बुधवार, 23 दिसंबर 2020

,,किस्सा ए तोतामैना ,,,

 अपनी  रचनाएं  मैं कहीं भी  करीने से संजोकर नहीं रख पाया । कुछ जरूर ब्लॉग में लिखने के कारण दिख जाती हैं किंतु बहुत सी तो यदाकदा शरारती बच्चे की तरह , यहां वहां  से कूद फांद कर मेरी गोद में आ कर चढ़ जाती है ,,,। इन्ही में से एक यह रचना है जो वर्ष 2009 की एक स्थानीय पत्रिका ,,' उपनयन ' में छपी थी और अचानक आज पुरानी धूल झाड़ते हुए टपक पड़ी ।

       

            लिखने के बाद , मुझे भी यह रचना अच्छी लगी थी तो आज इसे पुनर्जीवित कर रहा हूँ ,,।

   

          आप भी आनन्द लीजिए ,,,,,,,।


★★★


********************

 ' किस्सा ए तोता मैना ' ,,!!


*********************

  


        रोज़ की तरह , तोता अपनी प्रिय डाल पर आकर बैठ गया । 

         वहां उसकी साहित्यिक प्रतिद्वंदी ,,' मैना ' ,,पहले से ही आकर वहां बैठी थी । दोनों ने एक दूसरे पर निगाह डाली , और फिर एक दूसरे को निगाहों से तौलने लगे ।

          तोते ने मैना से पूछा --" आज मर्दों की बेवफाई पर कोई कहानी नहीं कहोगी ,,??"  

         मैना ने एक निगाह तोते पर निगाह डाली और फिर निर्विकार भाव से बोली ,,,

           -" मेरे पास तो आज कुछ कहने को नहीं है ,,मुझे तो ऐसा लगता है कि जो कुछ पहले कहा ,,वहः भी गलत है । " 

              --" क्यों,,?? ,,तुम तो औरतों की बड़ी हिमायती ,और मर्दों की आला दर्जे की आलोचक रही हो ,,आज ये बदला हुआ अंदाज़ क्यों ,,?? 

                   मैना ने एक गहरी निगाह तोते पर डाली । ,,,तोता भी कुछ उदास उदास था ,,लेकिन एक चतुर साहित्यकार की तरह अपनी उदासी छुपाने की कोशिश कर रहा था । मैना ने  एक अर्थपूर्ण द्रष्टि उस पर डालते हुए कहा ,,

      " हम औरतों के पास ,,' अंदाज़ ' ही तो है ,,जो ' बदलते ' रहना चाहिए ।,,ये कहो कि तुम उदास क्यों हो आज ,,?  ,,क्या कुछ सोचते रहे रातभर ,?? " 

--" सोचने से हम तोतों का क्या सरोकार ,,! ,,हम तो तोते हैं ,,,रट्टू तोते ,,!!,,दूसरों से लिया ज्ञान  ,,यहां वहां ,,बघारने वाले तोते,,!!,," ---तोते ने उंसाँस भरते हुए अपनी आंखें दूसरी ओर घुमा ली ।

       मैना ने तोते की उदासी ताड़ ली ।  थोड़ा अपनत्व भरे स्वर में बोली --" ऐ तोते,,!,,नज़रें न घुमा ,,! ,,सच सच बता क्या हुआ तेरे साथ ,,? ,,क्या औरतों की कोई बहुत बड़ी बेवफाई का हाल तूने खुद देख लिया ,,? " 

      अपनत्व भरे बोल तोते की कमजोरी थे । मैना को मीठे मीठे बोलते देख वहः पंख फड़फड़ाने लगा । फिर धीरे से पंजा उठा कर बोला ,,," मुझे दक कांट्रेक्ट मिल गया था ,, कुछ दिन उसी के चक्कर में फंस गया था । " 

   --" कांट्रेक्ट ??,,  कैसा कांट्रेक्ट ,,?? -"--मैना ने अपनी बड़ी बड़ी आंखें विस्मय से घुमाई ।

     --" कांट्रेक्ट ,,!!,,,स्क्रिप्टिंग का कांट्रेक्ट ,,!! " 

   -" स्क्रिप्टिंग का कांट्रेक्ट ,,?? ,,,यानि अब तुम कहानी कहने की जगह स्क्रिप्टिंग करने लगे ,,?? ,,अरे वाह,,!,,क्या तुम स्क्रिप्ट लिखोगे ,,??" 

    --" नहीं ,,!,,मैं लिखना तो जानता नहीं ,, लेकिन जो मैं बोलता हूँ।  लोग उसे ही लिखना शुरू कर देते हैं ,,।"

   -" तो तुम सरेआम बोलते ही क्यों हो ,,?? " 

     --" कहा न ,,' कांट्रेक्ट ',,!! ,,मुझे कांट्रेक्ट मिल गया था ,,।। कांट्रेक्ट ईमानदारी से पूरा करना जरूरी होता है ,,!" 

   -" अच्छा तो किसने दिया यह कांट्रेक्ट ,,??" 

   -" एक प्रोड्यूसर ने ,,!"

    --" प्रोड्यूसर ने ,,?? ,,कौन है यह दिलदार प्रोड्यूसर ,,??"

       --" वहः प्रोड्यूसर है ,,,दिलदार नहीं ,,। ,,दिलदारी और प्रोड्यूसरी ,, नदी के दो जुदा जुदा पाटों मि तरह  होते है ,,"

       -" चलो ठीक है ,, ! ,,मैं भी तो जानूं उस प्रोड्यूसर का   नाम ,,!! "

     - " नाम में क्या रखा है ,,,हाँ मैं उसके काम के बारे में बता सकता हूँ । "

--" ,चलो यही सही,,! ,,भला क्या करता है तुम्हारा यह प्रोड्यूसर,,?" 

--" करता नहीं ,,करती है कहो,,! ,,वह एक औरत है ,,!" 

- " तुम एक औरत के लिए काम करने लगे ,,?? ,,अरे तोते,,!,,तुम तो औरतों के धुर विरोधी रहे हो ,, ।,,उसकी बेवफाई की हज़ारों कहानियां ,,इसी डाल पर बैठ कर तूने मुझसे कही ,,! ,,फिरभी औरतों के लिए काम करने पहुंच गये,,??" 

- " मैं खुद नहीं गया ,,उसने मुझे खबर  भिजवाई थी ,,कि वहः औरतों की बेवफाई पर सीरियल बना रही है ,,पूरे सीरियल में औरतों का करेक्टर ' विलेन ' का ही रहेगा ,,।"

-"  छी छी,,!,,एक औरत हो कर औरतों पर ही कीचड़ उछालती है वो,,?,,क्या हमजात औरतों के लिए कोई हमदर्दी नहीं उसके दिल में ,,?" 

-" दिल,,?,,मैनें पहले ही कहा ,,दिल है ही कहाँ उसके पास ,,? ,,वह तो प्रोड्यूसर है ,,दिलदार नहीं ,,!" 

  -" बहुत खूब,,!  ,,तुम बाज नहीं आये तोते,,!!, औरतों की बेवफाई को दुनिया में दिखाने के लिए अब सीरियलों में घुस गये,,? ,,अभी तक तो डाल से ही टर्राते थे ,,!" 

-" मैनें कहा न ,,मैं खुद नहीँ गया था वहां,,--मुझे बुलाया गया था ,,!"

-" क्या फर्क पड़ता है ,,,तुम तोते होते ही ऐसे हो ,,। ,,औरतें जरा सा दाना डाल दें तो जहन्नुम में भी पहुंच जाओगे,,,और फिर तमाचा पड़ जाए तो लौट कर औरतों की बेवफाई पर किस्से गढ़ कर सुनाने लगोगे,,।,,,मैं जानती थी,,,।,,,तुमसे यही उम्मीद थी । ,,"

-" तुम गलत समझ रही हो मैना ,,!,,मैं,, वैसा तोता नहीं हूँ ,,! "

 -" ठीक है ,,! ,,तो वहां क्या झखमारते रहे ,,बतलाओ,,!" 

  -" वहां उन्होंने मुझे एक एसी होटल   रूम में रखा । फिर सोने का पिंजरा भी दिया ,,,जिसमें एक खुला हैंगर भी था । उन्होंने कहा ,,' मैं जैसे चाहूं वैसे रहूँ,, उन्हें कोई हर्ज नहीं ,,!" 

-" अच्छा तो फिर,,? " 

  -" फिर पहले मेरी खातिरदारी हुई,,! " 

   -" खातिरदारी ,,? ,,कैसी खातिरदारी,,??" 

  -" एक आदमी चांदी की कटोरी में लाल अनार में दाने भर कर लाया ,,मेरा स्वादिष्ट भोजन ,,!,,वर्क लगा अमरूद,,! ,,मीठी मिर्ची ,,,वगैरह,,! " 

  -" मीठी मिर्ची ,,?? ,,अरे तोते ,,!,,क्या तेरी अक्ल फिर गई है ,,?? ,,मिर्च कहीं मीठी होती है ,,???" 

 --" पता नहीं,,, उन्होंने कहा ,,मिर्च  की  नई प्रजाति है,,। ,,शक्कर की तरह मीठी,,,,देखने में पूरी लाल लाल मिर्च ,,विदेशी है ,,!" 

  -"  बहुत खूब ,,! ,,अब तुम कहोगे की अनार के दानों का स्वाद मिर्च की तरह तीखा था ,,,क्यों,,?? " 

    -" बिल्कुल सही ,,",,-तोता चोंक उठा --,," तुम्हें कैसे पता ,,?? ,,तुम तो अनार खाती नहीं ,,?" 

 -" तुम्हारी इस अफीमी कहानी से ,,!,,"

 -"  अरे नहीं ,,! ,,यह कहानी नहीं ,,हकीकत थी ,,,' मैना जी ',,!"-- तोते ने अपनी बात का बज़न बढाने के लिए ,,मैना को आदर का चारा डालते हुए कहा  --" आप विश्वास करें ,,!" 

   - " ये तुम से आप पर कैसे पहुंच गये तोते,,?? ,,-- मैना झल्ला उठी  --" अपनी औकात में रहो ,,!,,,,लखनवी नज़ाकत  सिर्फ नवाबों के लिए होती है ,, आम लोगों के लिए नहीं ,,!,,याद रखो की तुम एक तोते हो ,,नाचीज़ तोते,,! ,,तुम्हारे कई पुरखों को नवाब  अपने पिंजरों में पालते थे ,,और गिफ्ट में अपनी हीराजान को दे आते थे ,,कोठों पर फुदकने के लिए ,,! " 

- " गलती हुई मोहतरमा ,,! ,,- तोते ने अपने पंख उठाकर कानों से लगाते हुए कहा - " लेकिन यकीन करें ,,मैं सही बोल रहा हूँ ,,! "

  -" चलो ठीक है यही सही ,,कि तुमने मीठी मिर्च और चटपटे अनार खाये ,, और क्या किया ,,??" 

   -" उस मायानगरी का नज़ारा अजीब था मैना ,,!,,मैनें पानी मांगा ,,तो उन्होंने मेरे सामने चमचमाते पतले कांच के प्याले में  लाल लाल शराब रख  दी । " 

   -" शराब ,,??,, - मैना ने अपनी नाक पर पंजा रख लिया । मुंह सिकोड़ कर बोली - " पानी मे बदले शराब ,,?? ,,यह  क्या  तमाशा था वहां ,,?? " 

  -" मैनें भी यही कहा ,,-' क्या तमाशा है ,,??  ,,मैं पानी मांग रहा हूँ ,,और आप शराब परोस रहे हैं ,,?? ,,पानी नहीं है क्या आपके पास ,,?? " 

-" बिल्कुल सही ,,!,,पहलीबार तुम्हारी अक्ल पर गुरूर करने का जी चाह रहा है ।,,,,तोते,,!,,तुमने सही कहा ,,लेकिन फिर उन्होंने  क्या कहा ,,?? " 

-" उन्होंने कहा -' पानी,??,,,हमारा पानी तो कब का उत्तर चुका है ,,हम तो बिना पानी के हैं ,,यही शराब है जो आप को नज़र है ,,!" 

