शनिवार, 27 जून 2020


सिंहावलोकन

1956 के संभवतः अप्रैल माह में मेरे पिताजी का ट्रांसफर , पन्ना के गर्ल्स हायर सेकेंडरी स्कूल से , नौगावं के  ब्वायज़ हायर सेकेंडरी स्कूल में , संगीत शिक्षक के पद पर हुआ !मैं उस समय करीब छह वर्ष का रहा होऊंगा ! एक वर्ष पूर्व ,  मैं  कुछ दिन , पन्ना के प्रायमरी स्कूल में कक्षा एक में पढ़ा  ,,लेकिन वहां मुझे अच्छा नहीं लगता था तो दो तीन माह बाद ही , मुझे मेरे दादा- दादी जी के पास चिरगावं भेज दिया गया था ,,जहां मेने कक्षा एक की प्रारम्भिक पढ़ाई पूर्ण की ! जब पिताजी नौगावं में , ज्वाइन करके , एक मकान  ले लिए तो मुझे और मेरी माताजी को , जिन्हें मैं " बाई " कहता था , ले कर नौगावं आये !
यह मकान  नौगावं की कोतवाली के सामने ही था ! मकान का यह ऊपरी हिस्सा था और मकान के आगे एक छज्जा था !  एक माह बाद ही मेरा एडमिशन  नौगावं के प्राइमरी स्कूल  की  कक्षा दो में  करा दिया गया ! शुरू में एक सप्ताह तक  तो मेरे  पिताजी आकर मुझे  छोड़ जाते और ले जाते रहे ,,लेकिन जल्द ही मुझे घर आने का रास्ता याद हो गया !
    जल्दी ही पिताजी ने मकान बदल दिया !  कारण यह था की रात में कोतवाली में   अपराधियों की पिटाई होती तो वे बहुत आर्त  स्वर में चिल्लाते थे और उनकी दयनीय आवाजें हमें साफ़ सुनाईं देती ! मेरी बाई रात में उठ कर बैठ जातीं ,, और विह्वल हो जातीं ! तब जो नया मकान मिला ,,वह नत्थू शर्मा   चौराहे पर बना  श्रीवास्तव परिवार का मिला  !यह परिवार अच्चट्  के जमींदार साहब के कुटुंब  का था ! इस कुटुंब में कई भाई थे ,,जिनमें सबसे बड़े थे शारदा बाबू ! उनके चचेरे भाई , किशन श्रीवास्तव के हिस्से में जो मकान आया था वो ठीक हमारे बगल में था ! उसके बाद उन्ही के एक अन्य चचेरे भाई के हिस्से में यह भाग था , जो कानपुर में रहते थे ,,और इसी लिए मकान हमें खाली मिल गया !  यह मकान दोमंजिला था ,, जिसमें नीचे दो कमरे और ऊपर दो कमरे , एक छत , रसोई , वगैरह थी ! हमलोगों के लिए यह पर्याप्त  जगह थी !
    इस मकान में हम लोग करीब आठ वर्ष रहे !


     शख्शियत  -1
    "नत्थू शर्माजी "


 इस मकान में आने के बाद सबसे पहले मैनें नत्थू शर्मा जी को जाना !
  यह चौराहा ही पूरे नौगावं में , उनके नाम से ही विख्यात था ! चौराहे पर उनकी मुख्यतः दूध दही की दो कमरे वाली दूकान थी ,,जिसके एक कमरे में एक भट्टी जलती रहती थी और दूसरे कमरे में वे खोवे की बनी मिठाइयां और दही सम्हाल कर रखते !कमरों के सामने एक छपरी थी ,,जिसमें एक बहुत छोटी सी दो खंड वाली मटमैली सी रैक रखी रहती थी ! दिन में कुछ मिठाइयां , जिनमें पेड़ा  , बर्फी ,रबड़ी , मलाई ,  आदि प्रमुख रहते थे , लाकर सजा दिए जाते थे !
    सुबह सुबह उनकी दूकान पर गावं से दूध ले कर आने वालों की भीड़ मच जाती ! बड़ी बड़ी कढ़ाइयों में दूध उड़ेल दिया जाता ,,और फिर वो भट्टियों पर  औंटता रहता !
   नत्थू शर्मा जी , हष्ट पुष्ट , गोल मुख वाले व्यक्ति थे ! वे अक्सर नंगे बदन रहते ,,और एक धोती पहने रहते ! एक जनेऊ , उनके गोरी  देह  पर , पेट पर लिपटी हुई , उनके ब्राम्हण होने की गवाही देती थी ! वे स्वभाव से कड़क थे , लेकिन दिल से बहुत नरम थे !
   जल्दी ही हम उनके ग्राहक बन गए ! दही तो अक्सर शाम को ले ही आते ,, कभी रबड़ी भी खरीद लाते  !वैसी स्वादिष्ट रबड़ी और दही हमने  कहीं और   नहीं खाई ! कभी कभी वे रसगुल्ले भी बनाते थे ,,, जो मेरी ख़ास पसंद होते थे !
