचमुच महान है,,।


        यही प्रेरणा ले,,

        कहते हैं ,,,  हम,,,!

        सौ बार जन्म लेंगे,,

        हर बार ये प्रण लेंगें ,,

          किन्तु जहां मानव नहीं बसता,,

        वह' स्वर्ग ' नहीं लेंगें ,,हम,,।


          --" श्री ज्ञानसागर शर्मा


चर्चा मेरी नज़्म की , 

जो तेरी  बज़्म में न हुई तो ,

कोई बात नहीं ,,!

मेरे आने के बाद ये चर्चा हुई ,

की बज़्म सूनी है ,,

यही मेरे लिए काफी है ,,।।


--'सभाजीत'

😐


पिया कुआं खुदा दो  घर में,,।


अंकरी संकरी गैल गावँ की ,

उपटा लगै है पग में ,,।

छलकत गगरी ,  भीगत चूनर ,

  ताकें  छैला मग में ,,


पनघट पै गुइयाँ बातूनी,

बात करत आपस में,,

कैसें  राखत सखी पिया को ,

बांध कै अपने बस में ,,।


चिकनी जगत , बनी पनघट की ,

रपटत पावँ धरत में ,,

छूटत रास, लुढ़कती  गगरी,

डर लागै सँभरत में ,,।


सबखों लगत , की पैलें भर लें , 

मन उरझत झगरत में ,

घर की सुधि , कै काम परे हैं ,

समय न लगै कड़त में,,।


कितने दिन की बात दबी रई

 आगई आज अधर में ,,

आन जान कौ रट्टा छूटै,,

 हो  पनघट जो घर में ,,।


,,,,' सभाजीत ' ,,!


मेरे दादाजी  श्री गुलाबराय ' राय ' द्वारा रचित , कबीर पंथ पर आधारित , बुंदेलखंडी भाषा में 70 वर्ष पूर्व  लिखे गये, निर्गुणी पद , ।


    सुमिरिनी नामक पुस्तक में कुल 28 रचनाएं हैं जो 70 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी ।

      इन पदों की विशेषता है कि सम्पूर्ण रचना अनुप्रास अलंकार में है और भाषा बुंदेली है ,,!


    इन रचनाओं में एक रचना यहां उद्धत है ,,


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       ,," पंछी ",,,!


       **********


        पंछी पाय पींजरा प्यारौ,,

        बोद बुद्धि बिन बिकल बिचारौ,,।


         सुरत , सबद, संजोग , सहारौ,,

        नेक नज़र नर नित्त निहॉरौ,,,

         मोह, महामद, मनसा , मारौ,,


                   करौ कुटिल क्रोदानन , कारौ,,।

                     पंछी पाय पींजरा प्यारौ,,।।


         भरमई , भूत, भयानो, भारौ ,

         झंझट ,झंका , झोंकन , झारौ,

         बाधा , बिपदा , बेग  बड़ारौ,


                   सेवक , स्वामी, सरन , सुखारौ

                   पंछी पाय पींजरा प्यारौ,,।।


          तुमरी, तुमरी , तोय , तुमारौ ,

          पथिक , पियै, प्रभु, पूरौ  पारौ,

          दीनद्याल-दर, दींन दुखारौ,,?


                      पाओं परौ पापियै पुकारौ,,।

                       पंछी पाय पींजरा प्यारौ,,।।


             --- पं0 गुलाबराय ,,'राय ' !


 ' ,,रामस्वरूप',,गह्यो मन में,,।


जिहि पायो दशरथ कौशल्या ,

वात्सल्य पग्यो सुत दर्शन में ,।


जिहि लख्यो सिया पिय रूप ,

बसायो हिय उर अंतस मधुवन में ,,।


जिहि चरनन धोय पियो केवट ,

  छूटयो भवसागर बंधन में ,,।


जिहि तुलसी दास चढाय ललाट ,

धरयो सिर माथे चंदन में ,,।


जिहि सुमरयो अंजनि पुत्र ,

भयो मणि रूप , राम हिय भक्तन में ।


  भक्त सभाजित , तृप्त भयो ,

लख राम सबहि दिश कण कण में ।


-' भक्त सभाजीत '


😁


,," मुस्कान ,,

जो चिपकी थी ,,

तुम्हारे होठों पर,,

एक ' इमोजी ' थी ।


यह हकीकत,

बहुत दिनों बाद , 

 तुम्हारे ही शिष्यों ने ,

 तुम पर ,

कई' शोध ,' करके ,

खोजी थी,,,।।


--' सभाजित'


😊

           

   आज पूज्य पिताजी ,

 श्री ज्ञानसागर शर्मा जी की लिखी यह बुंदेली रचना ।


**********


रस की बोरी, मिसरी घोरी,,

बोली बोल चिरइयाँ,,

उदक फुदक अंगना में फिरतीं ,

खेलें चइयाँ मइयाँ,,।

नौंनीं उमर लगै लरकइयां,,।।


राजा बेटा , लल्लू , कल्लू ,

आधौ आंग उघारै,,

आड़ौ लगा डठूला कारौ,

आँखिन काजर पारै,,

बउ की पकर उँगरिया नौनी,

निंगरए पइयां पइयाँ,,।।


नौंनी उमर लगै लर कइयां,,।।


बिन्नू रानी , फूला , मूला ,,

कमर कछौटा मारें,

फूलनवारी पैर कतईया ,

कंदा कन्देला डारै,

धूरा में , भरबूला खेलैं,,

नीम तरै की छइयां,,।।


नौनीं उमर लगै लरकइयां,,।।


जे बारे से भइया बिन्नू,,

 बूझें बात सयानी ,,

कैसें चमकत चंदा सूरज,

बरसत कैसें पानीं ,,


बब्बा की हैं मूछें लंबी ,

काए हमाए नइयाँ,,?? 


नौंनी उमर लगै लरकइयाँ,,।


    गली गावँ गलयारे द्वारे,,

    ऊंची महल अटारी ,,

   इन गैंदा गैंदन सौं महकी ,

    घर घर की फुलवारी ,,

      जे रूठें ,,जग इन्हें मनावै ,

    सबकी नैन तरईयां,,।।


  नौंनी उमर लगै लरकइयाँ,,,।।


   --' श्री ज्ञान सागर शर्मा '    


#2020大晦日 


◆◆◆◆◆


मुश्किल में कटा,,

बीस सौ बीस ,,


बिछुड़े अपने,

 टूटे सपने  ,,।।

 बन  गया  वर्तमान 

दुखद अतीत,,।


स्वार्थों से उपजे  

दंगे फसाद 

 कर गईं  कितनी ,

आंखें उदास ,

दुश्मन 

बन गये  जान  के वो ,

जो थे कल तक ,

आपस के 

मीत,,।।


 


अपनों से,

अपनों का बचाव ,

लावारिश अंत्योष्टिया  ,

 कर गई घाव ,,,

एकाकी अंतिम यात्रा , 

स्वजनों की ,

दे गई टीस ,,।


तपती दोपहरी,

चले पांव 

मीलों दूरी ,

हो गए गावँ ,,

,राहत की लेने सांस धरे ,

पटरी पर कट गए,,थके 

शीश ,,।


सड़कें सूनी 

सूने बाजार ,

घर में बैठे,,

हो कर लाचार ,,

दूरस्थ बसे,,स्वजनों के हित ,

सहमे सहमे दिन हो गए 

व्यतीत,,।।


सरहद पर  ,

गहराए बादल ,

  पर युद्ध की साजिश ,

 हुई विफल ,

हारा दुश्मन, पीछे भागा,,

 और शौर्य देश का गया ,,

जीत ,,।।


 फिर एकबार,,

लौटे पुराण,

दशरथ नन्दन के तीक्ष्ण बाण 

दे गये  याद उन मूल्यों की ,

जिन में बसती है ,,

रीत नीति ,,।


बहुत सहा ,,

अब माफ करो,,

है प्रकृति ,,न अब उपहास करो ,,

हम पूजेंगे सब नियम तुम्हारे ,

 तम हरो , दिशाएं उजास करो ,

आने वाले दिन का हो नया सूर्य ,

आशा से तकते हम 

 ,,इक्कीस ,,।


--' सभाजित '