  -" तो फिर,,? ,,फिर क्या कहा तुमने ,,?? " 

  -" मैनें प्याले की तरफ से नज़रें फेर ली ।,,मैनें कहा की मैं पानी पीता हूँ ,,,शराब नहीं पीता ,,।"

 -" तो फिर,,?,,फिर क्या हुआ ,,? ,,"

  -वे हंसने लगे । उनमें से एक मशहूर शायर था । मैनें पहचान लिया । उसकी शायरी और तरन्नुम , आज़ादी के पहले हर जुबान पर रहते थे । वह शायर बोला  - ' शराब में भी ' आब ' है ।,,आप पी कर देखें ,,,आपकी आब की जरूरत इसी से पूरी हो जाएगी । ',,,!"

   दूसरा एक कवि था । वह भी चहकने लगा ।  बोला ,,-' शब में जब आब घुल जाती है तो शबाब हो जाती है ।,,आब इस तरह वहां भी है ,,समझे तोतेज़ान,,! " 

 -"  हे भगवान,,!! ,,,तुम कहाँ फंस गये  थे तोते ,,?? ,,कहां पहुंच गये बेवकूफी में ,,!" 

  -" मैं भी यही सोच कर खुद को कोसने लगा ,,मुझे लगा ,,ये शायर,,ये कवि,,' आब ' को शराब ,  शबाब , कबाब में ढूंढ रहे हैं जबकि आब तो नदियों , समुद्र, तालाबों में बिखरा पड़ा है ,,। क्या इनकी सोच इतनी तंग हो गयी है कि आब की  पहचान भूल गए हैं ,,? ,,ये क्या लिखेंगें,,?,,क्या करेंगें,,??,,उस दुनिया के लिए ,, जो पूरी दुनिया के लिए कुछ दिखाने लायक चीजें बना रही है ,,?? ,,"

  -" बिल्कुल सही,,! ,,तुमने उन्हें फटकारा नहीं,,??" 

 -" में उन्हें फटकारने जा ही रहा था कि ' वो ' आ गई ,,!"

  -" वो कौन ,,,?" 

 - "  वही प्रोड्यूसर,,!,,उसे देखते ही सब उसके पैरों पर बिछ गये । वहः प्रोड्यूसर हाथ में एक ,,' कोड़ा ' लिए थी ,,। कोड़े की ' मूठ ' ,,सोने की थी और रस्सी हज़ार हज़ार के नोटों को बट कर बनाई गई थी । आते ही उसने कोड़ा फटकारा,,। " 

  -" तो तुम उन्हें फटकार नहीं पाए,,??" 

  -" अरे मैं क्या फटकारता ,,?? ,,कोड़े की फटकार ही इतनी तेज थी कि उसमें  मेरी टॉय टांय कौन सुनता ,,?? " 

 -" फिर,,?,,फिर,,?? 

 -" उसने आते ही सबसे पहले सबको घूरा,,फिर खिल खिला कर हंसी,,!" 

    -" हंसने लगी,,,बदजात,,?? " - मैना ने घृणा से मुंह सिकोड़ा ।

   -" हां। वो हँसी,, फिर बोली ,,--' अच्छा तो आप ही हैं वो  मशहूर हीरामन तोता जी ,,? ,,जिनके सुनाए किस्से ,' किस्सा ए ,तोता मैना ' किताब में दर्ज हैं ,,? " 

     -" अच्छा,,?,,पहचान गई तुम्हें ,,?  ,वैसे तोतों की शक्लें तो एक जैसी ही होती है ,,कितना मुश्किल है किसी तोते को पहचानना ,,? "

  -" हाँ,, में भी कहूँ ,,कैसे पहचान गयी ,,जबकि मेरे गले में कोई पट्टा नहीं , मेरे पंख भी कतरे हुए नहीं थे ,,फिर भी पहचान गयी कि मैं ही हीरामन तोता हूँ ,,!" 

     -"  बहुत होशियार थी ,,! "

    -" हाँ,, बहुत होशियार थी ,,फिर बोली ,,- ' माया नगरी में आपका स्वागत है ।यहां राइटर्स की कमी है ,,आप हमारी जरूरत पूरी करें ,,हम आपकी करेंगे,!"

- " तुमने क्या कहा ,,?" 

  -" मैनें कहा कि आप मेरी जरूरतें पूरी नहीं कर सकतीं ,, मुझे एक खुली डाल चाहिए,,।,,लाल तीखी मिर्च,,। ,,और पेड़ पर पके अनार के दानों के साथ मटके का पानी।,,

जो आपके यहाँ नही है ,,,अलबत्ता ,,हुकुम करें,,,।ऐन आपके लिए क्या कर सकता हूँ ,,?

-" फिर,,?,,फिर क्या हुआ ,,?? 

  -" मेरी बात सुन कर उसमें चेहरे पर थोड़ी शिकन आ गयी । फिर सम्हलकर बोली ,,-' हम आपके लिए पेड़ का एक सैट लगवा देंगें,, अनार तो बाज़ार में मिल जाएंगे,,भले ही वे पके हुए नहीं मिलेंगे , इंजेक्शन से पकाए हुए मिलेंगे,,। मेरे यहाँ सैट बनाने वाला एक बूढ़ा कारीगर रोटी के साथ सूखी मिर्च खाता है,,। मिर्च उससे मांग ली जाएगी और पानी डिस्टिल्ड वाटर की बोतलों से मिल जाएगा । कहिए,,कि  आप  अब हमारे लिए काम करेंगें  कि नहीं ,,? ",,,',,,- इतना कह कर आदतन उसने अपना कोड़ा फटकारा । ,,,,कोड़े की आवाज़ इतनी खतरनाक थी कि कान फट जाएं ,,। मैं बेहोश होते होते बचा ।

-" बड़ी मायावी थी ,,,,,बच्चों की कहानियों की डायन की तरह,,,,क्या उसके कुछ दांत बाहर थे,,?? " 

-" पूरी तरह बाहर नहीं थे लेकिन ऊपरी दांत कुछ उठे हुए थे ,।"

-" और उम्र ,,?? " 

- " मायानगरी में उम्र नहीं पहचानी जा सकती मैना,,! ,,वहां सभी के चेहरे रात में चमकते हैं ,,जवान लगते हैं ,,सुबह वे सभी चेहरे भयावह हो जाते हैं ,,, उमरदार हो जाते हैं । इसलिए वे चेहरे अक्सर बड़े बड़े बंगलों में छुप कर रहते हैं । सिर्फ कैमरे के सामने आते हैं ,,पूरे मेकप के साथ ,,! "

  -" हे भगवान ,,!! ,,  आगे क्या हुआ,,?? " 

   -" मैनें कहा - ' मुझे मंजूर है ,,!'

  -" क्या कहा तुमने,,?,,,मंजूर है ,,??,,,उन शायरों और कवियों का हश्र देख कर भी तुमने कहा कि तुम्हें मंजूर है ,,???

- "  हाँ,,,!,,मैनें यही कहा कि मुझे मंजूर है,,!,,लेकिन मैं काम करने से पहले किसी की इजाजत लेना चाहूंगा ।  समझ लीजिए,,अगर इजाजत नहीं मिली  तो मैं काम नहीं करूंगा । "

-" तब उस प्रोड्यूसर ने क्या कहा तुझसे,,? " 

-" उसने कहा - ' यह कैसा इकरार है ,,? ,,इसमें तो इनकार झलकता है ,,! "

-" फिर,,? "

- " मैनें जवाब दिया - ' मेरा इकरार इसी तरह का है ,,,,लेमिन अब पहले यह जान लूं ,,मुझे आप कबसे जानती हैं ,,? " 

 -" जरूर,,!,,"-- उसने कहा - ' आप महान किस्सागो हीरामन ही हैं ,,और यह बात अब किसी से छुपी नहीं है ,,। आप पेड़ पर बैठ कर जो कहानी कहते थे उसे एक बहेलिए ने सुना ,,जो आपको पकड़ने गया था । लेकिन आपकी कहानियों को सुन कर उसका मन फिर गया ,,,,। उसने वे सभी कहानियां पेड़ के नीचे बैठ कर लिख डाली । " 

- " अच्छा ,,,???" -- मुझे इस रहस्योद्घाटन पर आश्चर्य हुआ । मुझे कंपकंपी आ गयी ,,,भगवान ने बचाया ,,।

-" उन कहानियों को लिख कर वहः एक प्रकाशक के पास गया । ,,जो अकबर- बीरबल के चुटकुले छाप कर किताब बना कर बेचता था ।  ,,'

-" अरे वाह ,,!"

-" वहः प्रकाशक ही मेरे महान पिता थे । उन्होंने आपके किस्सों को छापा ,,,,,' किस्सा ऐ तोतामैना ,,' ,,जो खूब खूब बिकी ,,!" 

-" फिर,,",,!

- " फिर उन किस्सों को आधार बना कर  मैनें यहां नए नए सीरियल में उन पात्रों को डाला  ,,सिर्फ बैकग्राउंड बदल दिया ,,!'

-" जैसे ,,

-" जैसे ,,बेवफा औरत,,कभी बहू, ,,तो कभी सास ,,। ,,कभी बीबी तो कभी प्रेमिका,,। ,,कभी दूसरी बीबी ,,तो,,कभी तीसरी बीबी,,।,,कभी माँ तो कभी बेटी,,,। ,,,कभी ननद तो कभी भाभी,,  वगैरह वगैरह,,।लेकिन रही वो वेबफा ही ,,उन किस्सों की तरह ,,। " 

-" फिर इससे क्या मिला आपको,,? " 

-" बेशुमार दौलत ,,और नाम ,,। ,,उसी दौलत से मैनें ये कोड़ा बनवाया है ,,सुनेंगें इसकी आवाज़ ,,??" 

- " नहीं नहीं ,,,रहने दें ,,। "-मैनें डर से घिघियाकर कहा ,,। 

- " आपके पास तो बहुत राइटर्स है,,आप उन्ही की कहानियों को बदलकर क्यों नहीं नई कहानी बना लेतीं ,,?

 वहः हँसी,,। बोली - ' आप क्या समझते हैं ,,? क्या मैनें ऐसा नहीं किया होगा ,,? ,,मैनें यही किया ,,! ,,और कई सालों से एकछत्र इस इंडस्ट्री पर राज कर रही हूँ ,,लेकिन पिछले दिनों से अब लोग समझने लगे हैं ,,।मेरे सीरियल फ्लॉप हो रहे हैं ,,,। मुझे कुछ  नई। कहानियां चाहिए ,,

  --"  बेवफाई में कुछ नया नहीं होता ,,'-मैनें कहा , ' ,जैसा कि मैनें  कहा है कि मैं आपका प्रस्ताव मंजूर करता हूँ ,लेकिन मैनें यह भी कहा है कि मैं किसी की इजाजत लेना चाहूंगा ,,।" 

-" भला किसकी इजाजत लेना चाहते हैं ,,आप,,?,,क्या आप कहीं प्रतिबंधित हैं ,,?  " 

-" नहीं,,!,,में प्रतिबंधित नहीं,,लेकिन ' प्रतिबध्द ' हूँ । मैं कहानी अपनी विदुषी प्रतिद्वंदी मैना को सुनाता था । किसी और को सुनाने से पहले मुझे उसकी इजाजत लेनी पड़ेगी । ,,मुझे  जाने दीजिए,,,मैं उससे पूछ कर लौट आऊंगा ,,!" 

-" और अगर उसने इजाजत नहीं दी तो ,,? " 

-"  नहीं ,,,वो आपके जैसी नहीं है । आप होठों को लिपिस्टिक से पोत कर लाल करती हैं ,,,उसकी चोंच ,,प्राकृतिक है । उसके बोल भले ही पुरुषों के लिए आलोचनात्मक रहे हों ,,लेकिन दिल से वहः उदार है । ,,,और फिर अगर उसने मना किया तो फिर मैं किसी  भी हालत में आपको कहानी नहीं सुना सकता ,,! ,,फिर मैनें एडवांस भी तो नहीं लिया आपसे,," 

वहः हँसी,,। ,,बोली -" अभी आप औरतों को नहीं जानते ,,जाइये मैना से पूछ आइए ,,मैं आपको छोड़ती हूँ । "

           इतना कह कर तोता चुप हो गया । फिर मैना की ओर मुड़ कर बोला --" में वहां से रात भर उड़ कर यहां आ गया ,, अब कहो मैना,,,  तुम्हें छोड़ कर  मैं वहां जाऊं या नहीं ,,??" 