     कुछ दिनों बाद उनसे उधारी भी चलने लगी ,,! पहले तो वे स्ट्रिक्ट रहे,,,, बाद में ,, आलस में कहते ,,तुम्ही लिख दो  कॉपी में ! उस समय तक नौगावं में  पुराने सिक्के और पुराने बाँट ही चलते थे ,,जिनमें इकन्नी , दुअन्नी , चवन्नी , अठन्नी के सिक्के होते और वज़न के लिए , पाव , छँटाक , आध पाव , ही होते थे ! तराजू भी डंडी वाली ,, डोरियों से लटकती पल्लों की होती ,,, जिसमें कम ज्यादा हो जाए तो कोई बुराई नहीं थी ! कॉपी में लिखने की शैली भी पुरानी  थी जिसमें एक निशाँन   के बाहर सीधी खड़ी लकीरों से और आड़ी  लकीरों से पाव , छँटाक  लिख दिया जाता !
    उस समय चार आने की एक पाव मिठाई मिल जाती थी ! यानी एक रुपया सेर ,,!
   जल्दी ही शर्माजी के दो पुत्रों को मैंने देखा ,, जिसमें छोटे का नाम  गोविन्द था ,, और बड़े का नाम गोपाल  था ! दोनों ही अपने पिता जी की तरह सुदर्शन थे  !  कालान्तर में जब मेरी मित्रता छोटे भाई गोविन्द से हो गयी तो मैं उनके घर भी गया  ! जब चाची जी को देखा तो मुझे लगा की ऐसी माता जी सबको मिले ! वे भी बहुत सुन्दर और मृदु स्वभाव की थीं ! गोविन्द के साथ उसके घर जाने पर वहां हमें चाचीजी के हाथ से  रबड़ी खाने को जरूर मिलती थी !
       कुछ  वर्षों बाद , रामलीला में मुझे जब पहले  लक्ष्मण और बाद में राम के स्वरूप के लिए  चुन लिया गया तो गोविन्द ने मेरे साथ लक्ष्मण के स्वरूप का  अभिनय किया  ! वो बहुत ही मृदुऔर  व्यवहारी लड़का  था ,, और यद्यपि मुझसे पढ़ाई में बहुत जूनियर था ,,फिर भी मेरे मित्र की तरह हो गया था  !
        शर्मा जी का परिवार बहुत सुखी था  !,,,, तभी , किसी घातक रोग के कारण अचानक गोविन्द की मृत्यु हो गयी ! वह शर्माजी के लिए बहुत बड़ा आघात था ! उन्होंने दूकान बंद कर दी  और और अस्वस्थ हो गए ! फिर वे कभी नहीं उबर पाए ! यद्यपि बड़े भाई ,,विटनरी में डाक्टर के पद पर नियुक्त हो गए थे , किन्तु शर्मा जी छोटे पुत्र के वियोग को बिलकुल सहन नहीं कर पाए !
    जो चौराहा ,,कभी नत्थू शर्मा जी का चौराहा कहलाता था , जल्दी ही अपने नाम की पहचान खो दिया ! इस बीच करीब 1964  में , श्रीवास्तव परिवार में विवाद हो जाने के कारण , कानपुर वाले भाई ने अपना मकान , शारदा बाबू के छोटे भाई सतीश  को बेच दिया ,,तो हमें तुरंत मकान बदलना पड़ा !  आनन् फानन में जो नया मकान मिला ,,वह मड़ियाँ मोहल्ले में ,, जैन परिवार के बगल में मिला ! यह मकान किसी ठाकुर का था जो गावं में रहते थे  ! हम लोग जब वहां चले गए तो शर्माजी से प्रतिदिन का निरंतरता का  सम्बन्ध छूट गया !
    इस बीच गोविन्द के बड़े भाई का विवाह हुआ ! नौगावं में उस समय  एक उत्सुकता हर घर की महिलाओं को होती थी की किस घर में कितनी सुन्दर  बहू आयी है ,,??  गोविन्द के बड़े भाई की बहू की धूम पूरे नौगावं में गूँज गयी की वो अत्यंत सुन्दर है ! सभी महिलायें उसके दर्शन करने को लालायित  हो उठीं ! लेकिन मजाल जो वह कभी घर के बाहर दिख जाए ,,?? गोविन्द की माता जी का अनुशासन ही ऐसा था की बहू घर से बाहर नहीं आयी ! यहां तक की मंदिर भी नहीं गयी !