वर्ष 2020 ,,

तुम्हारे  साथ चले 

365 कदम,,,

याद रहेंगे ,,,


खट्टी मीठी यादें बन कर ,,,।

  हमारे दिलों में 

आबाद रहेंगें ।।


तुम,

कभी हँसे,,

कभी मुस्कराये ,

 तुम्हारी आँखों में दिखे ,,,कभी ,,,

भविष्य की चिंता के , ,

गमगीन साये ,,।।


लोगों को ,,

 कुछ जख्म दिए ,

तो कुछ  के  जख्म 

   ,,सहलाये ,,,।।


शुक्रिया ,,,

कि ,,

मेरी ज़िन्दगी में  भी ,

हमसाया बन कर आये,

अच्छे दिन,,,,

 अगर  ना दिखा सके ,

तो बुरे दिन भी नही दिखाए ,,।


अलविदा ,,,,

तुमने जो ,, कुछ नया दिया ,

तो 

बहुत कुछ पुराना  ले लिया ।


 चक्र हैं समय का ,

उसका एक हिस्सा,,

तुम भी हो ,,हम भी हैं ,,।

गुजरते वक्त , और नियति के गुलाम ,

तुमभी हो , हम भी हैं ।।


इसलिए ,

तुमसे न कोई शिकवा है ,

न गिला है ,,

मुस्करा कर बांध लिया,

 यादों की पोटली में ,

जो तुमसे ,,

उपहारों में मिला है ।


--'सभाजित '


🙄


' खुदा'  था उधर,,

और 

'खुदी ' थी इधर,,


खुदी ने खुदा से मिलने न दिया ,,।


राह,,

दरवाजे के आगे बहुत थी मगर,,

किवाड़ों ने ,,

बाहर निकलने न दिया ,,।


***********

* खुदा -- ईश्वर

* खुदी - गैरत , स्वाभिमान ,,।


--स्वरचित


कटी पतंग की तरह ,

आसमान से ,,,

धरती की ओर गिरते हुए ,,

बहुत खुश हूं ,,

किंचित भी,,

 घबरा नहीं रहा हूँ ,मैं,,।


आसमान में था,,

तो डोर से बंधा ,

किसी की उंगलियों पर 

नाचता रहा ।


लहरा कर नाचते हुए ,,

डोर की ढील पर ,

और ऊंचे,,और ऊंचे ,,

जाता रहा मैं,,


अपने गंतव्य की ओर ,,

कर्तव्य मान कर

उड़ते हुए 

पंछियों को रोक कर,,

बेवजह  बतियाता रहा ,, मैं,,।


ऊंचाई पर पहुंच कर भी ,

अपने साथ उड़ती ,,

कई  अन्य पतंगों से ,,

बेवजह ,,भिड़  कर ,,

पेंच लड़ाता रहा ,,  मैं,,।


लेकिन अब ,,

हवा के झोंकों पर , 

मंद मंद डोलते ,, 

नीचे आ रहा हूँ ,,

तो एक अलग ही सुख ,,

पा रहा हूँ मैं ,,।।


जानता हूँ,,

कि ,,

नीचे कई हाथ आतुर हैं 

लपकने को मुझे ,,

किन्तु बालकों की टोलियों में ,

 मुझ पर गड़ी हुई आंखों में ,,

उपलब्धि की  'आस' ,, लख ,

मन ही मन आनन्द से भर ,

हर्षित हो,,,,

मुस्करा रहा हूँ मैं,,।।


--' सभाजित '


सुनते थे,,

उनका एक ' गुट ' था,,

लेकिन जब मैं गया वहां ,,

तो देखा ,,

गुट के अंदर एक और गुट था,,।

गुट में थे कई कई और  गुट,,

हर गुट में,,

दमघुटता था,,


 ऊपर से  दिखने को ,,

हर  गुट,,

बिल्कुल  एकजुट था ।


--" सभाजित "


पथिक,,

तुम आना कभी इधर,,।


यद्यपि हैं बटमार यहां ,,

पर ,,उनसे कैसा डर ,,?? 


लुटना है नियति सफर की ,,

तो लुटो यहीं आकर,,।


तुम तलाश में निकले शिव की ,

यहां तो हम सब नटवर,,।


--' सभाजित ' 


कहो महाकवि,,!

अपनी कविता ,,

कैसीं लिख दूं ,,?? 


पिछली साहित्यिक थी,,

गरिष्ठ थी,,? 

बोलो ,,' ऐसी वैसी ' लिख दूँ,,???


स्तुति लिखवाई जिनकी ,

अब खफा हो गए उनसे तुम ,

  तो उनकी  ,,' ऐसी तैसी '  लिख दूँ ,,?? 


 गेरुआ रंग फिरकापरस्त है ,?

तो हरी स्याहि से ,,

दीवारों पर ,,

कुछ बातें ,,

नारों जैसी लिख दूं ,,,,?? 


देश की मिट्टी की कविताएं ,,

तुम्हें रोपने में समर्थ नहीं,,

तो चलो ,,विदेशी गमलों की  ,,

स्टारबेरी फेंटेसी लिख दूं,,? 


🙂


😊


जब भी मिले ,,

बुरे दिन ,,

लुभावने बन के मिले,,।


लगा कि ,,

यही हैं ,,

हमारे हितुआ,,हमारे मीत,,


तृष्ना ,,वितृष्णा ,

टूटन,,थकन,,

बार बार असफलताओं से ,

जर्जर हुआ मन ,,


इन्हें देख ,,

 आश्वत हुआ ,,

शायद बुरा वक्त 

अब हुआ ,,

व्यतीत ,,।


तपती सी रेत में ,,

मृगतृष्णा बन आई ,,

आशा की झलक से 


आंखों का  संचित घट ,,

बार बार छलकते,,

अंत गया ,,

रीत,,।।


--' सभाजित '


खाली बैठे आदमी को ,

हाथों में दे कर कुछ रकम ,

उसने कहा ,,घर से निकल, 

 चल  ,

 हल्ला बोल ,,। 

चीखता वह सड़क पर ,

दौड़ा एक दिशा में ,,

और  शांत हवा भी ,

थिरक गई ,,

हल्ला बोल,,हल्लाबोल,,।

क्या हुआ ,,,?? 

,पूछा किसी ने ,

तो था जबाब ,,

बस हल्ला बोल ,,।

कुछ हुआ है ,,

सोच कर जो लोग  कुछ निकले घरों से ,

हर तरफ हर कोई बोला ,

हल्ला बोल ,हल्ला बोल ,,।


जिस तरफ देखा ,,

तो हाथ लहराते दिखे ,

झंडे , बैनर , तख्तियां ,

हाथों में  फहराते दिखे,,

व्यवस्था को बदलने जो ,

गीत दुष्यंत ने लिखे ,

व्यवस्था को ' तोड़ने ' का लक्ष्य साध ,

वो गीत ,

बच्चे गाते दिखे ,,!!


व्यवस्था को बनाये रखने ,

 किसी बच्चे का पिता ,

वर्दी पहन जो  ड्यूटी पर दिखा ,

 डिगाने कर्तव्य से ,

  दोस्त के ही पिता पर , 

  बच्चे ,

पत्थर बरसाते दिखे ।


 जो गए थे बनने,

इस देश का भविष्य ,

विद्या के मंदिरों में ,

धर्म के खातिर ,

वो सभी ,

खुद को बरगलाते दिखे ।


नागरिकता,,नागरिकता,,।।

  देखो छिनी नागरिकता,,

  देखो लुटी नागरिकता ,,

  नहीं  मिली नागरिकता ,,

    धर्म ढली  नागरिकता ,,।।

   

  किसको खली नागरिकता ,?