   मैना थोड़ी देर चुप रही । फिर उसका गला भर आया ,,आंखें भींगने लगीं । वहः आंसू दबाते हुए बोली ,,- 

-"  तोते ,,! मेरा तुमसे कोई कॉन्ट्रैक्ट नहीं । हम लोग जो कहानियां कहते थे ,,वे मन बहलाने के लिए थीं । दिखाने के लिए नहीं ।  तुम अपने मन के राजा हो,,। तुम कहीं भी जा सकते हो । लेकिन हो सके ,,तो साल में एकबार जरूर अपने पुराने पेड़ पर लौटना । यहां में रोज तुम्हारी बाट जोहूँगी । 

       रही बात अपनी कहानियों की,,, तो सच कहूँ,,न मर्द बेवफा होता है ,और ,न औरत । वफ़ा एक कीमती रत्न है,,जो कहीं भी देखने को मिल जाएगी । तुम देखो - युधिष्ठर का वफादार कुत्ता ,,युधिष्ठर के साथ साथ पहाड़ के अंतिम छोर तक गया । ,,,सावित्री अपने पति के प्राण यमराज से छीन लाई ,,। ,,मजनू अपनी प्रेमिका के प्रेम में पागल हो गया । ये सब वफ़ा की पराकाष्ठा है । वफ़ा ,,प्यार से उपजती है ।,,प्यार मनुष्यता का अनमोल गहना है । यह सभी पहन भी सकते हैं  और नहीं भी । वफ़ा बिकाऊ नहीं है ,,,न कहानियों में ,,न कहीं और ,,। ,,अपनी उस प्रोड्यूसर से कहना ,,,,की अपनी कहानियों में वहः ' प्यार ' दिखाए,,बाकी सब कुछ अपने आप दिख जाएगा ,,! " 

       इतना कह कर मैना ,  डबडबाई आंखों में भर आईं बूंदों को तोते से छिपाने के लिए मुंह मोड़ कर दूसरी ओर क्षितिज में देखने लगी ।

       तोता अपलक थोड़ी देर मैना को ताकता रहा ।  फिर उसने उड़ान भरने के लिए खोले अपने पंख चुपचाप वापिस समेट लिए । 

     थोड़ी देर चुप रह कर ,,,खिलखिला कर उसने अपनी हँसी बिखेरी,,,और बोला --

       -" आ गई न धोखे ने मैना ,,??,,,अच्छा ,,अब यह  कह की कैसी रही मेरी आज की यह कहानी,,??" 


****


-'सभाजीत' 


55 वर्ष पूर्व का नौगावँ 

,,,और 

   आज की सोच ,,।

* ****


  बड़े मंदिर की ओर मुड़ते ही , कार्नर पर एक चर्च था । लोग उसे छोटा चर्च कहते थे । बड़ा चर्च शायद नौगावँ के बाहरी बस्ती में ,, एमईएस क्षेत्र में था जो शायद ब्रिटिश काल में  अंग्रेजों के प्रार्थना  हेतु बनाया गया होगा ।


  इतवार को जब हम लोग , बैट बल्ला खेलने पोस्ट आफिस के खुले मैदान में जाते तो चर्च में अंदर लंबी बेंचों पर बैठे 5 - 10 लोग , कुछ प्रवचन सुनते दिखते । कभी वे सामूहिक स्वर में प्रार्थना करते दिखते । अंदर पीछे की दीवार पर एक लकड़ी का क्रॉस , ( क्रूस ) लगा दिखता जिसे देख हम समझते कि यह कोई शुभ चिन्ह है । 


      चर्च के ही परिसर में एक घर था जिसमें पादरी रहते थे ,,हम लोग उनके घर के बाहर लगे बड़े पोस्टर भी देखते  जिसमें लिखा रहता था कि ईश्वर ने दुनिया के भले के लिए अपना पुत्र ही भेज दिया । हम उस उम्र में नहीं जानते थे कि ईश्वर का पुत्र कौन था और उसने आकर दुनिया का क्या भला किया । लेकिन इतना जरूर जानते थे कि यह ईसाइयों का मंदिर है जिसमें आ कर वे पूजा करते हैं ।  यह भी कौतूहल रहता था कि आखिर अपने धार्मिक मंदिर में बैठ कर वे एक आदमी का क्या भाषण सुनते हैं ,,? 


      ईसाई क्या है , यह मुझे तब बिल्कुल नहीं मालूम था । कहीं पोस्टरों में लिखा देखा था ,,' हिन्दू मुस्लिम , सिख , ईसाई ,,हम सब हैं भाई भाई ,,' ,,,,'  तो यह समझ आता कि ये चारों बिल्कुल अलग लोग हैं जिन्हें भाई समझने , मानने की बात प्रचारित की जा रही है ,,। दूसरे,,यह सवाल भी मन में उठता ,,की अगर ये भाई भाई हैं तो बताने की क्या जरूरत,,?? ,,वे तो भाई भाई जैसे रहते हुए दिखने चाहिए । 


     संयोग से मेरी कक्षा में कोई इसे लड़का नहीं था जो दोस्त बनता और में उससे अपनी जिज्ञासाएं दूर करता । किन्तु एक व्यक्ति को मैं जरूर जानता था जिनका नाम मसीह था । मसीह शब्द ईसा मसीह से ही जुड़ा होने के कारण , में सोचता कि यह धर्मात्मा होगा ,, किन्तु अधिकतर लोगों के झगड़ों में ही उसका नाम उछलते देखता तो समझ गया था कि  नाम से काम का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं । 


      कुछ दिनों बाद जब एक युवक मेरा मित्र बना ,,' प्रदीप राव ' तो बहुत दिनों तक तो मैं यह जान ही नहीं पाया कि वो  ईसाई है । कारण की न तो उसका नाम ब्रेंग्रेजा था , न थॉमस , न मसीह । 

 उल्टे जब मुझे यह पता चला कि वे ईसाई हैं तो उन्होंने मुझे लोगों को यह बताने को मना किया कि लोग यह बात जानें । उन्होंने कहा कि मैं भारतीय हूँ ,  पूर्वज हिंदू परिवार से थे तो जो मेरी असली पहचान है , भारतीय उपनामों की , वही मेंटेन रहने दें । में कोई विदेशी नहीं ,, न विदेशियों की संतान हूँ ,,तो भले ही धर्म से ईसाई हूँ पर पहचान से भारतीय नाम से ही पुकारा जाना पसंद करूंगा ।

     वे मुझे अपने घर ले जाने से परहेज करते थे  । लेकिन एक बार जब उन्हें भीषण बुखार चढ़ा तो मैं उन्हें देखने उनके घर पहुंच ही गया । उनके घर ज्ञे पर पता चला कि वे एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो भारतीय हिन्दू नाम से पुकारा जाना पसंद करते थे जबकि उनके सभी सगे सम्बन्धी अपने क्रिश्चियन नाम रख चुके थे ।


     प्रदीप राव चर्च नहीं जाते थे यह बात भी उन्होंने मुझे बताई । 

ऐसा नहीं था कि वे धर्म नहीं मानते थे , लेकिन वे कहते कि ईश्वर सब जगह है । वे संगीत को अपना लक्ष्य मानते और हर इतवार ,,सुबह साइकिल लिए मेरे घर आजाते ,, संगीत की कोई नई कम्पोजीशन सुनने और उस पर गीत रचने । होली पर वे जरूर गले मिलते , गुजिया पपडिया खाते , टीका लगवाते ।


     अच्छे मित्र होने के बावजूद उन्होंने मुझे कभी चर्च आने के लिए आमंत्रित  नहीं किया । एक बार मैनें आग्रह किया तो वे बोले कि उन्हें ही वे व्याख्यान समझ नहीं आते तो मैं  वहां जा कर क्या      समझूंगा ।


     उनदिनों बड़े दिन का मतलब मुझे मेरी माताजी ने यूँ समझाया था कि आज से दिन थोड़ा थोड़ा करकेँ बड़े होने लगेंगे ।  उन दिनों न कोई लिख कर , न बोल कर , किसी त्योहार की शुभकामनाएं व्यक्त करते , बल्कि एक दूसरे के यहां जा कर खा पी आते । केक में अंडा होने के कारण , प्रदीप मुझे कभी केक ऑफर नहीं करते थे । 


    बाद में ,, बालाघाट में एक मित्र  बने ,, विजय थॉमस । वे भी बहुत मधुर बांसुरी बजाते थे और टीचर थे । नाम से विजय और उपनाम से थॉमस । तो मैं सहज ही जान गया कि वे क्रिश्चियन हैं । उनके घर ज्ञे पर वे अपनी पत्नी से कहते कि इन्हें वहः नाश्ता देना जिसमें अंडा न हो । यह ब्राह्मण हैं ,,इनका धर्म न बिगड़े इसका ध्यान रखना । 


     नॉकरी में कोई साथी ऐसा नहीं मिला जिसके बीच रह कर मैं क्रिश्चियन धर्म को समझ सकता,, किन्तु सरकारी काम से जब में केरल गया तो मुझे वहां पग पग पर चर्च मील । इन चर्चों में हिन्दू धर्म की पूजा की तरह मूर्तियां लगीं देखी , चर्च के गुम्बद भी मंदिरों के शिल्प में देखे , जो बाहर से मंदिर होने का भृम पैदा करते थे ।  अंदर तो मूर्तियों की लंबी दीर्घा देखी ,,जिसमें यीशु की जीवन कथा की झांकी थी । ये झांकी उससे ज्यादा सुंदर थी जो हम लोग कभी जन्माष्टमी पर हर घर में बनी देखते थे । मुझे यह समझ में आया कि यहां लोगों ने हिन्दू मंदिरों का शिल्प , मूर्तियां , और उपासना पद्धति अपना ली है सिर्फ हिन्दू देवता को छोड़ कर , फलतः मेरल का 70 प्रतिशत से अधिक समाज क्रिश्चियन धर्म अपना चुका है ।


    कालांतर में कॉलेज में पढ़ने गईं मेरी बेटियों ने क्रिसमिस दिवस पर चर्च जाने की इच्छा जाहिर की तो मुझे आश्चर्य हुआ । ये बच्चे मंदिर जाने से सकुचाते थे तो चर्च में उन्हें ऐसा क्या आनन्द आ रहा था कि वे वहां ज्ञे की इच्छा व्यक्त कर रहे थे । बच्चों ने बताया कि वहां बहुत अच्छी सजावट है ,लोग भी आधुनिक वस्त्र पहन कर आते हैं । वहां का वातावरण प्रसन्नता का और व्यावहारिक है । 


    कल मेरी बहू , पुत्र , बेटी , मेरे पौत्र को ले कर फिर चर्च गये । ऐसा लगा कि वहां उन्हें पिकनिक जैसा कोई आकर्षण दिख रहा है इसलिए गये हैं ।


  बाद में लौट कर पुत्र ने बताया कि वहां भारी भीड़ थी । चर्च में क्रिश्चियन्स के अलावा अधिकतम हिन्दू लोग दिखे जो आनन्द मनाने आये । वहां की रौनक आकर्षक थी । ऐसी तो अपने त्योहारों में भी देखने को नहीं मिलती ।


     मुझे पुत्र की इस बात ने सोचने को मजबूर कर दिया कि विगत वर्षों में हमने क्या खोया है और क्या पाया है । अब होली में वहः उल्लास , रक्षा बंधन में वह आत्मिक अनुभूति, जन्माष्टमी की वे  आकर्षक झांकिया , दीपावली की देर रात की वहः गूंज , दशहरे का रावण दहन का आकर्षण ,  संक्रांति का वहः नदियों पर लगने वाला मेला,,कहां खो गया ,,जिसमें हमारे बच्चों को आकर्षण नहीं दिखता ।


    क्या एक संस्कृति,,दूसरी संस्कृति का रूप ले रही है ,,? और यदि हां ,,तो एक समाज अपना बहुत कुछ खो नहीं रहा है ,,?? 