        लेकिन एक जगह ऐसी थी जहां उस बहू को आना ही पड़ा ,,,और वह था' ' पाठक फोटो स्टूडियो ',,! लिहाजा वह जब वहां अपने पति के साथ फोटो खिंचाने  आयी तो मोहल्ले की महिलायें , दूर से ही उसके दर्शन करने का यत्न करने लगे ! किसी को झलक मिली ,,किसी को नहीं ,, क्योंकि स्टूडियो के नियम भी स्ट्रिक्ट थे ,! वहां परदे का पूरा इंतजाम था !,और तुरंत फोटो खींचने के बाद वो वापिस भी हो गयी ~!
      नत्थू शर्मा जी और गोविन्द की शक्ल मेरी यादों से कभी बाहर नहीं हुई !   और न ही उस ईश्वर की क्रूरता की ,,जिसने विधान रच कर एक बहुत ही अच्छे व्यक्ति का अचानक  अवसान रच दिया !

क्या अब भी वह परिवार वहां है ,,या नौगावं छोड़ गया ,,? यह मुझे नहीं मालूम ! यदि कभी नौगावं की  पहचान के पदचिन्ह ढूंढने पड़ें तो इस शख्सियतके बारे में शोधकर्ता  जरूर पता लगाएं !

--सभाजीत



 शख्शियत -2
 किशन चच्चा और शारदा बाबू श्रीवास्तव

नत्थू शर्मा चौराहे पर बने , जिस घर में मेरा आठ वर्ष का बचपन गुजरा , वह श्रीवास्तव परिवार का तीन हिस्सों में बाँटा   हुआ बड़ा घर था ! जिस भाग में हम किराए से  रहते रहे ,  वह उन तीनों हिस्सों में से , दो खण्डों में बना  सबसे बड़ा हिस्सा था !निचले हिस्से में चार कमरे थे  जिसमें से दो कमरों को छोड़ कर हमें दो कमरे दिए गए और ऊपर का पूरा भाग जिसमें एक छोटी छत थी , एक रसोई , और तीन कमरे , हमें किराए पर रहने के लिए मिले ! इस हिस्से के मालिक , श्रीवास्तव परिवार के ही सदस्यों में से एक  थे जो कानपुर में रहते थे ,,और उन्हें हमने जिन्हें  कभी नहीं देखा ! मकान का किराया , इस मकान से सटे , एक अन्य भाग में रहने वाले , किशन चच्चा लेते थे , जिनका आँगन  , हमें अपनी छत की मुंडेर पर चढ़ कर देखने से दिख जाता था ! किशन चच्चा से हमारे बहुत घरेलु सम्बन्ध बन गए ! वे एक सज्जन  और मिलनसार व्यक्ति थे !उनके परिवार में उनकी विधवा माता जी , एक बहिन , पत्नी , एक  बिटिया और एक पुत्र   थे ! चाचीजी की मित्रता मेरी माताजी सेबहुत  जल्दी ही प्रगाढ़ हो गयी क्योंकि चाची जी को अपनी पारिवारिक चर्चाओं को शेयर करने के लिए , एक नई  हमउम्र महिला पड़ोसन  मिल गयी थी !
     इस घर में आकर हमें सबसे आकर्षक चीज दिखी , वो ऊपरी हिस्से के सड़क की तरफ बनी  , कमरे में लगी झरोखे दार खिड़की थी  जो लकड़ी की पट्टियों  से  बनी , एक लीवर से खुलने वाली पल्ले वाली  खिड़की थी ,,जिसे खींच कर हम , सड़क पर चलने वाले व्यक्ति को आसानी से देख लेते थे , किन्तु सड़क पर चलने वाला व्यक्ति  हमें नहीं देख सकता था !इसी कमरे में  दीवार में बनी एक अलमारी भी  थी ,,जिसकी तली का   पैदा हटाते ही वह , किशन चचा  की ऊपर वाले कमरे में  , दूसरी तरफ की दीवार में बनी  अलमारी में खुल जाती थी , जिस में    , हाथ डाल  कर किसी भी चीज का आदान प्रदान आसानी से इस और से दूसरी और  किया जा सकता था ! इस एक्सचेंज मार्ग का उपयोग बड़ी सहृदयता से हमारी माता जी और चाची जी के बीच होता रहा ! जब कभी भी कोई व्यंजन हमारे घर बनता तो वह इसी मार्ग से चाची जी को बुला कर थमा दिया जाता , और इसी तरह वहां से भी व्यंजन बेखटके , हमें भी मिल जाते  !उस समय सिर्फ पड़ोसियों के दिल ही एक दूसरे से मिले हुए नहीं होते थे , बल्कि घरों की  दीवारों के दिल भी एक दूसरे घर से मिले होते थे !