 किसको भली नागरिकता ,?

  किसने छली नागरिकता ,?

   किसकी टली नागरिकता ,,,?? 


   एक मुंह ,,हज़ारों बात ,

    दावँ पेंच ,घात,, आघात,,

     सुबह शाम , दिन और रात ,,

      डाल डाल ,,पात पात ,,।।


       ढूंढते रहे नागरिकता ,,

        शहर शहर,राज्य राज्य ,,

         बूझते रहे नागरिकता,,

        द्वार द्वार ,,गली गली ,

         पूछते रहे नागरिकता ,,


         मगर,,

          उन्हें न दिखी ,

          केम्प में ठिठुरी ,, 

           सहमती   अस्मत बचा ,

            भागी हुई ,

           बेसहारा मां की गोद में 

             दुधमुंही   

              नागरिकता ,,

               खुद के भविष्य के 

                सहारे के लिए ,

               भारत के नेताओं से ,

                नन्हे नन्हे हाथ उठा ,,

                 शरण की भीख मांगती ,,

                   जीवन से दुखी ,

                    नागरिकता ,,।।


            ,,सभाजीत


जा मिया

जाम कर ,,

तिरंगे थाम कर ,

देश को 

बदनाम कर ,,।।


बजा ढपली ,

गीत गा ,

जिस जमाने से ,

सहम , 

लिखीं , पंक्तियां दुष्यंत ने ,

उस जमाने को भुला,

कुछ  तालियां 

अब 

पीट आ ,,।।


क्या तेरा ,

कोई लक्ष्य है ,?

या की तू  खुद ,

पथभृष्ट है ,,?? 

क्या है आज़ादी का मतलब ? ,

' गुलामी ' से ,,

 पूछ आ,,।


या फिर  चोरों के लिए,

कर सेंधमारी ,

और अंधेरे में ही ,

भटक कर ,

सिपाही से ही ,

जूझ जा ,,।।


********


 भजन


**


  धन्य है रामस्वरूप ।


  

बुद्धि ज्ञान प्रभुता के दल में  ,,

   वे ही सबके ' भूप ',,।


  रिक्त और प्यासे घट को ज्यों,

  मिले ज्ञान जल 'कूप ',!


ठिठुरन भरे , घने वन में ज्यों,

सुखद गुनगुनी ' धूप ,' !


  माया मोह फटक दे जैसे,,

  राम नाम का ,,' सूप ',


  जिनकी उपमा  खुद ही हों ,,वो,,

  अनुपम और अनूप ,,।।


  ,,,,''भक्त सभाजीत ' 


पेड ..,

      कभी  होते थे ,

      रास्ते के  रखवाले ...,

      

       गुजरते हुए लोग , 

        उसके नीचे ,

       थक  कर लेते  थे   सांस ,

        रूक  कर,

        बतियाते  थे ,

        अजनबी, 

           गावं  वालो से ,

   

          नापते   थे  दूरी ,

          तय   किये   सफर की ,

          ओर  भरते  थे ,

           प्राण वायु , स्फूर्ति,,

            अपने अन्दर ,

             अगले   अनजाने  सफर   के  लिए ..!!

        

         बातियाते लोग ,

            कहते थे ..राह तो है ,

           एक थकान ,

           दो घरों   की  दूरी ,

            पर

            पेड  है जीवन ,

           जीने  के  लिये  ...

             ज़रूरी ...!


          धीरे  धीरे ...,

          फैलते   गये  रास्ते , मर्यादायें तोड़,

          ओर सिकुडते   गये  पेड ,

           

           यहां तक कि ,

            एक दिन वे बन गये.   

            रास्ते के  व्यवधान ,

           तेज  गति  यात्रियो के   लिए . 

           ,,,,,, रोडे !

          

            विहंगो का  बोझ लादे ,

             परोपकारी  साधक ,

             रास्ते  के  सोंदर्य   में ,  

             हो  गये बाधक , 

         

              दिन  दिन  संवरती ,

              इठलाती,,,

           ,,,,,,  राह  , 

              बन  गयी .

             ..रूपवती  रोड ,

              कटते ,,कटते   पेड ,

              बन गए ,

               बस,,,

               मार्ग दर्शक   बोर्ड 

         

             अपने अपने  पंखो को  संभाल ,

             दाने पामी की तलाश में ,

             दूर देश के लिए ,,

              उड   गये  विहंग ,

               बूढे   पेड  के  लिये  ,

               क्यों करें ,, 

                कोई  अब रंज ...??


              ,,,सभाजीत

प्रदर्शन में ,,

मर गए लोग ,,!

वहां क्यों गए थे ,,? 

ये  शायद उन्हें  भी नहीं पता था ।


उन्हें सिर्फ किसी ने बताया था ,,

कि वे खतरे में है ,,।

कोई समझा,,,

आसमान टूटने वाला है ,

किसी को लगा ,,ज़मीन फट रही है ,,

किसी को कहा गया ,,

कल ही प्रलय हो जाएगी ,,

किसी ने समझा ,,

शरीर से लिपटा धर्म ,,

आने वाला बवंडर,,

 उड़ा देगा 

 और वे 

फटेहाल ,,अनावृत  हो जाएंगे ।

कोई डर गया कि कल , 

छीन लेगा कोई ,

उनके बाप दादाओं के ज़माने के घर ,

और भेज देगा उन्हें सात समुंदर  पार,,

काले पानी की तरह ,,।


कठपुतलियों की तरह ,

बिना अपनी किसी समझ के , 

बिना प्रयोजन , 

वे नाचते रहे ,,

उस तमाशे का हिस्सा बन ,

जिसकी तालियां , सिक्के , और वाहवाही ,

तय थी उस तमाशाई  के लिए , 

जो नचा रहा था उन्हें,,

 पर्दे के पीछे खड़ा होकर ,

और बजा रहा था सीटी ,

चतुरता से,,

उंगलियों में उलझे धागों से , 

फंसे किरदारों को उचकाते हुए ।


काठ और आग का रिश्ता ,

नहीं जानती ,,

कठपुतलियां ,,

की आग सुलगती रहे इसलिए,,

काठ जरूरी है ,

 जलने के लिए ।


तमाशे में ,,

 कुछ कठपुतलियां , 

जल गईं ,, मर गईं ,,

तो क्या  हुआ ,,?? 

तमाशाइयों और तमाशों का रिश्ता 

तो बना रहेगा ,,

चोली दामन की तरह ,,

क्योंकि कठपुतलियां तो हिस्सा ही  है ,,

लड़ाई ,,और मरने मारने के 

तमाशे दिखाने  का ,,।


🙏🙏


नौकरी ,,  वो है ,

जो , 

करी तो करी ,

,वरना ,

,ना  करी  ,,!!


सेवा ,, भी वो है,

 जो , 

 करी तो मन से करी , 

 वरना,

 ना करी !


खिदमत ,,,  वो है ,

जो , 

खादिम  द्वारा ,, 

 मालिक की,,

 हर हालत में  ,,

 करी ही करी ,

 

कभी भी ,  

किसी भी हालत में ,,

',ना ', 

 ना करी ,,!!


हुज़ूर को , 

 नौकर नहीं चाहिए , 

ना चाहिए ,,सेवक , 

चाहिए  बस 

' खादिम ',, 


  ढूंढ ही लेते हैं वे , 

 सात फाइलों में दबे , 

 अपने ,,,उसको ,,!


 

 जो खड़ा रहे  अलादीन के जिन्न  की  तरह  ,


 ज़रा  भी घिसी जाए , 

  जब भी , किसी फ़ाइल की तली  , 

 तो हाथ जोड़े ,

आ जाए भागता ,,कहता हुआ ,,!