--' सभाजीत '


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टॉयलिट:एक प्रेमकथा  भुक्तभोगी ।


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कल एक टीवी चैनल पर , अक्षयकुमार और भूमि पेडनेकर द्वारा अभिनीति , सिद्धार्थ सिंह द्वारा लिखित , और श्री नारायण सिंह द्वारा निर्देशित फिल्म ' टॉयलिट : एक प्रेम कथा " देखने को मिली ।  इस फ़िल्म को देख कर लगा कि कुछ लोग अभी भी हैं जो " सार्थक सिनेमा " की लीक पर डटे हुए हैं और समाज की तथा देश की स्वाभाविक सामयिक   ज्वलंत समस्याओं को फिल्मों की विषयवस्तु बना कर , दर्शकों को समस्याओं के हल ढूंढने के लिए जाग्रत  कर रहे हैं । फ़िल्म देख कर मुझे स्वयम पर भी क्षोभ हुआ कि इस फ़िल्म को पूर्व में देखने से में कैसे वंचित रह गया । 

फ़िल्म की कथा और पटकथा ने मुझे अनायास ही  65 वर्ष पूर्व  उत्तरप्रदेश के अपने ही गावँ " चिरगावँ '  की यादों में पहुंचा दिया जहां मेरा बालमन बहुत से दृश्य अपनी नन्ही  आंखों में सँजोता रहता था । यह गावँ गलियों में बसा गावँ है और देश की साहित्यिक गरिमा के लिए विख्यात है । गावँ के ठीक बीचों बीच , पहाड़ी पर बना एक ध्वस्त किला था जिस पर झाड़ झंखाडों ने अपना साम्राज्य जमा रखा था । किले की पहाड़ी पर चढ़ने के रास्ते में , अंतिम घर हमारा था ,,जिस के चबूतरे पर आकर हम लोग सुबह सुबह मुंह धोते । 

         चिरगावँ में जिस  भी साधारण  घर में  धूम धाम से शादी होती , उसकी नई नवेली बहु  दूसरी सुबह , घूंघट डाले अपनी ननदों के साथ लोटा लिए हमारे घर के सामने से जरूर गुजरती । कारण ,,कि,, गावँ में कुछ बड़े घरों को छोड़ कर किसी भी घर में शौचालय नहीं होता था और पूरा गावँ शौच के लिए , किसी युग के ठाट बाट के लिए बने किले के खंडहरों में , झाड़ियों के बीच शौच करने के लिए इसी मार्ग से पहाड़ी पर चढ़ते  थे । कई बार हमारे घर की बड़ी बूढ़ी दादी चबूतरे पर खड़ी हो कर पूछ लेती की नई नवेली बहू किस घर की , किस लड़के की व्याहता है और घर बैठे ही  उन्हें  न सिर्फ  उसका पूरा परिचय की वहः किस गावँ से आई है ,  मिल जाता बल्कि नई बहू का   प्रणाम भी मिल जाता और वे उसे आषीश देतीं । 

         घरों में शौचालय न होने का कारण भी यही था कि छुआछूत के कारण मेहतर को घर में प्रवेश वर्जित था और वहः पीछे बने  शौचालय में सफाई हेतु जा नहीं सकता था और घर के दरवाजे , चबूतरे पर शौचालय बनाना ,,शुद्धि और धर्म परम्परा के विरुद्ध था । दूसरे,,बस्ती के मकान भी छोटे होते थे,,जहां रहने के लिए कुछ  गिने चुने कमरे ही लोग बनवाना , प्राथमिक आवश्यकता समझते थे । नगर के राजा का  खंडहर हुआ किला जब जनता का सार्वजनिक शौचालय बन चुका था तो कोई अपने घर में भिष्टा को जगह क्यों दे ,,?? 

           हमारे घर की बगल में एक बड़ी बगिया थी ,,जिसके पिछले भाग में हमारे ताऊजी ने बड़ा शौचालय बनवा दिया था । मेहतरानी आकर सुबह पुकार लगाती और हम लोग बगिया की फटकिया इस तरह बचकर खोल देते की कहीं मेहतरानी की छाया भी हम पर न पड़ जाए । वहः शौचालय साफ करके बगिया के रास्ते ही बाहर चली जाती ।  यद्यपि हमारे घर में शौचालय था किंतु फिर भी हम  बच्चे गावँ की परंपरा निभाने कभी कभी किले पर चढ़ जाते जहां झाड़ियां ही आड़ होती थी और खांसी वर्जना ।


          पता नहीं क्यों ,,,तब हमारे मन में इस परंपरा के विरुद्ध कोई खयाल क्यों नहीं उठा ,,जबकि वास्तव में यह नगर के मध्य में पनपती  बहुत बड़ी गंदगी ही थी जिसकी सफाई कभी नहीं होती थी और जिसे किले पर ही घूमते सुअर ही अंजाम देते थे ।


            बाद में नौगावँ आने पर हमने देखा कि हर घर में शौचालय थे और सफाई की व्यवस्था भी म्युनिस्पिल कारपोरेशन की थी । नौगावँ चूंकि अंग्रेजों द्वारा बसाई गई बस्ती थी इसलिए एक अंतर जरूर समझ ने आया कि आज़ादी के बाद भी भारत के अविकसित गावों में सफाई और शौच व्यवस्था पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था । ,,अलबत्ता ,,गरीब अमीर , मजदूर पूंजीपति , हिन्दू मुस्लिम , ही वे मुद्दे थे जिसका छोर पकड़ कर राजनैतिक पार्टियां समाज सेवा कर सकती थी । 


           नॉकरी के दौरान ,,मेरी पोस्टिंग अधिकतम नगरीय क्षेत्र में रही । किन्तु बालाघाट प्रवास के अंतिम दौर में मेरी पोस्टिंग , दो वर्षों के कार्यकाल में , एमपी महाराष्ट्र बॉर्डर स्थित वितरण केंद्र ,,' रजेगावँ ' में हो गई । यह निपट छोटा सा गावँ था जहां के घरों में शौचालय थे ही नहीं । गावँ से सट कर एक नदी ' बाघ नदी ' थी जो शौच का साधन थी । पूरे गावँ में तीन घर ही ऐसे थे जिसमें शौचालय थे । जिनमें एक बीड़ी का कारखाना था , एक डॉक्टर का घर था , और एक शिक्षक का घर  । मैनें किसी तरह बीड़ी के कारखाने वालों को पटाया और अपनी व्यवस्था कर ली । 

   किन्तु  मात्र छह माह के बाद ही मेरा विवाह हो गया । 

आम मुझे शौचालय की महत्ता पता चली । जब तक ऐसा घर न मिले जिसमें शौचालय हो  ,,में पत्नी को साथ रखने में असमर्थ था । गावँ के शिक्षक के घर का एक हिस्सा वे किराए पर देते थे किंतु उस समय वहः खाली नहीं था ।  बीड़ी के कारखाने में रोज शौचालय हेतु मेरी नई नवेली पत्नी वहां जाए यह मैं स्वीकार नहीं कर सकता था ।  यद्यपि बालाघाट नगर का एक फ्लैट जो मैनें किराए पर लिया हुआ था मेरे पास था किंतु वहां से प्रतिदिन 20 किलोमीटर का अप डाउन भी सम्भव नहीं था ।


         तो मन मसोस कर , अपनी नियति मांन कर , मैनें पत्नी से तब तक दूर रहने का निर्णय लिया जब तक कि शिक्षक वाला किराए का मकान खाली न हो ,,।


           और जीवन के शुरू में ही मैनें शौचालय के कारण विरह में काट लिए ।


--'सभाजीत '


( क्रमशः )


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टॉयलेट,,एक प्रेमकथा ,,भुक्त भोगी ।


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       आज के युग की बड़ी कशमकश है ,,विवाहोत्तर पति पत्नी में उपजने वाली प्रीति के लिए वांछित   वातावरण का अभाव ।  वस्तुतः वियोग ही गाढ़ी प्रीति का आधार है ,,ऐसा शास्त्रों में वर्णित घटनाओं से सिद्ध होता है । किन्तु आधुनिक समाज में वियोग को श्राप मांन लिया जाता है ,,और आधुनिक पीढी विवाह के बाद तो क्या ,,विवाह से पूर्व भी एक साथ रह कर अपने अंतरंग क्षण साथ साथ बिताने को ही प्रीति की गहनता का आधार मानते हैं । ऐसे में पति के बिना , परम्परागत संयुक्त परिवार में पत्नी बहुत दिनों तक आ कर  रह पाए यह सम्भव नहीं होता और परिवार के  विघटन की नीवं भी यहीं से पड़ती है ।

     

          फिल्मों से  'पिया के घर'  की परिभाषा पढ़ी अधिकांश  लड़कियां यह जानती ही नहीं थीं कि वस्तुतः पिया का कोई घर होता ही नहीं ,,बल्कि  जिस घर में वे राज करने का सपना अपनी आंखों में संजो कर आईं हैं वहः उनके पिया का घर न हो कर , उनके पिया के पिता का , यानी ससुर का घर होता है जहां परम्परागत रीति रिवाज , नियमकायदे , मुंह बाए उसकी बाट जोह रहे होते हैं । एक कच्चे घड़े को , ससुराल के अलाव में तपा कर पक्का बनाने का प्रयास पहले कठोरता से होता है । 

    

       इस क्रिया में घटों में जल भरने की अपेक्षा अक्सर उनमें रिसाव होना स्वभावतः शुरू हो जाता है और फिर आजीवन , पिया कितना भी चाहे , उस घट में अपने ज्ञान का जल भर ही नहीं पाता ।


         संयोग से मुझे ईश्वर ने बुद्धि कुछ ज्यादा ही दे रखी थी तो मैं वियोग के लाभ हानि के दोनों पक्षों से परिचित था । बचपन से , द्रष्टि के माध्यम से , अनुभव बटोरने की कला मुझे आ चुकी थी तो मैं भविष्य के आगत भय के प्रति पहले ही सतर्क होने की कोशिश करने लगा ।


         दिसम्बर 1977 में हुए विवाह के बाद , 10 -12 दिन साथ रह कर में वापिस अकेला रजेगावँ लौट आया । समस्या ज्यों की त्यों थी ,,शौचालय मेरे लिए विलेन का रूप धारण किये खड़ा था । गनीमत यह थी कि पत्नी प्रथम विदा के अंतर्गत  एक दो माह के लिए अपने मायके  लौट गईं थी और मुझे समय मिल गया था कि मैं उचित व्यवस्था वाला घर ले लूं ।


         किन्तु उस गावँ में एक मात्र तीन शौचालयों वाले घरों में एकमात्र शिक्षक का ही घर था जहां में सपत्नीक रह सकता था । इसलिए मैनें शिक्षक को मनाने का प्रयास किया । शिक्षक उसूलों वाले थे । उन्होंने कहा कि जब तक पहला किरायेदार खाली न करे ,,वो मकान नहीं दे सकते ।


        इस उहापोह में पूरे दस माह बीत गये  । न मकान मिला ,,न पत्नी आई । अलबत्ता वे अपने ससुराल में आ कर सास ससुर , ननदों , देवर के भरे पूरे घर में रहने लगीं । चिट्ठियां हमारी प्रीत का सेतु थीं ।  ये चिट्ठियां भी 10 दिनों में आ जा पातीं थीं ।  में अपने पत्रों में उन्हें ,,गुरु पितु मातु की सेवा और उनके महत्व का उपदेश देता और वे सीता का हवाला दे कर वन में भी , किन्हीं भी  परिस्थितियों में पति का साथ  निभाने का धर्म समझातीं ।  इन पत्रों में शिकायत भी होती और मनुहार भी ।  


        विवाह से पूर्व , मेरी पत्नी की बड़ी बहिन , यानि बड़ी साली ने मेरा इंटरव्यू लेते हुए पूछा था कि आप जहां रहते हैं ,,वहां बिजली तो है न ,,??  तो मैनें गर्व से बताया कि मैं विद्युत इंजीनियर हूँ ,,जहां में रहूंगा तो बिजली तो रहेगी ही ,,!' फिर उन्होंने पूछा - और पानी का नल,,?? ' तो मैनें बताया कि बालाघाट जिले का मुख्यालय है ,, विकसित शहर है ,,नगर निगम के नल आते  हैं ,,!! "  उन्होंने आश्वस्त होते हुए फिर कोई अगला सवाल नहीं पूछा था ! उन्होंने कहा ,,' अन्यथा मत लीजिएगा ,,,मेरी लाडली छोटी बहिन शहर में पली बढ़ी है ,,वहः कुएं से पानी नहीं खींच पाती,,और न ही लालटेन में रहने की उसे कोई आदत है । ,,,इसलिए ये सवाल पूछ लिए ,,!"