      उन दिनों , नौगावं में अधिकाँश  मकानों की छतें पक्की नहीं होतीं थी ! सभी पर खपरैल होती थी  जिसकी लौटावनी  ( मेंटेनेंस ) , मई माह में करवाना जरूरी होती थी !मई माह में ही मजदूर सडकों पर इस काम के लिए दिखने लगते थे , और खपरों से भरी बैलगाड़ियां भी घूमती दिखतीं  , जो सैकड़े के हिसाब से नए खपरे बेचने निकट के गावों से  नौगावं  आती थीं , ताकि टूटे खपरों की जगह नए खपरे लगाए जा सकें ! चूँकि हमारे मकान मालिक कानपुर में रहते थे , इस लिए  लौटावणी करवाने की  जवाबदारी , उन्होंने हमें ही सौंप रखी थी ! मुझे लौटावणी के काम को देखने में बहुत मजा आता था ! एक बारगी सारे खपरे , ऊपर से निकाल दिए जाते और कमरों में सीधे  धूप  पड़ने लगती !,,,फिर एक एक पंक्ति में ,  ढाल बना कर ,  खपरे इस तरह सजाये जाते की पानी उन खपरों की नालियों से बहता हुआ ,, नीचे सड़क पर गिर जाए ! कभी कभी मजदूर  ढाल  सही नहीं बनाते थे  , तो पानी खपरों में दरार बना कर   बीच कमरे में टपकने लगता ,,! इस अवसर पर फिर किसी कम वजन वाले व्यक्ति को खपरों पर सावधानी पूर्वक पैर  रखते हुए उस स्थान तक जा कर या तो ढाल सही करनी पड़ती , या  खपरा ही बदलता  पड़ता !, और इस बात के लिए मैं  घर में सबसे योग्य व्यक्ति था  जो ऊपर चढ़ कर , सटीक ढाल बना देता था  , या खपरा बदल देता था  ! भारतीय  इंजीनियरिंग का   यह शायद  पहला पाठ था , जिसने मुझे बाद में  इंजीनियरिंग की  दिशा  में धकेला !
किशन चच्चा के घर से सटा  , श्रीवास्तव परिवार के मकान का  जो तीसरा हिस्सा था , उसमें सम्मलित रूप से अपने छोटे भाई के साथ  रहते थे - ' शारदाश्रीवस्तव ' !शारदा बाबू के तीन बच्चे थे  ,,तीनों लड़के ! जबकि उनके छोटे भाई संतोष श्रीवास्तव  के एक पुत्र और एक पुत्री थी !शारदा बाबू नगर के प्रतिष्ठित लोगों में गिने जाते थे ! बाजार में उनकी एक गहनों की दूकान थी ,,,जिसमें गहने या तो सुधरते थे अथवा बनते थे ! इस दूकान में वे सेठ की तरह ,  जाकर गद्दी पर  बैठ जाते ,,और एक मुनीम , जो काम का हिसाब लेता था , उन्हें पूरा व्योरा देता था  की आज कारीगर , या सुनार कौन सा काम करेगा ! इस दूकान में अक्सर मैनें  गावं से आये जरूरतमंद लोगों को देखा , जो अपने जेवर गिरवी रख कर या तो  उधार पैसा लेने आते या फिर छुड़वाने आते थे !
        श्रीवास्तव परिवार अचट्ट गावं की जमींदारी से सम्बंधित   परिवार था ! मैंने एक दो बार ही शारदाबाबू जी के पिताजी को देखा , जो गावं से यदाकदा  , नौगावं आते थे ! वे अक्सर  अंग्रेजों के जमाने वाली फोर्ड कार से आते थे और दूसरे दिन ही लौट जाते थे ! रोबीले व्यक्तित्व के  धनी  , जमींदार साहब की आवाज़ और मुखाकृति , किसी में  भी भय  उत्पन्न कर देती थी ! इसी भय के कारण मैनें कभी उनका सामना नहीं किया !
         शारदा बाबूजी के तीन बच्चों में सबसे बड़े मुन्नन ,,यानी सुधीर श्रीवास्तव से मेरी शीघ्र ही गहरी दोस्ती हो गयी ! मुन्नन से छोटे भाइयों में बिन्दु , यानी अरविन्द मुझे भाई साहब कहने लगे ! शारदा बाबू जी , जमींदार साहब के बड़े पुत्र होने पर भी , बहुत सरल और नरम ह्रदय के व्यक्तित्व  थे ! उसी परम्परा में मुन्नन  और भी ज्यादा सरल स्वभाव के बच्चे बने , किन्तु तुनक मिजाजी , और रईसी की ठसक उन्हें वंश परम्परा में मिली ! ! उस घर में , मुझे  जिनसे बहुत स्नेह और प्यार मिला वह थीं ,',मुन्नन की माता जी '  ! वे बांदा की थीं ,, और धार्मिक आस्थाओं  में गहन विश्वाश रखती थीं ! कोई भी तीज त्यौहार , व्रत  उनसे नहीं छूटता था ! वाणीं बहुत मधुर और स्नेह सिंचित थी !