, मेरे आका ,,  क्या है  हुकुम ,,??


किताबों के कीड़े ,

किताबों में रहते हैं ,,

किताबें कुतरते , 

किताबें खाते हैं ,,

और जब बहुत मोटे हो जाते हैं , 

 तब बाहर आते हैं ,,!!


बाहर निकलने पर , 

वे दीमक को समझाते हैं ,,!

की किताबें तो बस  वही  हैं ,,

जिसको उन्होंने पढ़ा ,,

बाकी तो ,,बकवास है , 

 ' मूर्खों का गढ़ा ',,!!


वर्जनाओं को तोड़ दो ,

 हवाओं का  रुख मोड़ दो ,,

तुम घुसो हर  जगह पर , 

हर पुराने घर , 

फोड़ दो , 


तुम  लिखो  कि,,

नदियों के धारे ,,

ऊपर से नीचे क्यों नहीं बहे ,,? 

तुम कहो कि,,

पर्वत घमंडी ,,

सर उठाये क्यों खड़े ,,??


तुम ये पूछो , 

 क्यों हवा में ,,परिंदों का राज है ,,? 

तुम ये  पूछो  , 

 शेर क्यों ,,

 बकरी को खाने को आज़ाद है ,,?? 

तुम बताओ ,,

 नई पीढ़ी को,,, कि ,,

वाद ही संवाद है ,,!

तुम  समझाओ ,

प्रगति का  मतलब  ही  बस , 

 प्रतिवाद है ,,!! 


बदल दो तुम देश , 

 हर परिवेश , 

तोड़ कर पुराने विश्वाश ,

मिटा दो किंबदंती , 

  कि,,लिख लो , 

खुद नया इतिहास ,,,!!

भुला दो पूर्वजों के नाम , 

पुराने खानपान ,,!

कि किंचित शेष ना रह पाए , 

 अपने आप की पहचान ,,!!


प्रगति के नाम पर , 

विदेशी हाथ,,,

 थाम कर ,,

तुम धरो एक लक्ष्य , 

की हो तुम्हारा ,,

चतुर्दिश ,,एकछत्र ,,राज ,,,

रटाते रहो सबको सदा , 

की बाकी सब हैं , 

 गरीब और मजदूर ,,

एक तुम ही हो , 

 सबके ,,," गरीब नवाज़ " ,,,!!

रियासत से ,,

 सियासत तक , 

प्रजा कहलाये ,हरदम ,एक चिड़िया ,,

और तुम   रहो  ,,

उनके शिकारी ,,,

 आसमां में उड़ते ,,,' बाज़ ' ,,!!


---  सभाजीत


कवियों  में कविता है ,

  कविता  में ' लाईने   ' है  , 

  कवि  मगर  खुद ,

   टूटे - फूटे चटके हुए आईने हैं ।

    


   बसों  में , ट्रेनो  में , 

     ठसाठस  लोग  हैं ,

       डाक्टरों  की क्लीनिक में 

           ,लाइन  भी एक् ' रोग '   है ,

  

  फोन पर  भी  '  रुकिये  ,

       आप क्यू में है '..आवाज है ..!

         मंदिरों  की लाईने   तो  , 

     ....    भगवान के घर  की  राह  है !

   

 लाईने  ही  मर्ज   है  , 

      लाईने ही  फर्ज  है ,

        लाइनो  को  तोड़ना भी ,

           किसी  के  लिये  आदर्श  हैं ..!!

       

               लाइनो  पर ट्रेन है ,  

              सभी  फ़ास्ट मेल है 

             बोगियां तो सुधर गईं  ,

               इंजन ही फेल हैं ।

              


        लाइने  तरंग   हैं .. 

           आयेंगी जायेंगी ,

             सिंधु तट को  भिगो  कर  ,

                नई  ईबारते  लिख जायेंगी !!

 

तरंगो को  गिन  कर। ,

   हम भला  क्या  पायेंगे ? 

  जब तलक  खुद सिंधु में   

   एक् नाव  लेकर ना  उतर  जायेंगे  ??


  ,,सभाजीत


चलो , 

 दस दिन और , 

 भटक लें ,,!


एग्जिट पोल के, 

 कयासों पर , 

लगा कर , 

" अटकलें ,,!! 


 किसी को , 

 बैठा दें  , 

 सिंहासन पर , 

किसी को , 

 मन ही मन , ,

 नीचे पटक लें ,,! 


चौराहों पर , 

बघारें 

अपनी पार्टी की तारीफ़ , 

दूसरे गर बघारें , 

तो चुपचाप , 

 वहां से , 

 सटक लें ,,!! 


बना कर , 

किसी को मसीहा , 

खुद पांच साल के लिए , 

अपनी ही बनायी क्रूस पर , 

 फिर से ,

  लटक लें ,! 


 वोटों को , 

 बाँट कर जातियों में , 

 इंसानो को , 

 छान , बीन कर , 

 लोकतंत्र के सूपे  से , 

 फटक लें ,! 


नागनाथ की जगह , 

 सांपनाथ के बदलाव को , 

मान कर ,  अपनी  नियति 

अगर , रेप , लूट , और घोटाले हों  भी , 

तो आगे ,

 आँखों में आये , 

 आंसुओं को , 

 हलक के नीचे , 

बिना सिसकी लिए , 

 खामोशी से , गटक  लें ,,!


---सभाजीत


' भगवान ' ,

और ' शैतान ' ,

अब अलग अलग इंसानों में ,

ढूंढे जा रहे हैं ।

 जबकि ,

भगवान और शैतान ,दोनों , 

एक ही इंसान में ,

रहते हैं ।


जैसे ,,

बिना दो पहलुओं के , 

 कोई सिक्का , 

नहीं होता ,,,

 उसी तरह बिना भगवान और शैतान के ,,

कोई इंसान नही होता । 


 आइए इंसान को पहचाने ,,

सिक्के की तरह ,

उसके मूल्य को नहीं ।


😑


टोपियों के  बाजार  में ,

  जब गया वह ....

   तो उसे  भायी ...एक  ही  टोपी ,

    फौजी  की ...!!


   वैसे  वहां  ओर  भी  टोपी थी ..,

    ज़िसे  पहन  रहे  थे  लोग ,

    ओर  निहार रहे  थे  शीशे  में ,

    खुद  को  बार बार  आत्म मुग्ध  हो कर  .!


    नेता , खिलाडी  ,  इंजीनियर ,  ओर  

      व्यवसायी  के  रूपों  में ...!


       लौटा   जब घर  , 

      तो  सिहर  गयी  ...माँ ..,

       यही  टोपी  तो  पहन  कर  गये  थे  वो ..

       ओर  फिर  नही  लौटे ..!


        लौटी   थी  तो एक  बर्दी   , 

        जो  उसने  छिपा   कर  रख  ली थी 

        संदुकची   में ...

         अमानत   समझ कर ..!


         छब्बीस  जनवरी  को ,

         उसे  मिला  था एक तमगा .,

         एक सनद   ओर  कुछ रूपये ..!!

          जो दीवार पर आज  भी टंगे  है ..!!


        पेट में  था  शिब्बू  ,

        जब चले  गये थे वो ..,

  तो बेटे   को सिर्फ फोटो  में ही

       दिखा पायी  थी वह ,

        उसके पापा  को  ,..!!


      फोटो में ,टोपी  पर  रीझ कर ,

      मांगता   था  वह ..,

      . वही  टोपी ..बार  बार ...,

        हर  त्योहार  पर ,

        ओर  टालती  थी  वह ..,

        की उससे  भी कोई ओर रंगीन  टोपी ,

         ला  देगी अपने   बेटे  को ..!!


        लेकिन ...शिब्बू  तो , 

        ले आया  वही  टोपी ...