       लेकिन उन्हें शायद यह पता नहीं था कि देश में ऐसी जगहें भी हैं ,,जहां बिजली तो है ,,और पानी भी ,,लेकिन शौचालय नहीं हैं । और दुर्भाग्य से अब मेरी पोस्टिंग ऐसी ही जगह हो चुकी थी । अब सोच रहा था कि अगर मेरी पत्नी की बड़ी बहिनजी को यह मालूम हुआ तो किस मुंह से जवाब दूंगा ,,??  उनकी लाडली बहिन इन विषम परिस्थितियों में कैसे रहेंगीं ,,??


         स्थिति अनुसार , मेरे पिताजी ने  उन्हें आगे की  पढ़ाई हेतु फॉर्म भरा दिया ताकि वे अपना मन उस ओर लगा लें और रजेगावँ भूल जाएं । वे अनमने मन से उसमें जुट गईं लेकिन रजेगावँ के  अदभुत स्वप्निल संसार  का आकर्षण उनके मन से नहीं छूटा । वे पत्रों में रजेगावँ देखने की मनुहार करने लगी ,,और मैं था कि रजेगावँ में ऐसा घर तलाश रहा था जहां उन्हें ला कर रख सकूं ।


         ऐसी ही स्थितियों में एक पत्र में उनके द्वारा लिखी दो पंक्तियों से मैं विचलित हो गया । पूरे पत्र के अंत में उन्होंने लिखा --' यहां वातावरण ठीक है किंतु   कुछ बातें पत्र में नहीं लिख सकती । थोड़ा लिखा ,,ज्यादा समझना ,,! "


        में सोचने लगा ,,ऐसा क्या है जो नहीं लिखा जा सका ?? और वहः थोड़ा क्या है जिसे मुझे ज्यादा समझना चाहिए ,,??  


    लिहाजा मैनें अपने सीनियर विवाहित मित्रों से सलाह ली । उन्होंने कहा तुम बहुत दिनों से घर  नहीं गये  । तुम्हें अविलम्ब घर जाना चाहिए और उनकी मन की बात समझना चाहिए । रजेगावँ की परिस्थितियों को उन्हें मिल कर बताओ ,,,। सन्देशन खेती ठीक नहीं । 


       तो मैनें आननफानन दो दिन की छुट्टी ली और एक दोस्त की बुलेट मोटर साइकिल लेकर , एक मित्र को सहयात्री बना कर रात के बारह बजे ही चल पड़ा 500 किलोमीटर की नौगावँ यात्रा पर ,,।


         यह यात्रा तो एडवेंचर ही थी  क्योंकि इस यात्रा में भीषण दुर्घटना होते बची और दमोह के आगे  रात 2 बजे ,,बटियागढ़ के पास डाकुओं के चक्कर में आते आते बचे ।


   --' सभाजीत ' 


( क्रमशः )



  




 


शनिवार, 19 दिसंबर 2020

मेरे सपनों के साथी

कुलदीप,,।

स्वप्न दिल में उपजते हैं, आंखों में पनपते हैं  और किसी अपने जैसे साथी के हाथों का सहारा पाकर जीवंत हो उठते हैं । पहले बालाघाट , और फिर लखनादौन से अचानक डेरा उखड़ने से फ़िल्म विधा के  मेरे स्वप्न  धूमिल हो गए ,,किन्तु  खंडित नहीं  हुए । अपने धूमिल स्वप्नों को हृदय में संजोए जब मैं बालाघाट आया तो मेरा स्वरूप बदल चुका था । अब मैं अधिकारियों को चुनोती देने वाला विभागीय यूनियन का  एक जुझारू नेता बन चुका था और कला का रुझान मन के किसी कोने में दब चुका था । अधिकारियों ने मुझे नियंत्रित रखने के लिए सतना का व्यस्ततम औद्योगिक वितरण केंद्र कुलगवां का भार मुझे थमा दिया । यह केंद्र नगर से बाहर, बिरला रॉड पर , पन्नीलाल पावर हाउस के  मेरे सरकारी क्वार्टर  से करीब 4 किलोमीटर दूर  था । अक्सर मैं पैदल ही आफिस चला जाता और रात वापिस घर लौटता ।

           सतना नगर का आज का व्यस्ततम सिमरिया चौक उस समय तक विकसित नहीं हुआ था । हाउसिंग बोर्ड ने इस चौराहे पर कुछ दुकानें बना कर , एक मार्केट की संरचना जरूर की थी , किन्तु उनमें अधिकतम खाली थीं ।  इसी चौराहे पर हाउसिंग बोर्ड द्वारा  बने एक लंबे हॉल में , नव निर्मित ' इंडियन कैफे हाउस ' शाम को जब सज जाता तो यह चौराहा जैसे जीवित ही उठता ।  हाउसिंग बोर्ड की रोड से लगी एक दुकान में  विविध विद्युत सामग्री बिकते देख मैं जब वहां ठिठका तो उस दुकान के युवा मालिक के व्यवहार ने मेरा मन मोह लिया । यह दुकान एक आकर्षक युवक ' किशोर वर्मा ' की थी । पिता सतना सीमेंट वर्क्स में उच्च पद पर थे,,किन्तु पढ़ी लिखी इस नई पीढ़ी के युवाओं के पास , नॉकरी के अवसर  अब विलुप्त थे । इसलिए किशोर वर्मा ने विद्युत के फानूस , कैसिट्स , बल्ब , और एचएमवी के रिकॉर्ड्स की दुकान खोल ली थी । 

       जल्दी ही आफिस आने जाने के मार्ग में यह दुकान मेरा एक अड्डा बन गयी । मेरे खोए हुए कलात्मक रुझान को यह अड्डा फिर से जाग्रत करने लगा ।  किशोर के पास बहुत ही क्लासिक संगीत के कैसिट्स और पुरानी फिल्मों के गीतों के रिकॉर्ड्स संग्रहित थे ।  मेरे पहुंचने पर वो कहते ,,आज आपके लिए बहुत खास कैसिट चुन के रखा है ,, इत्मीनान से बैठिए,,और सुनिए ,,। और तब इत्मीनान का अंत जब होता तो पता चलता ,,मैनें बैठे बैठे ही वहां तीन घण्टे बिता दिए हैं ,,और घर में पहुंचने को बहुत लेट हो चुका हूँ ।

          इसी दुकान पर एक  युवा व्यक्ति से मुलाकात हुई ,, । किशोर ने परिचय करवाते हुए कहा ,,' ये कुल्ली मामा हैं । सार्वजनिक मामा ,,। इनकी भी एक दुकान है ,,इसी हाउसिंग बोर्ड परिसर में ,,मेरी दुकान के पीछे ,,इन्हें भी संगीत का शौक है ,,!'  ,,

         युवक ने अपने विशिष्ट लहजे में हाथ मिला कर जब अपनी भारी आवाज में मुझे  '  हैलो शर्मा जी ' कहा तो मैं चोंक पड़ा ।  ऐसा लगा जैसे अमीन शायनी ने मुझे पुकारा हो । इस छोटे से कद के , इस युवा व्यक्ति की आवाज इतनी वजनदार होगी ,,इसकी उम्मीद मुझे नहीं थी । फिर भी मैनें तस्दीक करने के लिए जब उनसे पूछा कि वे अमीन शायनी की शैली में क्यों बोल रहे हैं तो वे मुस्कराए । उन्होंने कहा कि यह उनकी ओरिजनल आवाज है ,,वे किसी शैली की नकल नहीं कर रहे ।  किशोर ने भी हंसते हुए कहा कि हम तो परेशान हैं ,,बिनाका गीतमाला हमारा पीछा ही नहीं छोड़ रही । दिन में कई बार अमीन शायनी की आवाज जब कान में पड़ती है तो हम रेडियो की ओर देखने लगते हैं  कि वहः खुला तो नहीं रह गया ।' 

     पहले परिचय से ही लगा,, जैसे यह मेरा कोई खोया हुआ अंतरंग साथी है । मेरी ही राह में भटका हुआ एक पथिक । उसने अपना  पूरा परिचय देते हुए कहा  कि उसका नाम कुलदीप सक्सेना है । किशोर की दुकान के पीछे ही उसकी एक छोटी सी जूतों की दुकान है । उसने मुझे अपनी दुकान में आने को आमंत्रित किया तो मैं अनायास ही उसके साथ खिंचा हुआ उसकी दुकान में चला गया । 

        कुलदीप की दुकान अपेक्षाकृत बहुत छोटी दुकान थी । उसमें ,,आगरा से लाये गए जूतों के डिब्बे करीने से सजे हुए थे । कुलदीप ने कहा कि यह व्यवसाय उसके मन का व्यवसाय नहीं है । किन्ही अपरिहार्य कारणों से उसे सतना आना पड़ा और विपरीत परिस्थियों में तत्कालिक रूप से उसे यह व्यवसाय अपनाना पड़ा । सिमरिया चौक का शॉपिंग काम्प्लेक्स  वैसे भी व्यवसाय के लिए मुफीद जगह नहीं थी ,,ऊपर से जूतों की दुकान ,, जहां नई ब्रांड के जूते रखना उसके बस से बाहर था । कभी कभार कोई इक्का दुक्का ग्राहक आ भी जाता तो कुलदीप से नहीं पटता,,। क्योंकि कुलदीप सिद्धांत का पक्का था । वहः  झुक कर , किसी  पैरों के जूते का नाप लेने का काम  कभी नहीं कर सकता था और दूसरे वहः प्रिंटिड रेट से एक पैसा भी कम करने को राजी नहीं था । सतना के दूसरे बाजार में ,,दिनों दिन उन्नति करती अन्य दुकानों की स्पर्धा में ,,कुलदीप के सिद्धांत ही उसके व्यवसाय में पहली बाधा थे ।

        शीघ्र ही मेरी बैठक , किशोर की दुकान से हट कर कुलदीप की दुकान हो गई । यद्यपि यहां मेरे लिए संगीत का वहः आकर्षण उपलब्ध नहीं था ,, किन्तु मुझे उससे भी बड़ा आकर्षण जो कुलदीप में दिखा ,,वहः था ,,संघर्ष के प्रति उसका जुझारूपन । उसकी आँखों में भी कुछ छूटे हुए स्वप्न थे ,,जिन्हें पूरा करने के लिए वहः कृतसंकल्प था । बातों बातों में उसने बताया कि उसके पास उसका अपना एक गौरवमय अतीत था । उसके पिता देश के एक जाने माने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे और आज़ादी के बाद वे आगरा के मेयर रह चुके थे ।  पिता की हुई मृत्यु के बाद , पारिवारिक विद्वेष वश , उसके चाचाओं ने उसकी सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया । कुलदीप और उनके बड़े भाई प्रदीप तब बहुत छोटे थे ,,और जब वे कुछ समझने लायक हुए तब तक सब कुछ लुट चुका था । किसी तरह पैतृक घर में रहते हुए उन्होंनेअपने पिता की पेंशन के आधार पर , आगरा में पैर जमाने की कोशिश की ,,तो विधना ने उनके बड़े भाई प्रदीप को अचानक उनसे छीन लिया । 