         श्रावण माह में शाम को  वे एक चौकी लगा कर , , अर्थयुक्त बड़ी रामायण पढ़तीं थी  जिसमें चौपाइयां और दोहे सस्वर होते थे और अर्थ को वे इस तरह बाँचतीं की आँखों के सामने दृश्य ही उत्पन्न हो जाता था  ! वे हम बच्चों को निर्देशित करती थीं की हर दिन रामायण जरूर सुनें ,, कोई भी प्रसंग छूटे नहीं ,,, इस लिए मैं  शाम होते ही मुन्नन के घर पहुँच कर पहली पंक्ति में बैठ जाता ! हम लोगों के पीछे दरी बिछा कर शारदा बाबू बैठते , और कभी कभी संतोष बाबू भी ! मेरे बाल मन पर राम की महिमा का जो प्रभाव पड़ा , उसमें मुन्नन की माता जी का ही योगदान है ! मैं उनका आज भी ऋणी हूँ !
      हमारे घर के सामने वाली सड़क के उस पार ,  दूसरी  तरफ , ,,, बीड़ी का एक बड़ा कारखाना था ,,जिसके मालिक शारदा बाबू ही थे ! इस कारखाने का द्वार , नत्थू शर्माजी की दूकान के सामने की तरफ से था ! लेकिन इस कारखाने को मैनें  जब भी देखा , बंद ही देखा  !मुन्नन ने बताया  की सरकारी पैसा देना बाकी है इसलिए अभी  बंद है ,,लेकिन पिताजी ने बताया है कि  जल्दी ही   शुरू हो होगा  ! इस कारखाने के पिछले हिस्से में  कार का एक  गैरिज था , जो  अक्सर खाली रहता था ! मुन्नन ने बताया की उनकी कार अचट्ट  गावं में है ,,जो जब आती है तब यहीं खड़ी की जाती है ! खाली गैरिज में  हम लोगों के खेलने के लिए  उपयुक्त जगह थी ! इस जगह में हमने कंचे खेलने शुरू किये ! सुधीर कंचों पर निशाना लगाता ,, और न लगने पर भी हेकड़ी दिखाता की वह दावं नहीं देगा ,, कारण की खेल उसके गैरिज में खेला जा रहा था  ! सीधे साधे  मुन्नन  का जमींदारी रंग उसमें साफ़ दिखने लगता था ,और तब  हम खेल छोड़ देते थे !,  ! उस समय कंचों की उधारी भी चलती थी ! उसने दो कंचे उधार दे कर अपने लिए दो दावं सुरक्षित करवा लिए ! लेकिन मैं उससे जीत गया तो उसे कुछ कंचे मुझे देने पड़े !इस तरह  मेरे कंचों की संख्या प्रतिदिन  बढ़ती  गयी !
  कंचों में एक खेल था " टोंट घिसने ' का ! इसमें दावं देने वाले को कंचे को कुहनी से धकेलते हुए , गड्ढे तक पहुंचाना पड़ता था ! वह मुझे टोंट घिसवा कर तंग करने में ज्यादा आनंद अनुभव करता था ,,,लेकिन जब उसकी बारी आती तो वह साफ़ मुकर जाता ! कंचे खेलना तो आसान था किन्तु कंचे घर में छुपाना बहुत मुश्किल था ! कारण की मेरे पिता जी ऐसे खेलों के बिलकुल विरुद्ध थे ! तब किसी कपडे में बाँध कर हम उसे ऐसी जगह छिपाते की उस पर किसी की नज़र ही न पड़े !
     प्रारम्भिक प्राइमरी कक्षाओं के साथी मित्र जरूर बनते हैं किंतु उस उम्र का असली दोस्त मुहल्ले पड़ोस का हमउम्र का लड़का ही बनता है । उस हिसाब से मुन्नन मेरे हमउम्र वो दोस्त थे जिनको न कोई और था न कोई ठौर । हम लोग हर दो घण्टे बाद मिलते,,कोई खेल खेलते ,,फिर लड़ते और फिर घर भाग लेते   ।  लगता कि अब कुट्टी हुई है तो शायद ही फिर मिलनी हो ,,लेकिन दो घण्टे बाद ही मुन्नन सब लड़ाई भूल कर फिर मेरे दरवाजे आ धमकते,,,या फिर में उनके घर पहुंच जाता  जैसे कुछ हुआ ही न हो । कद काठी में मुन्नन मुझसे भारी पड़ते थे ,,इसलिए हाथापाई में अक्सर उनसे हार ही जाता था । हमें यह कभी पता नहीं चला कि हम में कौन बड़ा है कौन छोटा,,लेकिन मुन्नन के मन में एक बात जरूर थी कि वे रईसी में बड़े हैं और में छोटा । 
      शुरू में मुन्नन के घर कुआ नहीं था । कुआं किशन चच्चा के घर में था  ,,। दोनों घरों के आंगन के बीच एक दीवार थी जिसके बीच एक दरवाजा था । कहारिन  पानी भर कर किशन चच्चा के घर से मुन्नन के घर पहुंचा कर हौदी में भर देती थी ।  