         पहन   कर  जाने  को था तैयार..,

       पिता  को खोजने ..,

        उसी  सरहद पर ,

        जहां पर   कोई भी  खो  सकता है  ..

        कभी भी ....!!


        भरे मन से ,

          बेटे की ज़िद पर ..,

           जाने  दिया  था  बस  कुछ साल पहले ,

            की हर दिन ...,

            फोन का इंतजार  करके ,

            चहक   उठती   थी  वह ...

             एक सवाल ..,

              खाना तो  ठीक से  खाते हो  ना ..??


            पडोस   के  गावं  में  ,

            लड़की  देख ली है ..,

             देव उठनी ग्यारस   के बाद ..,

             हाथ  भी पीले  करने  है    तुम्हारे ..!

              आओगे  ना  ??

             एक माह पहले ..??


              लौट रहा था अब वह घर ,

               उसके  बुलाने पर ..,

                 बारात ले  कर ...!


         गजरों से सजा गावं    

              बिगुल   बजाते   फौजी ,

                

               फूलों   की माला ...ओर ,

                तिरंगे   का बाना पहने ,

                बिलकुल अपने  पिता की तरह ,

                  शांत ...मुस्कराता हुआ ..!

                    फर्क  बस  इतना था , 

                  पहले एक वर्दी  भर  थी  ..,

                  अब वर्दी में  शिब्बू था ..!!


                  भरी   निगाहों  से .,

                  उसे  दिख  रही  थी  ..,दूर दूर तक ..,

                 टोपियां   ही  टोपियां  ..

                  नेताओं  की .., पुलिस की ,

                   पंचों की  सरपंचों  की ,

                   आम  की ..खास की  ,

                    दूर की ..पास की ...


                 युवाओं  के सैलाब  में .,

                  उसे  नही  दिखी  ..,

                   वह टोपी ...

                   ज़िसे पहनी थी शिब्बू  ने ...

                      प्यार से ...,

                   अपने  पिता  की  बहादुरी पर ,अपने ,

                   अधिकार से ..!!         


     .....सभाजीत .


जल में...,

       एक  छोटी  मछली  को ,

        बडी  मछली  खा  गयी   ,

          हलचल  हूई ,भगदड  मची ,

           हिलोरें उठीं .,  और  कुछ नही हुआ ..!!

              लोगों ने  बल  को  नियति  मान ,

                 मत्स्य  को पूज  लिया ,

                    और  छोटी मछलियो  को  भोजन  मान ,

                       उन्हे अपने जालों में फंसा ,

                         खुद  खा  गये ...!!

                           

                           जल  के  किसी कोने में , 

                             किसी भी  तल  पर 

                               ना कोई संवेदना जागी   

                      ना  फूटी  कोई  विद्रोह  की आग .!!


              थल  में  ,

                एक शेर ने ..अचानक  झपट्टा  मार ,

                   शांति   से  घास  चरते  ,

                     मृगों   के झुंड  पर  किया वार  ,

                        मार कर उन्हे ,

                         बना लिया   अपना आहार ,

                           लोगों ने  बल  को नियति मान ,

                             शेर को पूज लिया ,  

                             

                         ओर मृगों   को  भोजन  मान ,

                          निकल पडे  करने   उनका शिकार !!


                   कही भी    इन निरीहों के प्रति ,

                  ना उठी  हूक , ना बही कहीं ,

                    द्रग  धार ...!!


                      नभ में भी  ,

                         बलवानो  ने किया राज ,

                          छोटे  परिन्दों  को , 

                            खा गये  चील  , बाज ,

                              लोगों ने बल को नियति मान ,

                                 गरुडों  को पूज लिया ,

                                  छोटी  चिडियों  को      


     खुद अपने भोजन के लिये फंसा  ले गये .,

        फंदेबाज ..!

           इन  नि:शक्तों  के लिये , नभ में ,

            ना हुआ  कोई  घमासान  ,

              ना उठी आवाजें ,

                ना  दिये किसी ने प्राण ...!!

                 

                    आश्चर्य कि ,

                     युगों   युगों से ...,

                        जल ,थल ओर नभ में           

                          निर्बल  ओर बल ..,

                            श्रष्टि  के बने रहे अनिवार्य  अंग ,

                               विपरीत  ध्रुवों पर टिके  , 

                                 एक दुसरे के परस्पर . 

                                    विरोधी हो कर भी   ,                                         

                                      चलते रहे संग संग ..!! 

                         

                न हुए  एक दुसरे के खिलाफ ,  

                  न ही  हुए कभी लाम  बद्ध ..,

                     एक दूसरे  को  मिटाने  .नही  लड़े  कोई     

                      युद्ध,,।

                        

                       फिर क्यू  मानव ,

                        दो दलों  में बंट गया  ??

                         एक दूसरे  को काट कर ,

                             क्यू  खुद   भी ,

                               कट्  गया ...??


             शायद  यहां    निर्बल  ओर बल  के बीच ,

                 एक ओर  वर्ग --  

                  ' दुर्बल  ' भी था ,

                      ज़िसके मन में   

                        ' बलशाली  बन ,

                            सत्ता बल हाथियाने का

                                छल था  ,


         निर्बल ओर  बल , 

           इस दुर्बल  के शिकार बने .,

           

                तलवारें,, दुर्बल के हाथ  रही ,

                 निर्बल,,  बस उसकी धार  बने ..!!


              ----सभाजीत


पूनम  का   चांद ,

      यूँ  तो  हर माह  , 

       मेरे  आंगन  में  आता  है ,


        अपनी धवल मुस्कान से ,

          मेरे  मन  को  लुभा  जाता  है .!!


            लेकिन 

          ओ " शरद पूर्णिमा " ,, के "ज्ञानी "   चन्द्र  ,

              तेरी गुरूतर  सीख , 

             मेरे  काम  ना  आयेगी ,


            शरद ऋतु की  चांदनी रातें , 

              मेरे  मन  को साल,,,साल  जायेगी ,

                  पिय   जो  बसे  परदेश  ,

                 तो तेरी  शीतलता   भी ,

                   मेरे  हृदय  को ,

                  विरह  की  आग  में     

                        झुलसायेगी....  !!


माता - पिता 

      ******


मर जाते हैं लोग ,

जन - परिजन ,

 सुह्रद ,

  माता - पिता ,

  धुंधला जाती है 

  छवि ,

   लेकिन

 ' अहसास ' नहीं मरते ।

  

   घुप्प अंधेरे में ,

   जहां ,,

   सूझता नहीं 

    हाथ को हाथ ,,,

    या निर्जन में ,

    दिशाहीन  घनघोर ,

    समस्याओं के  

   आच्छादित   जंगल में ,

     एक घट जल की तलाश में  ,

    तरसते ,

    सूखे कुएं की तरह ,

     आवाज देते , रह रह कर झांकते ,

     अपने ही मन में , 

     जब घबराता है दिल ,

     तभी लगता है ,

     की कोई है जरूर साथ

     क्योंकि ,

      कभी भी ,,

      सिर पर , 

    आशीष से सराबोर , 

     कंपकंपाते दो  

    अदृश्य हाथों के ,       

  '   विजयी भव,,,'

      वचनों के , 

     विश्वाश नहीं मरते है ।।


   -- सभाजीत


जब  भी  दर्पण   में  देखती ,

     तो  ईठला कर ,  मुस्कराते हुए ,

         वह पूछती   रही    ..,

          पहचानते हो  मुझे  ,..??

          ओर  हर  बार  ,

            मुंह  बिचका कर ,

              चिढाती रही ,   मैं  उसको  ,

                चलो हटो ,

                  मुझे   ओर  भी  कई   काम  हैं ,

                 तुम्हें   निहारने  के  अलावा ..!!

                    इस  दुनिया  में ....,!!