          कुलदीप ने बताया कि उस उम्र में भी वे दिल्ली के एक बड़े आर्केस्ट्रा से जुड़ कर  उद्घोषणा संचालन के काम में दक्ष हो चुके थे । उनकी आवाज  में जादू था,,अमीनशायनी के अंदाज़ का ,,तो आर्केस्ट्रा वाले उन्हें बुला लेते थे और वे ग्रुप में जा कर , अपनी परफॉर्मेंस से, आर्केस्ट्रा  कार्यक्रम में चारचांद  लगा देते ।  मेहनत की एवज में कम आमदनी ने ही उन्हें जिद्दी बना दिया था कि वे अपनी मेहनत के बदले एक पैसे की रियायत भी मंजूर नहीं करेंगें ।

          बड़े भाई की अचानक मृत्यु ने उनसे उनकी एंकरिंग की जगमगाती दुनिया छीन ली ।विपरीत परिस्थियों में ,,उनके चाचाओं की लालच ने उनको आगरा छोड़ने को विवश कर दिया तो वे अपनी माताजी के साथ , सतना आकर , अपने बड़े जीजाजी के संरक्षण में , सतना में बस गये ।  हालफिलहाल कोई काम समझ नहीं आया तो जूतों के लिए प्रसिद्ध आगरा से जूते लाकर उन्होंने यह दुकान यहां खोल ली । कुलदीप के बड़े जीजा जी हाउसिंग बोर्ड में ऑफिस सुपरिन्टेन्डेन्ट के पद पर पदस्थ थे तो उन्हें हाउसिंग बोर्ड की यह दुकान सहज ही मिल गयी । 

          सतना आकर उन्होंने अपनी दुनिया फिर ढूंढने की कोशिश की तो सतना के स्थानीय आर्केस्ट्रा  ग्रुप में उन्हें एंकरिंग करने का अवसर सहज ही मिलने लगा । किन्तु उनका लक्ष्य तो क्षितिज का  सूर्य बनने का था ,,, और सतना का आकाश इसके लिए सीमित था । मैनें देखा कुलदीप में छटपहाट थी ,,कुछ कर गुजरने की ,,किन्तु वे इस काम में लिए अकेले थे । मार्ग भी एकांगी था ,,एंकरिंग का ,,जिसके अवसर के लिए सतना बहुत छोटा शहर था । अपने बालाघाट प्रवास में मैनें नागपुर के बड़े आर्केस्ट्रा ग्रुप ' मेलोडी मेकर्स ' के संचालक और उद्घोषक ओपी शर्मा को देखा था । ओपी शर्मा भी बालाघाट से अपने मन में सपने संजोए नागपुर गये और वहां उन्होंने वहां विभिन्न कलाकारों को जोड़कर एक उच्च स्तरीय म्यूजिकल ग्रुप बनाया जिसकी धूम पूरे विदर्भ में छा गयी थी ।  मेरे सामने एक और ओपी शर्मा खड़ा था,,किन्तु उसके लिए जिस वितान की जरूरत थी वहः उपलब्ध नहीं था ।  न जाने मुझे क्यों लगा कि इस वितान को रचने में मुझे उसका साथ देना चाहिए तो मैनें निश्चय किया कि अब मेरे रचनात्मक कार्यों का सारथि होगा ,,कुलदीप ।

         किन्तु कुलदीप को अग्रसर करने के लिए जरूरी था कि वहः पहले एक निश्चित आय के साथ , खुद को अपने पैरों पर खड़े होने का काम करे ,,और जूते की दुकान तो वहः काम बिल्कुल नहीं हो सकती थी,,।

           इसलिए मैनें एक प्लान बनाया और उसके सामने रखा,,ऐसा प्लान जिसमें कला आधार थी और प्रतिदान निश्चित ।

          कुलदीप ने सहर्ष मेरी बात मान ली और हम लोगों ने एक संस्था बनाई,,' कनक एडवर्टाइज़िंगस ',,!    यह संयोग ही था कि इसमें कनक शब्द मेरी श्रीमती के नाम से लिया गया ,,और एडवरटाइजिंग उस अधूरे स्वप्न से जिसे पूरा करने की तमन्ना हम दोनों के मन में एक सी थी ।

           कहते हैं कि ' एक से पंख के पक्षी आकाश में एक साथ उड़ते हैं ' ,,तो हम भी एक सी आकांक्षाओं के  दो पंछी इन नए आकाश में उड़ान भरने चल पड़े ,,,बिना यह जाने कि हमारी हमारी उड़ानें किस ऊंचाई तक पहुंच पाएंगी ,,।

  आ,,2,,

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मेरे सपनों के साथी,,,

कुलदीप,,।


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' एडवरटाइजिंग ' शब्द ही उस खुले वितान का द्योतक था जिसमें रचनाधर्मिता विभिन्न आकर्षक कलाओं के साथ , विहंग रूप में ऊंचाई तक  उड़ने में समर्थ थी । मेलोडी मेकर्स ग्रुप के मेरे मित्र ओपी शर्मा ने पत्रिकाओं में फोटोग्राफी के सुंदर दृश्यों के साथ , प्रोडक्ट को जोड़ कर सफल विज्ञापन बनाये थे । सड़कों पर होर्डिंग्स लगा कर , उन पर एक अलग डिजाइन बना कर उन्होंने विज्ञापनों को नया आयाम दिया  था । नागपुर की प्रमुख टॉकीजों में ,, इंटरवल के समय में , उन्होंने स्क्रीन के पीछे से , आडियो जिंगल की अभिनव शुरुवात की थी जो खासी लोकप्रिय साबित हुई ।  जिंगल में उदघोषणा और संगीत कम्पोजीशन ,,दोनों समाविष्ट थे । तो उसी तर्ज पर यह सब काम कनक एडवरटाइजमेंट के अंतर्गत  सतना में करने का बीड़ा उठाया कुलदीप ने । 

    

          सतना उस समय तक विज्ञापन एजेंसी के नाम पर  शून्य था । विज्ञापन के नाम पर बाहर से कुछ पेंटर लोग  आकर , किसी बड़ी बिल्डिंग की बड़ी दीवार पर , चित्र उकेर कर चले जाते थे । होर्डिंग लगाने का रिवाज सतना में था ही नहीं । ट्रांसपेरेंसी की  फोटोग्राफी कोई नहीं करता था । टाकीज में दिखाने को जो स्लाइड बनती थी वे कांच पर अक्सर कुछ लिख कर दिखा दी जाती थीं । सर्वथा नए प्रयोगों के साथ , विज्ञापन का यह क्षेत्र  कुलदीप को बहुत आकर्षक लगा । तो उन्होंने  इस विज्ञापन जगत को पूरी शिद्दत के साथ अपनाने की ठान ली । लिहाजा मेरे प्रस्ताव पर , मेरे छोटे भाई शार्दूल शर्मा के साथ भागीदारी करकेँ इस काम को अंजाम देना शुरू कर दिया ।


        कुलदीप ने दुकान के सामान की फुटपाथ सेल लगा कर पूरी सामग्री बेच दी । दुकान की रंगाई कर उसे आफिस का नया रूप दिया । सामने ग्लास डोर लगा कर आफिस को भव्यता दी और एक आफिस टेबिल के साथ कुछ सुंदर चेयर लगा कर आफिस को शानदार बना दिया ।  अब दृश्य बदल गया था । जो मित्रों की बैठकें कभी किशोर वर्मा की दुकान पर सजती थीं ,,अब वे कुलदीप के भव्य आफिस में सजने लगीं । 


        एक सप्ताह के अंदर ही कुलदीप ने अचंभित कर दिया । उसने स्थानीय ब्रेड फेक्ट्री ,' आनन्द ब्रेड ' का विज्ञापन जुगाड़ लिया । शहर में पहली होर्डिंग लगाने में लिए  सिमरिया चौक की एक दुकान की छत भी किराए पर ले ली । हमने होर्डिंग डिजाइन की और पेंटर की तलाश शुरू की । 


        उस समय सतना के प्रमुख पेंटरों में दिलीप बनर्जी प्रमुख पेंटर थे । वे एक अच्छे पेंटर तो थे ही ,,एक अच्छे संगीतकार और अच्छे बांसुरी वादक भी थे ।  कुलदीप ने जब उन्हें पेंटिंग के लिए आग्रह किया तो उन्होंने कहा --'बोर्ड दुकान पर छोड़ दो ,, पेंट हो जाने पर ले जाना । कुलदीप ने जब बताया कि वहः बोर्ड नहीं  होर्डिंग है ,,और उन्हें वहीं जा कर पेंट करना पड़ेगा तो उन्होंने नाहीं कर दी । कुलदीप ने हार नहीं मानी ,,वे एक दूसरे नवयुवक '  मकसूद ' को ढूंढ लाये और आननफानन में तीन दिनों में ही होर्डिंग तैयार करकेँ छत पर लगवा दी । 


   आनन्द ब्रेड की पहली होर्डिंग ने कुलदीप के हौंसले बुलंद कर दिए । अब जो होर्डिंग्स का क्रम शुरू हुआ तो स्थानीय लोगों की दृष्टि इन  होर्डिंग्स पर गयी । व्यापारियों को विज्ञापन की महत्ता समझ  में आने लगी ।


      नागपुर, जबलपुर , जैसे बड़े महानगरों से विज्ञापन की धारा को मोड़ कर हम लोग सतना जैसे उदीयमान शहर में ले आये थे इसका हर्ष हमें था । लेकिन जिंगल बनाना और उन्हें सतना में  रिकार्ड करना एक चुनोती ही थी । जिंगल लिखने  , और उसकी धुन बनाने का काम तो मैं कर सकता था किंतु उसकी रिकार्डिंग करना टेढ़ी खीर थी । कारण इस कार्य में वाद्य बृन्द युक्त आर्केस्ट्रा , और कुशल गायकों के साथ , जिंगल रिकार्ड करना एक कठिन तकनीकी कार्य था । मल्टी ट्रेक रिकार्डिंग का चलन तब तक निकटवर्ती शहर  जबलपुर में भी उपलब्ध न था । 


    तो फिर जिंगल सतना में कैसे रिकार्ड हों ,, यह प्रश्न हमारे समक्ष था । सतना में स्थानीय कलाकार तो थे ,,किन्तु वे किसी ग्रुप में एकजुट नहीं थे । इसी तरह रिकार्डिंग का तकनीकी ज्ञान किसी को नहीं था ,,यद्यपि अलग अलग साउंड सर्विसिज की कई दुकानें सतना में मौजूद थी ।  मल्टी ट्रेक रिकार्डिंग तो बहुत दूर की बात थी ,,सिंगल ट्रेक रिकार्डिंग भी सतना में सम्भव नहीं थी ।  किन्तु स्वप्नों को साकार करने के लिए कृतसंकल्प कुलदीप ने व्यवस्था ढूंढ ली ।


      बुंदेलखंड के    निकटवर्ती शहर छतरपुर में एक समृद्ध आर्केस्ट्रा मौजूद था । इसे नौगावँ और छतरपुर के प्रतिभाशाली लोग मिल कर चला रहे थे । यह नौगावँ के प्रतिभावान संगीतकार श्री अमर सिंह सक्सेना के निर्देशन  और छतरपुर के बहुमुखी कलाकार मनोहर सिंह के सान्निध्य से स्थापित हुआ था । मनोहर सिंह आर्केस्ट्रा के लिए वांछित साउंड सिस्टम और वाद्य यंत्र खरीद लाये थे ,,जिनमें आडियो फेडर भी सम्मलित था । 


     कुलदीप ने छतरपुर जा कर मनोहर सिंह को राजी किया और वे मेरी बनाई धुनों के जिंगल  रिकार्ड करने को तैयार हो गये । दो तीन साजिंदों में साथ , गायक गायिकाओं ने मिलकर  जिंगल गाये और मनोहर सिंह ने काफी मशक्कत के साथ , सिंगल ट्रेक टेप रिकॉर्डर पर , वन गो शैली में जिंगल  रिकार्ड किये । 


    जब ये जिंगल , सतना की प्रमुख टॉकीजों में , इंटरवल के समय ,  स्क्रीन के पीछे , बड़े स्पीकर्स पर बजे तो सतना जैसे शहर में आश्चर्य की लहर दौड़ गयी । जो काम अभी तक मुम्बई में होता था वहः हम लोगों ने सतना में करकेँ दिखा दिया था । 