      उन दिनो देवरानी जिठानी में भी एक विशिष्टता होती थी कि कौन बड़े शहर से आई है और कौन छोटे शहर से ।,,संतोष चच्चा वाली चाची बड़े शहर कानपुर की थीं और शारदा बाबू वाली चाची बांदा की ,,तो घर में संतोष चच्चा वाली चाची का पलड़ा शहर के हिसाब से  भारी ही था । कानपुर में तो नल लगें थे जबकि यहां पानी दूसरे के  कुएं से आता था ,,,इसलिए तुरन्त ही मुन्नन के घर , हौदी वाली जगह तोड़ कर वहां पर कुँवा खुदाया गया  । 
      मैं मुन्नन के साथ खड़े हो कर रोज कुँवा खुदता देखता । शारदा बाबू कुर्सी डाल कर वहीं बैठ जाते और  हरेक फुट खुदने पर मजदूरों से रिपोर्ट लेते की कहीं पत्थर तो नहीं निकल रहा ,,?  और जब पानी निकल आया तो सब  लोग खुशी से उछल पड़े । पानी टेस्ट किया गया  तो मीठा पाया गया । नारियल तोड़ा गया ,मुहल्ले में ,बताशे बांटे गए ।
        कुवां खुदने के कुछ दिन बाद ही किशन चच्चा के आंगन और मुन्नन के आंगन के बीच का आपसी आने जाने का  दरवाजा ईंटों  से चुनवा कर हमेशा के लिए बंद करवा दिया गया । इस तरह वर्षों से आपस में जुड़े दो आंगन हमेशा के लिए अलग हो गए ।
 फिर एक दिन देखा की कारखाना खुल गया है ,,! उसमें कारीगरों को बीड़ी बनाते  मैनें देखा ! उन्हें एक छोटी सी तराजू में तौल तौल कर तम्बाखू  दी जा रही थी और बंडल में बंधे पत्तों की गड्डियां भी ! वे सब कारखाने के बरामदे में  लाइन  में बैैैठ कर बनाते दिखे । बीड़ी के बन जाने के बाद , बीड़ी  को बाद में , कारखाने के आँगन में बनी भट्टी पर सिकते  हुए देखा तो मालूम हुआ की बीड़ी की सिकाई भी होती है !बीड़ी का कारखाना हम दोनों के लिए कौतूहल का केंद्र बन गया । मुन्नन के साथ अक्सर में बीड़ी के  कारखाने में चला जाता । बीड़ी पैकिंग का काम भी हाथों के कौशल का काम था । तब मशीनें नहीं होती थी फिर भी पैकिंग में दक्ष लोग हर एक मिनट में बीड़ी के कट्टे पर झिल्लीदार कागज लपेट कर , उस पर लेइ से स्टीकर चिपका कर , सामने रखी ट्रे में फेंक देते ।
      इसी क्रम में मुझे बीड़ी कारखाने के विज्ञापन विभाग के दर्शन भी हुए । दो लोग जोकरों की विचित्र वेश भूषा में मुंह पोते , अजीब से कपड़े पहने , हाथ में लम्बा भोंपू लिए कारखाने में दिखे । मुन्नन ने बताया कि ये लोग  गावों में जा कर इन भोंपुओं को मुंह में लगा कर हमारी बीड़ी का प्रचार करते हैं ।  मुझे लगा कि ये तरीका अब बहुत पुराना है तो शायद ही कोई इन्हें सुनता होगा ।  और यह सच ही था । , 
  एक हफ्ते बाद ही कारखाना फिर बंद हो गया !  शायद इस कारखाने की बनी बीड़ी का मार्केट था ही नहीं ! उस समय की प्रसिद्द बीड़ियों में चाँद छाप बीड़ी , और गदा छाप बीड़ी का   विज्ञापन ज्यादा  प्रचलन में था ! नौगावं की सड़कों पर , दीवारों पर ये विज्ञापन जगह जगह दिख जाते थे ! इन विज्ञापनों में एनासिन, लाल तेल ,नील ,  हमदर्द के विज्ञापन प्रमुखता से छाये  रहते थे !
    बीड़ी का कारखाना जो बंद हुआ तो फिर कभी नहीं खुला ! अलबत्ता , मुन्नन की कार जरूर एक दिन गैरिज में खड़ी दिखी ! मुन्नन ने गर्व से बताया की यह कार अब कल जगत सागर  घूमने जाएगी ! मैंने मुन्नन से विनय की कि मुझे भी घुमाने ले  चलो  ,,तो मान गया ! दूसरे दिन जब कार जाने को तैयार हुई तो उसने चुपचाप मुझे भी बुला लिया ! मुन्नन के पिताजी ने मुझे देखा तो कुछ नहीं बोले ,, कहा बैठ जाओ ,,,,शायद मुन्नन ने पहले ही उन्हें राजी करवा लिया था ! ! कार सबसे पहले मुन्नालाल पेट्रोल पम्प पर गयी  जहां कुछ गैलन पेट्रोल भरवाया गया ! फिर हम लोग जगत सागर तक गए ! मैंने मुन्नन के साथ पहलीबार जगत सागर तालाब देखा ! घूम कर आये तो मेरे ऊपर मुन्नन का एक और अहसान चढ़ गया था ,,,जिसका बदला मुझे खेल में उसके द्वारा की गयी बेईमानी झेल कर ही देना था !