            ना जाने  कब   ओर  कैसे  ,

             बस  गयीं थी एक  नयी  दुनिया ,

              उसी   कमरे में  ,

           जहां रखा  था  ..आदमकद आयना  ,

                मेरा बालसखा   ,  

                मेरी उम्र  का  राजदार ,

                जो  मायके  से  मुझे पछयाये ,

                  चला  आया था ,

                  डोली   चढ  कर  

                   मेरे  साथ ..!!


                  बच्चों  की  निकर , 

                   बिटिया   का  दूपट्टा ,

                    इनकी   शर्ट ,

                    ओर कभी  कभी ,

                     मेरी साडी ,  

                  जब  टंग जाती  उस  पर ,

        तो  ना  वह  मुझे  कभी  देख पाता ,

               ओर  ना  मैं  उसे  ..!!


                   धीरे  धीरे  बीतता गया समय  ,

                    ओर  पड़ता  गया धुंधला वह ,

                    इतना  धूमिल  ,

                      कि  उसे देखने  की  

                      आदत   ही  नही रही ,


              लेकिन ...

               कई  सालों बाद ,

         आज हम  आमने  सामने थे  कमरे , में ,

           निपट  अकले  ..,

           कोई  नही  था  वहां  ,


                बच्चों  की  निकर  ,

                 अटेची   में  बाँध ,

                   ले  गयीं थी  बहूएं  अपने साथ ,

                     बेटी हो  गयीं थी  विदा ,

                    ओर  इनकी शर्ट  ,

                     दे   दी थी मैने  दान ,

                       क्यूँकी उसे  पहनने के  लिये  , 

              वे  थे  ही  नही  उस  दुनिया  में ,

                वही  दुनिया  ,

                अब  नही  थी  वहां ,

           जो  शुरु  हुईं  थी  इसी  कमरे  से ,


         आयने में  उभरी  

        उसी  आक्रति ने  जब पूछा  मुझे ,

        " पहचानती   हो  मुझे  ,"  ??

            तो  मैने  भी  खिलखिला कर  कहा ,

             बखूबी ...,

               तुम्हें भूली  ही  कब  थी  ..??

                तुम्ही   तो  हो  , 

                 जो  मुझमें रही हमेशा  समाई ,

                  ए मेरी  छाया ,

                अभी  शेष है   उम्र  ,

                 तो  रहेंगे साथ  साथ  ,

                   करेंगे दिन  रात  ,

                   ढ़ेर  सारी  बात  ,

                   ना बचे  है वे  वस्त्र , 

                   जो  तुम्हें  ढ़क पायें ,



दिन रात ..

तपिश झेलता ,

धरती के चारों और ...,

 घूम घूम कर ...,

सूरज से  ...,

आँख मिचोनी खेलता ,

 चन्दा क्या जाने की  .. ,

वह सलोना है ...,

 किसी  नन्हे  से बच्चे  को

बहलाने का   ,

 एक खिलोना है !!


कमर भर पानी में ,

खडे  होकर ,

अपलक  ताकते हुए  .. आसमान  में .,

एक अंजुली  पानी .

.फेंका था ..,

तुम्हारी  तरफ ...,

जो वापिस आ  गिरा 

मेरे ही मुह पर ... ,

शायद  तुम प्यासे नही थे ,

प्यासा था ...मै  ही ..!


हाँ ...प्यासा था मैँ ...,

साल के पन्द्रह दिनो में .,

तुम्हे याद करने के लिये ..,

इन  पन्द्रह  दिनो में ही तो ..,

एक दिन तुम्हारा  था ..,

जन्म का नही .,

तुम्हारी  मृत्यु  का ...,

उस विदा  का .दिन ,

जब तुम चले गए  थे ,

सदा  के लिये ...!!


य़ाद  आने को तो ,

कई बातें थीं ...,

तुम्हारी ऑर  मां  की ..,

वो मां का कंघी  काढ देना ..,

मोजे  पहनाना ..,

और  तुम्हारा ..

सायकिल में लगी छोटी सीट पर मुझे बैठा कर ,

बाजार ले जाना ..,!

अपना   पेट  काट  कर ,

मुझे पढाना ..,

ऑर मेरे अफसर  बनने  पर ,

गर्व  से मुझे निहारना ..!!


लेकिन पन्द्रह दिन तो ,

यूँ ही  गुज़र गये ...,

इधर  उधर  पानी देते  ,

कोवों को बुलाते ..,

पंडित  को खिलाते ..,

ना तुम याद आये  ना  तुम्हारी य़ादें ..!


एक दिन ,तुम्हारे ..,टूटे  बक्से  में .

दिख गये ...तुम  ऑर मां   ,...एकसाथ ..!

जब एक पैन ..ओर  पुराना  टिफिंन ..

एक कोने में धन्से  हुए , टकरा  गये मेरी ऊँगलियो से ..,

ना जाने क्यू ..

सहसा ..बिलख  गयीं  ..मेरी आँखे ..,

 फफ़क  कर रो पडा मैं ..,

वह पानी  ,

धार बन कर बह गया ,  आँखो से ..,

  अविरल   रुका ही  नही ,

ज़िसे मैने फेंका था ...अंजुली भर ..,

नदी में धन्स  कर .., 

मेरे होठों  को कर गया ..तर ., 

आकंठ  की 

लगा अब कोई प्यासा नही ..रहा ..,

ना तुम  ..,

 ना मैं .. !!


दूर  से  ,

        पुराना  लिबास   पहने   आदमी ,

         बदला   हुआ  नही  दिखता ..!


           होता  है  आभास ,

             जैसे ..वही  है  ताजापन ,

               वही हिम्मत ,

                 वही  कुछ  कर  गुजरने की ताकत ,

                    वही   नूर ..!


                रोज  धो कर  पहनते हुए  ,

                   लिबास के  रेशे   रेशे ,

                      तार   तार    ,

                      धूप  बरसात से  उडे   हुए  रंग ,

                         कब  हुए  जार  जार   

                         ये  रोज  देखती  आँख  की 

                           हैसियत   से  बाहर  था  !!


                 दूर  से उसी  लिबास को  देख ,

                     सोचते   रहे  लोग ..

                       देखो  नही  बदला  ये  शख्श ,

                        

                     कोई  नही  जानता ,

                        कि  बदलने  को ,

                           दूसरा  लिबास , 

                              उसके पास  था  ही नहीं   .!!


                              और,,,

                                 लिबास बदलने का अर्थ ,,,

                                        बदलना नहीं होता ,,!!



कई दिनों पहले से ,

खो गयी है किताब ।


वो किताब ,

जिस में झांक कर ,

ढूंढ लेता था ,

अपने सवालों के हल ,

कुछ खास पेजों पर ,,


वो किताब ,

जिसके  कई पेज के कोने 

मोड़ कर रखे थे ,,

की जब भी हो मुश्किलें 

आसानी से खोल सकूं ,,

टटोल कर उन्हें ,,।


वो किताब ,

जिसे पढ़ने में 

 कई बार रुक गया था ,

और  बोझिल आंखों  को बंद कर ,

खो गया था सपनो में ,,

और 

जूझता रहा था कि ,

कल्पना और सत्य  क्या कभी ,

एक हो सकते हैं ।??


वो किताब ,,

वर्षों पहले से ,,

जिसमें रखा था ,

एक ,,

मटमैला सा नोट ,,

इनाम में  में मिला ,

किसी  बड़े के आशीष के 

 स्मृति चिन्ह की तरह ,,।


वो किताब ,

जिसमे दबे थे ,

कुछ नम्बर ,,

कुछ खत ,

कुछ निशान ,

मोरपंखी धागों की तरह ,,


जिनके धुंधले  चेहरे ,,

अब याद करने पर भी 

याद नहीं आते ।

बिना किताब देखे ,,

लेकिन जिन्हें 

भूल नहीं पाते,

,,जो मिटते भी नहीं ,,

बार बार मेटे ,,!!