        अब विज्ञापन की कोई कमी नहीं थी,,न होर्डिंग्स में न आडियो जिंगल्स में । हम लोगों की जोड़ी ने वहः कर दिखाया था जो अब तक सिर्फ एक स्वप्न था ।


         इस बीच मेरे जीवन में एक और धूमकेतु का उदय हुआ ,,उदय प्रताप सिंह के रूप में जो नगर में यूपी सिंह के नाम से विख्यात थे । इस धूमकेतु ने मुझे मुम्बई के विख्यात फ़िल्म निर्देशक मनमोहन देसाई के चीफ असिस्टेंट श्री बिंदु शुक्ला से मिलवा दिया जो खुद भी एक  सफल फीचर फिल्म ' मेरा जीवन '  का निर्देशन कर चुके थे । वे मूलतः सतना के ही थे और बाल अवस्था में ही मुम्बई चले गये थे । बिंदु शुक्ला के साथ एक नए ग्रुप की रचना हुई जिसमें तय किया गया कि फ़िल्म निर्माण भी अब हम लोग सतना ही से शुरू करेंगे । 


          किन्तु कुछ निजी कारणों से , बिंदु शुक्ला ने तीन सदस्यों से ज्यादा चौथे सदस्य को प्रारंभिक चरण में जोड़ना अस्वीकार कर दिया ।  मूलतः यूपी सिंह , बिंदु शुक्ला और मेरा ग्रुप में होना अपरिहार्य  माना गया ,तो चौथे सदस्य के रूप में कुलदीप को कुछ समय तक इंतजार करने को कहा गया । 

    

          कुलदीप के स्वाभिमान ने समझौता करने से अस्वीकार कर दिया ,,नतीजन हमारे पहले उद्देश्य के लक्ष्य में दरार आना स्वाभाविक थी  ,,और वहः दरार आ भी गई ।


            कुलदीप ने हमारी संयुक्त संस्था कनक एडवरटाइजिंग तोड़ दी और स्वतंत्र कार्य करने का निश्चय ले लिया ।  यद्यपि मैनें उन्हें बहुत समझाया कि यह समस्या अल्पकालिक है ,,और बाद में तुम्हें इसमें जोड़ ही  लिया जायेगा ,,किन्तु कुलदीप निश्चय के दृढी थे । उन्होंने कहा ,,की अगर अभी नहीं तो कभी नहीं ।


             तो हम बीच मार्ग में ही विलग हो गये,, लेकिन जो अंतरंगता कायम हुई थी वहः हमें विलग न कर सकी । कुछ वर्षों के बाद हम लोग फिर मिले और तब हमने मिल कर जो किया वहः ,, उस अतीत के वर्तमान से बहुत आगे था ,,।


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मेरे सपनों के साथी,,

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कुलदीप 

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    आज से 40 वर्ष पूर्व , सतना में , एक  एडवरटाइजिंग एजेंसी स्थापित करने का विचार वस्तुतःमेरे लिए ,  मेरी प्रयोगधर्मिता को आधार देने से बढ़ कर और अधिक   कुछ भी न था । एडवरटाइजिंग शब्द तो मात्र एक मंच था , जिस पर खड़े हो कर हम उन रचनात्मक कार्यों को जामा पहनाने की चेष्टा करने वाले थे जो महानगरों की थाती बन कर रह गया था । जब हमारी प्रतिभा हमें जिंगल रचने की क्षमता देती है तो उसे मूर्तवत करने के लिए हम मुम्बई महानगरी के मोहताज क्यों रहें ,,? यह भावना सदा मुझे  कुरेदती थी । कुलदीप के पास अपनी एक अलग आवाज़ थी ।  किन्तु उस आवाज़ के लिए क्या अमीन शायनी की तरह  रेडियो सीलोन ही एकमात्र  अनिवार्य मंच था ,,जिस पर जा कर  जब  वहः गूंजती तभी लोग उसे पहचानते ,,??  कुलदीप के पास मंच संचालन , और  प्रबंधन का अद्भुत गुण  था ,,किन्तु छोटे शहर में वहः गुण उपयुक्त साधन न होने के कारण दम तोड़ रहा था , तो मुझे लगा कि इस गुण के उपयोग के लिए क्यों न इस छोटे शहर को ही माध्यम बनाया जाए ,,?? 


        और मेरी प्रयोगधर्मिता कुलदीप का साथ पा कर बहुत हद तक सफल हुई । कुलदीप ने अपने प्रबंधन के गुण से , महानगरों में लगने वाली होर्डिंग्स  की धारा को स्थानीय स्तर पर ला कर  सुलभ बना दिया । यही नहीं ,,उन्होंने जिंगल रिकार्डिंग के लिए विकासशील  छोटे नगर छतरपुर को उस समय माध्यम बनाया जब कि रिकार्डिंग का कार्य आसपास के किसी भी नगर में सम्भव नहीं था । उन्होंने  अपने  परिश्रम से जिंगल्स के प्रस्तुतिकरण के लिए , फ़िल्म टाकीज को एक सुलभ मंच बना दिया । इन प्रयोगों से अपरोक्ष में उन सब रचनाकारों , कलाकारों को एक नया सम्बल मिला जो अभी तक संगीत को मात्र आर्केस्ट्रा का मंच मानते थे । 


       कुलदीप के विलग होने से एक प्रवाह  अचानक बाधित हो  गया क्योंकि अगले चरण में मेरा लक्ष्य अपने प्रयासों से  फ़िल्म विधा को  छोटे नगरों तक लाने का था । कुलदीप के ही बनाये आफिस से इस चरण को प्रारम्भ करने का कार्य शुरू हुआ था ,,एक नई संस्था के गठन के साथ  ' ,,सुलभ आर्ट्स ' के रूप में ।  नामाकरण करते समय सुलभ शब्द  का चयन भी इसी लिए हम लोगों ने किया कि हम क्षेत्रीय कला प्रतिभा को , फ़िल्म के सशक्त माध्यम से , मंच दिलाने का प्रयास करेंगे । किन्तु क्या यह कार्य इतना आसान था ,,??  सिवा एक दिवा स्वप्न के ,,??   जो मरुभूमि में नहर खोदने जैसा था ,,?? 


       मेरे इन सपनों को दिशा देने के लिए जिस एक और धूमकेतु का उदय मेरे जीवन में हुआ था   वहः था उदय प्रताप सिंह ।  उदयप्रताप को सतना के लोग यूपी सिंह कह कर पुकारते थे ।  कैमिस्ट्री विषय  से स्नातक हुए यूपी सिंह सतना में पीवीसी शूज़ की फैक्ट्री डालने जा रहे थे । निस्संदेह यह कार्य भी बाटा जैसी बड़ी कम्पनियों के विरुद्ध छोटे नगर में छेड़ा गया बिगुल ही था ,,क्योंकि पीवीसी शूज , चमड़े के जूतों की अपेक्षा बहुत सस्ते में कामगारों को उपलब्ध हो सकते थे ।  तो वैचारिक रूप से , बड़े नगरों से तकनीक ले कर , छोटे नगरों को उद्यमी बनाने के सिद्धांत में हम एक्मतेंन  थे । 


      कुलदीप मेरी कलात्मक रचनाओं के वाहक थे तो यूपी सिंह तकनीक स्थापना के । मेरे लिए तो दोनों ही मेरी  भुजाएं थे । किंतु संयोग  ऐसा बना की दोनों एक साथ न  बंध सके । 


        कुलदीप ने विलग होकर अपना अलग मार्ग चुन लिया । उन्होंने अपनी एक नई संस्था बनाई और विज्ञापन के मार्ग पर वे अग्रसर हो लिए । सुलभ आर्ट्स का आफिस , कुलदीप के ऑफिस से हटकर मनोरमा प्रेस आ गया । सुलभ आर्ट्स ने अपने सपने साकार किये ।  वहः दूरदर्शन से अनुबंधित हो गई और पूरे मध्यप्रदेश में होने वाली विभिन्न सांस्कृतिक , क्रीड़ा जगत , और  समाचार की गतिविधियों के कवरेज के लिए अधिकृत हो गई ।  सुलभ आर्ट्स ने वर्ष 1987 में , क्षेत्रीय कलाकारों को ले कर , बुंदेलखंड के कुंडेश्वर ग्राम में , औपचारिकेटर शिक्षा को ले कर 28  मिनट की  एक सार्थक फ़िल्म ,,'गोरेलाल ' बनाई , जो जयपुर दूरदर्शन से जब प्रसारित हुई  ,तो संस्था के उस स्वप्न को साकार कर गयी , जो मैनें कभी बालाघाट , लखनादौन , रहते देखा था ।  

    

           इन 6 वर्षों के अंतराल की अपनी एक अलग कहानी है ,,जिसमें फ़िल्मविधा ने सतना को फिल्मांकन  के पटल पर  अंकित कर दिया । निश्चित ही इसका श्रेय यूपी सिंह और मुम्बई निवासी फ़िल्म निर्देशक श्री बिंदु शुक्ला को जाता है ,,जिन्होंने इस कार्य में उल्लेखनीय रोल निभाया । समय मिला तो अपने सपनों के साथी यूपी सिंह पर अलग वृहत संस्मरण लिखूंगा , फिलहाल तो मेरा केंद्र बिंदु मेरे पहले साथी कुलदीप ही हैं ।


       विलग हो कर कुलदीप , विज्ञापन के कार्य में ज्यादा दिन स्थिर नहीं रह पाए । जिन महानुभाव को पेंटर बतौर उन्होंने अवसर दिया , उन्होंने ही  कुछ दिनों बाद अपनी एक अलग एडवरटाइजमेंट की संस्था खोल ली । शहर ने विज्ञापन का महत्व समझा तो कई लोग इसे व्यवसाय मान  कर इसमें कूद गये  । उधर जैसे ही टेलीविजन का पदार्पण हुआ तो टाकीज का आकर्षण लोगों के मन से जाता रहा । जिन जिंगल्स को टाकीज का मंच मिला था वे टाकीज ही क्षीण हो गईं । नतीजन कुलदीप ने विज्ञापन की दुनिया छोड़  दी । इसबीच  1985 में आई भीषण आंधी ने  भी होर्डिंग्स को बहुत क्षति पहुंचाई । कुलदीप ने अलग दिशा में व्यवसाय का मार्ग पकड़ा । उन्होंने मसालों की फैक्ट्री लगाई  किन्तु वहः स्पर्धा का व्यवसाय था । उसमें स्थिर होना उनके लिए सम्भव नहीं हो पाया ।  


           तब उन्होंने विरासत में मिले  राजनैतिक गुण को आजमाया । उन दिनों  वी पी सिंह ने कांग्रेस से विलग हो कर अलग पार्टी बना ली थी । वीपी सिंह राजनीति में शुचिता का सिंबल बन कर उभरे थे ।  बहुमत से जीते , और प्रधानमंत्री बने ,,श्री राजीव गांधी को वीपी सिंह ने अपनी निर्मल छवि बना कर पटखनी दे दी थी ।  कुलदीप श्री वीपी सिंह से जुड़ गये । कुलदीप की राजनैतिक विरासत शुचिता और ईमानदारी के साथ , राष्ट्र भक्ति पर आधारित थी  तो जल्दी ही। उनके लिए राजनीति के बड़े द्वार खुल गए ।  वीपी सिंह के निकटस्थ परिचितों में उनका नाम शुमार हो गया । राजनीति के क्षेत्र में वे जल्दी ही मेनका गांधी और विद्याचरण शुक्ल  के अंतरंग हो गए । 

         किन्तु सिद्धांतों के पक्के कुलदीप को कितने दिन राजनीति रास आती ,,?? खद्दर पहन कर सिद्धांतों पर अडिग हो कर राजनैतिक संत तो बना जा सकता है किंतु राजनैतिक सत्ता का सफल नेता नहीं । जल्दी ही एक बार राजनीति से कुलदीप का मोह भंग हो गया । उधर वीपी सिंह की तथाकथित राजनैतिक शुचिता की राजनीति क्षीण हुई , मेनका गांधी और विद्याचरण क्षीण हुए ,,,इधर कुलदीप के लिए भी राजनीति के द्वार क्षीण होगये ,, तो कुलदीप ने राजनीति छोड़ दी । 