नौगावँ में अक्सर दिलचस्प हलचलें होती रहती थीं । उन हलचलों में कभी मुन्नन मेरे साथी होते कभी प्रतिद्वंदी ।  कभी कभी सुबह सुबह  साधु वेश में दो व्यक्ति पूरे नौगावँ का चक्कर मारते हुए हर चौराहे पर रुक कर तेज स्वर में दोहे , चौपाईयाँ पढ़ते हुए अवतरित हो जाते । शंख, झालर बजाते हुए वे पहले तीन दिन यूंही  घूमते  , फिर अनोखे ढंग से दान मांगते । उनकी मांग होती कि उन्हें  -' दो सौ अठन्नी , तीन सौ चवन्नी , चार सौ दुअन्नी , पांच सौ इकन्नी  , दान में चाहिए  एकत्रित होने पर वो हरिद्वार जायेंगें । जहां धार्मिक अनुष्ठान करेंगें ।इससे दान दाताओं को पुण्य तो मिलेगा ही , साधुओं का आशीष भी मिलेगा ।
     तब दान देने की होड़ मच जाती । जितने सिक्के मिलते जाते , साधु अपनी मांग में प्रतिदिन  उतनी मात्रा कम करते जाते ,,और एक दिन पूरा पैसा एकत्रित हो जाने पर ,  बटोर कर गायब हो जाते ।
    मुन्नन अपनी माताजी से चवन्नी लेकर , मुझे दिखाते हुए एक दो दिन में दे  देते । इस काम में मैं पीछे ही रह जाता ।
     पत्ते पर ठंडी मलाई खरीदते समय भी वे आगे रहते । यदि मैं एक आने की लेता तो वे चवन्नी की । 
     लेकिन जब दूल्हा बाबा में, हवाईपट्टी पर  कोई हवाई जहाज उतरता तो उसे देखने जाने में हम दोनों साथ होते । एक बार समीपस्थ गावँ झींझन में , एक बाबा ने एक गुफा में घुसने की घोषणा सुन कर उसे देखने  हम दोनों साथ गये ।
         उन्ही दिनों सं 1959  में नौगावं में बिजली आ गयी ! सड़कों पर कुछ ही दिनों में ट्यूबलर  खम्बे गड गए और उन में तार खिंच गए ! जब कनेक्शन होना शुरू हुआ  तो मुन्नन का घर भी अग्रणीय कनेक्शनों में शुमार हुआ ! उसके घर जब पहली बार बिजली का बल्ब जला तो मुन्नन का स्टेटस स्वयमेव बढ़ गया क्योंकि हमारे घर तब तक लालटेन ही जलती थी ! अब मुन्नन जब तब अपनी रईसी का ताव दिखाने लगा ! उसके घर में जल्दी ही बाहर के कमरे में  एक रेडियो भी लग गया  जिसमें विविधभारती के प्रोग्राम आने लगे !सैनिकों के लिए गीतमाला , मुझे बहुत पसंद था , तो मुन्नन से हर हालत में निबाहना मेरी मजबूरी बन गया ! अब वो मुझे दो बातें भी सुना  देता तो मैं चुपचाप सुन लेता ,,क्योंकि रेडियो तो उसी के घर में था !  हालांकि रेडियो से मैं कभी दूर नहीं रहा ,,क्योंकि उसी चौराहे पर बने अज़ीज़ मुहम्मद के घरमें  बहुत पहले से बैटरी वाला रेडियो था ,,जिसमें दोपहर में लगातार तेज स्वर में फ़िल्मी गीत सुनने को मिल जाते थे ,,,,लेकिन रेडियो को ताकते हुए रेडियो सुनने की बात कुछ अलग ही थी !