 ।


--'सभाजीत '


,गाय मत पालिये ,

पालिये एक ' कुत्ता ',,!

क्योंकि ,,

गाय तो माँ है ,,,

और 

कुत्ता है ,,

,,नॉकर ।


गाय के लिए जरूरी है चारा ,

चारे के लिए जरूरी है चरोखर ,,

चरोखर के लिए  चाहिए मैदान ,,।

मैदान के लिए चाहिए ज़मीन ,,!

और ज़मीन बहुत कीमती है भाई ,,।


मैदान अब प्लाट हैं ,, 

प्लाट पर उगते हैं फ्लैट ,,

फ्लैट होते हैं  कांक्रीट ,

और,,

कांक्रीट खाया नहीं जा सकता 

क्योंकि ,,

कांक्रीट ,,खुद खा जाता है ,,

आदमी को ,,

आदमी ,,वही ,

जो पालता था कभी गाय ,

,,एक माँ को ,,,।


तो बिना चारा,,, 

,,आज ,,

कैसे पल सकती है  कोई गाय ,,?

पल सकता है , तो ,,बस ,कुत्ता ,,।

क्योंकि  खाता है  वहः झूठन ,,

लज़ीज़ मांस ,

अंडा ,,

जो नहीं उगता मैदानों में ,,

मिल जाता है आसानी से ,

बूचड़ खानों में ।


कुत्ता ,,

लड़ता है मालिक के लिए ,

भौकता है रात दिन ,

हिलाता है। दुम  ,,

चाटता है मालिक को ,

वफादारी निभाता है ,,

मालिक के फेंके हुए ,

एक एक कौर के लिए ।

दे देता है जान ,,।


एक दिन ,

जब हर इंसान के पास होगा ,

एक कुत्ता ,,

तो कुत्ते ही ,

दे देंगे जान , 

आपस में लड़ मर कर ,,

अपने मालिक की खातिर ,

और ,,

 बचा रहेगा ,,इंसान ,,

कुत्तों के खातिर ,,।।


--'सभाजीत '


लिखा जो मेने कुछ ,

 तो क्यों लिखा  ??,

 यह सोच कर में हैरान हूँ , 

 अपनी बचपन की दोस्त , 

 इस कलम से , 

 में परेशान हूँ। ।!!


अभिमन्यु की मृत्यु पर , 

छाती पीट कर नहीं रोये पांडव , 

क्योंकि वे जानते थे , 

अभिमन्यु का जन्म हुआ ही था , 

 ' वीर गति ' के लिए ,,!!


  चक्रव्यूह  भेदने  का  ज्ञान , 

 सबको नहीं होता , 

 और जिन्हे होता है , वे होते हैं भय रहित ,

 जन्म मृत्यु से परे , 

व्यूह के अंतिम द्वार तक पहुँच कर , 

वे लड़ते हैं अकेले ही , 

अंतिम लक्ष्य ,,,' जय - विजय ' के लिए ! 


 जब लक्ष्य हो जय विजय , 

 और दृष्टि हो ,,' हस्तिनापुर ' , 

तो फिर सभी योद्धा ही हैं , 

वे भी जो मार देते हैं , 

   और वे भी  जो  मर जाते हैं ,,!

  फिर रुदन किस बात का ,?? 

 क्या यह भय है  उन जीवितों को , 

   की एक दिन वो भी मर सकते हैं , 

" लड़ते  "  हुए ,,? 


   समर का अगर हिस्सा हुए , 

   तो मृत्यु तो है अंतिम परिणीति , 

  फिर चाहे हो  ' अश्वतथामा हथ भयो ' के झूठे शब्द , 

   या  किसी शिखंडी की आड़ ,  जिसके पीछे से चलें , 

    तीक्ष्ण बाण ,,!

    धराशायी करदें , किसी ' द्रोण ' या ' भीष्म ' को , 

   लेलें  कवच कुण्डल दान में , 

     और ,,

   रथ का पहिया उठाते कर्ण का , 

   करदें वध , 

   कह कर यही ,,,की यही है ' न्याय " ,,!

   

   दुश्शाशन की ,  जांघ पर,

   हो  वर्जित गदा का  प्रहार , 

   या फिर बदले की आग में , 

   जला दे कोई ' उत्तरा '  की कोख " ,,!


    समर  है  , 

  यदि जय विजय  का  , 

   तो सभी हैं   युद्ध ' अपराधी ' !

   वे भी , जो छिप कर चलाते हैं बाण , 

   और वो भी जो लाक्षागृह की आड़ में , 

   रचते हैं ,," षड्यंत्र " ,,!


    जय विजय सेआगे   , 

     यदि शेष बचती है तो केवल ' आस्था ' 

    जो दिखती है ,,किसी को कृष्ण के रूप में , 

    युग पुरुष सी , 

    या किसी को , 

    बस  छलिया ,!

   किसी को दिखती है पाषाण में  ,

    ईश्वर की छवि , 

    तो   किसी को केवल,

      एक  खुरदुरा पत्थर ,,!!


 सत्य सिर्फ भौतिक ही नहीं , 

    आत्मिक भी होता है , 

 यह जान लेने के बाद , 

   शायद शेष ही ना रहे , 

   जय - विजय का समर ,,!! 

   मरने - मारने की आकांक्षा !!

   ना छाती पीट कर रोने की परम्परा , 

  ना रुदालियों का जमघट , 


  रह जाएँ शेष तो बस , 

 कबीर के ढाई अक्षर प्रेम के , 

  मीठे व्यंग के चुटीले बाण , 

   जिसे मुस्करा कर झेल लें सब , 

  और बाँध लें ' सार - सार ' अपनी गांठों में ,,!!


    कह कर की हे मनीष ,,! 

,,,' साहब सलाम ' 

   हे काली मसि  में  मुंह   डुबोती  ,,,

     अमृत कलम , 

     तुझे  ,," प्रणाम " ,,!! 


      ,,,सभाजीत


,,,, बाढ़ में ,,,,

           

             डूब  गया

             ,मेरा , ,,,' बस्ता ,,,!

           

           बह  गयी मेरी ,,,

          ' पाठशाला ,,,

         

           ढह    गया  वह   घर ,,,

           जिसमें रहते थे ,,,

           मेरे  बूढ़े  टीचर जी ,,,!!


           , 

           घर में रंभाती ,,,

             ,,, ' भेंस ' 

           ना    जाने  कैसे  ,,  बच गयी 

          जो नहीं थी बिलकुल ' पढ़ी लिखी ' ,,१


           नहीं जानती  थी ,,

           जो ,  ' बीन ' का संगीत , 

           ,,नेता का भाषण , 

             स्वागत गीत ,,,!!


            जानती थी 

            बस मुझको , 

            बचपन से ,,,

           चाटती थी मेरा हाथ , 

          

            , मालुम थी उसे ,

          ' प्यार '   की भाषा , 

            ' स्नेह ' का अर्थ ,,,!!


            जानवर होकर भी ,

            समझती  थी   

            मनुष्य के प्रति अपना फ़र्ज़ ,,,!!


           मेरी आवाज़ , उसके साथ ,

        , अब ,,

          रोते रोते मंद है , 

          क्यूंकि ,,, 

         चैनलों पर होरहे प्रोग्रामों में , 

         दिल्ली की कुर्सी के आगे , 

           सबकी आँख 'परदे' पर है ,   

          और  ' कान ' बंद हैं ,,,!!


कौन जानता है ,

'गरल' और 'अमृत'  का स्वाद ..?

शायद गरल 'मीठा' हो ..,

 और अमृत 'कड़वा' ..!!

गरल एक सत्य है ..,

 मृत्यु जैसा ..!

जो है अनिवार्य..!!

और.. अमृत है बस.. 'चाह'..!,

 कुछ पलों,दिनों, और वर्षों की ..!!

चाह है असीमित..,

उम्र  सीमित..!

चुनना है मुझे उन दोनों में से कुछ एक..,

  तो मैं चुनूंगा- "मिठास" !!

'कडवाहट' के साथ  जी कर भी क्या करूँगा मैं ..??


यह  बबूल का पेड़ जो माँ ,

     होता जे एन यू तीरे ,

     में भी उस पर बैठ ,,कन्हैया ,

        बनता धीरे धीरे ,,।


       ले देती गर माइक मुझको ,

           एक लाउडस्पीकर वाली ,

             किसी तरह अध्यक्ष की कुर्सी ,

                मिल जाती गर खाली ,,।


               कूद क्षात्रों के कंधों पर ,

                  उचक के जो चढ़ पाता 

                    देश विरोधी नारे  मैं भी ,

                         गला फाड़  चिल्लाता ,,।।

                

                      हर विपक्ष का दल ,आगे बढ़ ,

                       हर दिन मुझ को फुसलाता ,

                           और चुनाव का टिकट मुझे ,

                         देने को रोज बुलाता ,,।


                      पर बबूल  का पेड़ नहीं तब ,

                       कहीं मुझे  फिर दिखता ,

                        बस  नोटों के बीच हमारा ,

                         सारा   जीवन  पलता,,।


        😆😆😎

     ( एक पुरानी कविता की पैरोडी )

         

हर द्रश्य आज तमाशा है ।

और तमाशाई है लोग ,,।।

आंख से नहीं देखते ,

देखते हैं मोबाइल से ,

जिसमें नहीं होता ,,

,,, दिल ,!!


  चमकता है  वहां ,

 बस ,," रिचार्ज "का बिल ,,!!


दिल जो भर आता था ,

कभी कभी छलक जाता था ,,

दिल जो गाता था ,

उसमें  कोई समाता था ,

दिल जो टूट जाता था ,

कोई अनजान भी ,

उसे लूट जाता था ,

दिल जो जिद पर आता था , 

रातों में रुलाता था ।

दिल जिस पर होता था गुमाँ,

दिल जो कभी होते थे जवां,।


अब कहाँ गए चे वो  दिल ? 

जो मर गए उदास हो ,

घुट कर तिल तिल ।

अब तो सीने में " कलेजे " हैं ,

बड़े से जिगर है ,

और मष्तिस्क में 

 " भेजे  " हैं ,

शीशों के घरोंदों में रहने वालों ने 

 नाज़ुक से दिल ,

 किसने कब  सहेजे हैं ??


दिल तो  आज रोटी रोजी है ,

मोबाइल में कैद ,,

एक "इमोजी " है ।


हो सके तो ,

दिल को ढूंढ लाएं ,

चलो ,,कब्रगाहों , श्मशानों में 

घूम आएं ,,

जहां बेजान शरीरों में , आत्माओं में  भी ,

दिल  अभी  कहीं  ज़िंदा हो ,

 उनके दिल से मिल कर ,

 हम ,

 आज 

 ,खुद ,अपने से थोड़ा 

,,,शर्मिंदा हों ।


-'सभाजीत



           


                         

                      ,


🙂



रग्घू और भग्घू दो सगे भाई थे ।


एक ही कोख से जाये,,।


आज़ादी के बाद पैदा हुए  इन भाइयों का आज़ादी का ज्ञान  सिर्फ 15 अगस्त , 26 जनवरी पर , तिरंगे और राष्ट्रगान  तक सिमट कर रह गया था । नेताओं द्वारा  मंच पर दिए गये भाषणों में उन्हें संविधान के अंतर्गत दिए गये  अधिकारों के बारे में चींख चींख कर बताया गया और यह भी चेताया गया  कि जब तक लोग उन्हे वोट देते रहेंगे ,,संविधान सुरक्षित रहेगा और उनके अधिकार भी । तभी कुछ लोगों ने उन्हें यह भी समझाया कि यदि अब आज़ाद हिंद की सरकार कुछ न दे तो वे सुविधाएं छीन  कर भी प्राप्त कर सकते हैं । खूनी रंग के लाल झंडे उन्हें थमाते हुए उन्हें बताया गया कि खून उबलने के लिए ही है । विरोध हर जगह लाज़िमी है । आज़ादी से पहले की संस्कृति अब फटी कमीज की तरह है । अब रोज नए लिबास पहनना , झूमना , गाना , खुश रहना उनका अधिकार है । समस्याएं सुलझाना सरकार का काम है ,, समस्याएं पैदा करना आपका काम ।  अब तो जंगल के शेर को भी मेहनत कर अपनी खुराक ढूंढने की जरूरत नहीं ,,। सरकार उन्हें जू में रखेगी ।  वे प्रदर्शनी बनेगे , सरकार उस पर राजस्व कमाएगी और  अशक्त जानवरों का मांस बैठे बैठे उन्हें मुहहैय्या करवाएगी ,,भले ही वे शिकार करने वाले फुर्तीले शेर ,  आलसी हो जाने  के कारण जू में सोते सोते ही  अकाल मृत्यु के शिकार हो जाएं ।

     बहरहाल ,,, असली किस्सा तो रग्घू और भग्घू का है ,,। 

     यहां  किस्सा खुद भटक रहा है ,,इसलिए रुख मोड़ते हैं  ।


   तो रग्घू और भग्घू एक ही गावँ की पाठशाला में पढ़े , स्कूल की स्पर्धा दौड़ में दौड़े , लड़े झगड़े , और बड़े हो गये । रग्घू भग्घू के घर में कोई बड़ी खेती नहीं थी ।  दो बीघा जमीन थी उनके पिता के पास ।  उनके पिता खेत में जो बीज बोते वहः उनके खेत की ही फसल का होता था । फसल में ज्वार बोते ,,जिसमें ज्यादा पानी नहीं लगता था । लहलहाते ज्वार के  पके हुए भुट्टे जब गर्व से मस्तक उठा , आसमान की ओर ताकने लगते तो रग्घू के पिता उन्हें काट कर सब  बराबर कर देते । भुट्टों से ज्वार के दाने निकालने के लिए रग्घू के पिता पड़ोसी के घर से बैल मांग लाते , या कभी कभी रग्घू और भग्घू भे अपने पैरों से भुट्टे मसल कर ज्वार के दाने अलग कर लेते ।  रग्घू की मां खुद चक्की से , सुबह उठ कर ज्वार का आटा बना लेती और गर्म रोटी जब रग्घू भग्घू को देती तो वे उसे गुड़ के साथ खा कर छप्पन भोग का आनन्द लेते । 

        रग्घू के घर एक गाय भी थी । उसका दूध रग्घू भग्घू पीते ,,और फिर उसके नन्हे बछड़े के साथ दौड़ने की स्पर्धा करते । गाय  का चारा खेत में उगी घास और ज्वार के डंठलों को चूरा कर बनता । 

     उन दिनों तक रग्घू भग्घू किसान के बेटे कहलाते थे । उनके पिता को यह बताया गया था कि जब तक वे दो बैलों की जोड़ी को पूजते रहेंगे ,,उन्हें एक कागज की पुर्जी चढ़ाते रहेगें तब तक ही वे सुखी रहेंगे ,,क्योंकि बैल की जोड़ी ही तो हल हांकती है ,,बैलगाड़ी में जुटती है ,,और यही जोड़ी सरकारी है ,,बाकी सब कुछ प्राइवेट,,। 

      और प्राइवेट का मतलब है शोषक ,,जमींदार ,,,साहूकार ,,।


   तो रग्घू भग्घू को प्राइवेट शब्द सुनते ही पारा चढ़ जाता ,,।


--' सभाजित' 


( क्रमशः) 


* यदि कथा पसन्द आयेगी तो आगे कहूँगा ,,वरना रोक दूंगा )