        थोड़ा बड़ा होने पर रुचियों के अनुरूप होने के कारण हम लोगों में जहां प्रगाढ़ता बढ़ी वहीं कई मुद्दों पर एकमत न होने के कारण बहस भी हो जाती ।  इब्ने सफी बीए के लिखे जासूसी उपन्यास हम लोग कहीं से भी जुगाड़ कर पढ़ते । लेकिन वहः खुद को कर्नल विनोद मानता और मुझे कैप्टिन हमीद । वेदप्रकाश काम्बोज के जासूसी उपन्यास  में भी वहः खुद को जासूस विजय घोषित  करता ,,जबकि मुझे ठग अल्फांसे बताता । जिस फ़िल्म की में तारीफ करता ,,उसकी वहः बुराइयां बता देता ।  अंतरिक्ष यात्रा में अमेरिका - रूस के बीच छिड़े शीत युद्ध में वहः अमेरिका की तारीफ करता और रूस की बुराई,,जबकि मेरे विचार उससे उलट रहते ।
ऐसे अवसरों पर जब हमारा विवाद बढ़ जाता तो मामला मुन्नन की माता जी के सामबे पहुंचता । अक्सर वे मेरी तारीफ करती हूं जब मेरा ही पक्ष लेतीं तो मुन्नन भड़क उठता ।
       सामाजिक श्रेष्ठता जो  उसे विरासत में मिली थी उसी आधार पर  ,,, व्यक्तिगत श्रेष्ठता  पर भी वहः समानाधिकार चाहता रहा ।    स्पर्धा में पिछड़ने पर उसे बहुत झल्लाहट होती तो कभी कभी आंख मूंद  कर चिल्लाते चिल्लाते उसकी आँखों से आंसू बह निकलते । उस की यह हालत देख कर चाची को दया भी आती और हंसी भी ,,। वे मुझे कहती,," इसे समझाओ सभाजीत,,!! ,,तुम समझा सकते हो ,,,तुम इसके दोस्त हो । "
    और सचमुच,,में उसे समझा लेता था ,,क्योंकि मैं उसका पक्का दोस्त जो था ।

      धीरे धीरे मुन्नन से मेरी  कई बातों में तकरार होने लगी !मेरी दूरियां बढ़ने लगी ! तभी रामलीला में मुझे लक्ष्मण के पात्र की भूमिका मिली ,,और नगर में मेरा अपना स्टेटस बढ़ गया ! नए नए मित्र बन गए ,, लोग पहचानने लगे तो मैनें मुन्नन की परवाह छोड़ दी !
       एक दिन मैनें देखा की बीड़ी का कारखाना पूरी तरह तोड़ दिया गया है ! उस जगह अब एक पक्का ,,कई कमरों का मकान बनाया जा रहा है ! शारदा बाबू ,,खुद खड़े हो कर उस मकान को बनवाते दिखे ! गैरिज भी टूट गया ,,और कार भी कहीं चली गयी ,,! शायद वह बेच दी गयी थी ! मकान के एक बाजू में चार दुकानें बनाएं गयी ,,और शेष भाग रहने के लिए बना !  चर्चा से पता चला की शारदा बाबू और संतोष बाबू में बंटवारा हो गया है ,, और कारखाने वाला हिस्सा उन्हें मिला है ! मकान जल्दी ही तैयार हो गया और मुन्नन मेरे घर के सामने आकर रहने लगा !
        जो दुकानें बनीं ,,उनमें एक दूकान शारदा बाबू ने खुद अपने लिए सुरक्षित करके , उसमें कपडे की दूकान खोल दी ! बाजार वाली सोने चांदी की   दूकान किन्ही कारणों से पूरी तरह बंद हो गयी ! कुछ दिनों बाद वह भी बेच दी गयी !
 जमींदारी के स्टेटस को त्याग कर शारदा बाबू  व्यवसायी बनने की दिशा में मुड़  गए !  हालांकि ,, अनुवांशिक जमींदारी की आदत  ने उन्हें व्यवसायी भी  नहीं बनने दिया !
      मुन्नन से दूरी बनने के बावजूद भी , मुन्नन की माता जी मुझे उसी स्नेह और प्रेम  से बुलाती थीं ! मैं उनके पास बैठ कर यहाँ वहां के बहुत से समाचारों से उन्हें अवगत करवाता रहता था ! मुन्नन का क्रोध बहुत जल्दी ही सातवें आसमान पर चढ़ जाता ! उधर अरविन्द अपनी छवि एक तीक्ष बुद्धि वाले की छवि बनाने में जुट गया ! तो जब मुन्नन की माता जी , अरविन्द की तारीफ़ करती तो मुन्नन अपना आपा खो बैठता !
     तभी 1964  में  जिस मकान में हम लोग रहते थे , उसे संतोष बाबू ने खरीद लिया ! हमें आनन् फानन में मकान बदलना पड़ा ,,तो हम देवी जी की मड़ियाँ के पास , जैन परिवार के मकान के बगल में बने एक मकान में शिफ्ट हो गए !
    नत्थू शर्मा का चौराहा छूटते ही ,, हमारा सम्बन्ध मुन्नन के परिवार से पूरी तरह छूट गया !

     लेकिन मुन्नन के साथ बिताये  दिन , और उस परिवार के लोगों की यादें मेरे मन पर आज भी अमिट  हैं !  शारदा बाबू का व्यक्तित्व ,, और उनकी जमींदारी की ठसक , उनका अतीत भी , ,,मेरे  लिए एक यादगार बात है ! ,

--सभाजीत