         यद्यपि कुलदीप मुझसे विलग हुए थे किंतु में आत्मिक रूप से उनसे विलग नहीं हुआ था । मैं उनकी क्षमताओं को जानता था और आश्वस्त था कि एक दिन फिर वे रचनात्मक कार्यों की ओर मुड़ेंगें ।  राजनीति छोड़ने के बाद वे सचमुच फिर रचनात्मक कार्यों की ओर मुद्दे ,,। विलग हो कर भी हमारे बीच , एक दूसरे के हालचाल  लेने हेतु संवाद बने रहे । में अक्सर उनके घर पहुंच जाता और उनकी माता जी मुझे अपने हाथ से बने व्यंजन प्रेम से खिलातीं ।   माताजी के साथ हुए हमारे संवादों के बीच कुलदीप का विवाह प्रमुख मुद्दा रहता । वे क्षीण हो रही थीं और  अब जल्दी ही अपनी बहू  को देखने को व्यग्र थीं । में भी जब अपने किसी अन्य कायस्थ मित्र से मिलता तो कुलदीप के लिए एक बहु की तलाश करता ।  इसी बीच कुलदीप की बहू की तलाश पूरी हुई और उसका विवाह महोबा में हो गया । कुलदीप जैसे स्वच्छंद विचरते गजराज को अंकुश  लगते देख मुझे  भी बहुत खुशी हुई । सौभाग्य से कुलदीप को सुषमा के रूप में , बहुत सुघड़ , सरल हृदय  , और अनुगामी जीवनसाथी मिली ।  


       इसबीच मुझे भी कई स्थानांतरण झेलने पड़े । कुलगवां से पहले सतना शहर, फिर जैतवारा होते हुए जब मैं नागौद पदस्थ हुआ तो मुझे एक  भीषण घातक हमला झेलना पड़ा । हमले के बाद कुछ दिनों मैं मैहर रहा और वहां से प्रमोशन पर नौगावँ चला गया । मेरे नौगावँ स्थानांतरित होते ही सुलभ आर्ट संस्था बन्द हो गई । 

       बदला हुआ नौगावँ भी मुझे रास नहीं आया तो 1991 में  मैनें रीवा जिले के गहन वन प्रांतीय क्षेत्र  त्योंथर में अपने अनुरोध पर स्थानांतरण ले लिया । इस समय तक फिल्मांकन विधा सेल्युलाइड से हट कर वीडियो का रूप धारण कर चुकी थी । इस तकनीक से जुड़ कर मैंने भी एक वीएच एस कैमरा 1989 में खरीद लिया था और उसे अपने छोटे भाई शार्दूल को सौंप दिया था । सतना में  बहुत से वीएचएस कैमरे आ चुके थे और कई स्टूडियो मालिक , शादी विवाह के छायांकन का काम शुरू कर चुके थे । इन लोगों में स्टूडियो मालिक भल्लन और विनोद यादव शीर्षस्थ थे । सीमेंट फेक्ट्री में कार्यरत एक और व्यक्ति ,,अग्रवाल जी एक वीएचएस कैमरा बहुत पहले ले आये थे । कुलदीप जब फिर से रचनात्मक कार्यों की ओर मुड़े तो  उन्होंने अग्रवाल जी का सान्निध्य लिया ।  कुलदीप ने जिंगल  की तर्ज पर वीडियो शूट करने का प्रयास किया । किन्तु उन्हें आशातीत सफलता नहीं मिली ।  जब मुझे पता चला कि कुलदीप पुनः उस रचनात्मक दिशा की ओर मुड़ रहे हैं तो मुझे बेहद खुशी हुई । आखिर तो मैनें उन्हें बहुत पहले ही चुना था ,,अपने रचनात्मक स्वप्नों को साकार करने के लिए ,,तो एक दिन में जब सतना आया तो सीधे कुलदीप के पास गया और उन्हें एक प्लान दिया ,,इस दिशा में कुछ मिलकर अनोखा करने के लिए ।  

           कुलदीप ने थोड़ा सोचा विचारा और अंततः सहर्ष राजी हो गए । 

   

           और अब हम फिर कई वर्षों के अंतराल के बाद फिर एकजुट हो गये ,रचनात्मक कार्यों के आकाश में नई उड़ान भरने के लिए । 


         और सचमुच यह उड़ान एक अलग ही उपलब्धि दे गई हम लोगों को ,,।



 

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

 ,,,

,,,,,अमर,,,,

60 वर्ष पूर्व का नौगावँ याद आ रहा है ।

    तब नौगावँ कस्बा सांस्कृतिक रूप से बहुत धनी था लेकिन आधुनिकता से बहुत दूर । 

इस कस्बे की बसावट आस पास के नगरों के लिए कौतूहल थी । 132 चौराहे वाले इस कस्बे की करीब 40 किलोमीटर की चौड़ी सड़कों पर हर आधे किलोमीटर पर एक चौराहा था । सड़क के दोनों ओर पक्की चौड़ी नालियां थीं , जो  सुबह शाम , दोनों टाइम धुलती थी । अधिकतम घर एकमंजिला थे । 

        यह कस्बा चारों ओर से निकटवर्ती बड़े नगरों से आवागमन के मार्गों से जुड़ा था । छोटे से बाजार में जरूरत की सभी चीजें थीं । कुछ घरों में मोटर गाड़ियां भी थीं । और उनके लिए तत्कालीन ' बर्माशैल ' कम्पनी का एक पेट्रोल पंप भी ।  यह कस्बा सभी वर्गों और जातियों के लोगों का सामुदायिक निवास था । यहां पुलिस स्टेशन से ज्यादा मामले , कस्बे के प्रभावशाली व्यक्ति की दहलीज पर निबटते थे जिनकी रहवासी कोठी इस कस्बे की शान थी । 

       इस कस्बे में उस समय सेना के लिए एक ट्रेनिंग सेंटर था जो बहुत बड़े क्षेत्र में फैला था । इस कस्बे में हवाईजहाज उतरने के लिए हवाई पट्टी थी । जिस पर यदा कदा  कस्बे की कोठी के मालिक मुन्नालाल एंड संस् के निजी हवाईजहाज अपने डैने फैलाये उतरते रहते थे । जब ही हवाई जहाज उतरता , कस्बे के लोगों की भीड़दौड़ते हुए  उसके दर्शन करने वहां पहुंच जाती । 

       इस छोटे से कस्बे में उस समय की  बड़ी महामारी के इलाज हेतु , टीबी अस्पताल था । जिसमें बड़ी बड़ी एक्सरमशीनें लगीं थी । चिकित्सा  के लिए सम्पन्न  प्राथमिक चिकित्सालय  भी था । यहां शराब बनाने की एक समृद्ध डिसलरी भी थी । 

         इस कस्बे में तत्कालीन विंध्यप्रदेश का हाई कोर्ट भी रहा , पीडब्ल्यूडी का अधीक्षणयंत्री कार्यालय भी , बड़ा पोस्ट आफिस भी और  मत्स्य विभाग का बड़ा कार्यालय भी ।

         यह कस्बा शिक्षण संस्थाओं का आकर्षक केंद्र रहा जहां तकनीकी शिक्षा हेतु पॉलिटेक्निक , प्राइमरी शिक्षा  हेतु उत्कृष्ट विद्यालय , सहकारी प्रशिक्षण का स्कूल , और सबसे महत्वपूर्ण हायर सेकेंडरी स्कूल भी था जहां से क्षात्र  आदर्श शिक्षा ग्रहण कर देश के हर कोने में नाम कमाने निकल जाते थे ।

           खेलकूद और सांस्कृतिक गतिविधियों का यह अनूठा केंद्र था । यहां के नागरिक  संस्कारित और धर्मपरायण  थे । यहां  टेनिस जैसा राजसी खेल भी प्रचलित था और सामूहिकता का प्रतीक हॉकी , बॉलीबॉल  भी । यहां की बालिकाओंऔर बालकों में बैडमिंटन भी बहुत लोकप्रिय था । 

           यहां का वार्षिक उत्सव रामलीला थी । 

खेल के लिए सुविधायुक्त कोर्ट भी थे । नगर में समृद्ध  एक पुस्तकालय भी था । 

   

             ऐसे समृद्ध , और संस्कारों के धनी नगर में प्रतिभाएं जन्म न लें ,यह तो हो ही नहीं सकता था । इसलिए  इस कस्बे में कई घरों में प्रतिभाओं ने जन्म लिया और उन्हीं में से एक प्रतिभा , नगर के शीर्षस्थ , प्रख्यात , और कानून के ज्ञाता  'श्री  जानकी प्रसाद सक्सेना ' के घर में जन्मी जिनका नाम माता पिता ने प्यार से ' अमर ' सिंह  रखा । सिंह की पदवी सम्भवतः उन्हें पारिवारिक रूप से अंग्रेजी शाशकों से मिली थी । 

         

            सब कुछ होने के बाद भी इस कस्बे में , सुगम  संगीत , और वादन की कोई परम्परा नहीं थी । अलबत्ता कुछ लोग बांसुरी पर राग रागनियां सीख कर , शास्त्रीय संगीत में निष्णात हो , बाहर निकल जगये थे । ताल वाद्य में तबले के जानकार जरूर थे किंतु वे भी महापंडित न थे । 

            अमर सिंह सक्सेना को भी संगीत में रुचि थी तो उन्हें घर में ही सितार सिखाने हेतु एक शिक्षक लगाया गया । घर में ही उन्होंने हारमोनियम पर उंगली चलाना सीखा और गाना भी । उनके घर के पीछे बने , बड़े मंदिर में एक व्यक्ति थे कालिका प्रसाद , जो उनके सितार के गुरु बने । बाद में नगर के सिध्दहस्त हारमोनियम वादक से उन्होंने हारमोनियम सीखा । स्वरों और रागों का थोड़ा ज्ञान उन्हें मिला तो सुरों की शुद्धता उनकी निधि बन गयी ।।

            लेकिन वे बंधे हुए हारमोनियम से सुरों से बंध कर ही नहीं रह गये । उन्हें सितार के तारों की मींड और स्ट्रोक ने ज्यादा आकर्षित  किया । उन्होंने जल्दी ही समझ लिया की संगीत का माधुर्य और विस्तार का अथाह समुद्र तो तारों के झंकृत होने पर है ।  हार्मोनी और सिम्फोनी में नहीं । 

             इसलिए वे तार वाद्य यंत्र के सहयात्री हो गये । और उन्होंने अपने मार्ग खुद ढूंढना शुरू कर दिए । 


              करीब 10 वर्ष की उम्र में , कक्षा 6 में , जब मैं उनके अनुज प्रताप सक्सेना का सहपाठी बना तब तक वे बेंजो नामक वाद्य यंत्र बजाने लगे थे ।  मैनें उन्हीं दिनों जाना कि वे संगीत समर्पित व्यक्ति हैं और पृयोग धर्मी भी  । सबसे बड़ी बात यह थी कि वहः विज्ञान के क्षात्र थे और हर विधा में विज्ञान का छोर पकड़ कर  तह तक जाने  से नहीं चूकते थे  ।

         वहः युग फिल्मी संगीत का स्वर्णयुग था । गीतों  में बहुत मधुरता होती थी और बोलों में जादू । उस समय शंकर जयकिशन , एसडी बर्मन , मदन  मोहन , जयदेव , ओपी नैय्यर,  नौशाद , की एक से एक मधुर धुनें अवतरित हो रहीं थीं जिसकी कम्पोजीशन तो अद्भुत होती ही थी , इंटरल्यूड तक गायन और वादन के योग्य होते थे । 

          बेंजो भारतीय वाद्य नहीं था । उसमें एक ही सुर पर ट्यून करकेँ छह तार लगते थे जिन्हें दाएं हाथ से स्प्लेक्टरम के माध्यम से झंकृत किया जाता था और बाएं हाथ से फिक्स की दबा कर धुन निकाली जाती थी । 

        

           प्रताप मुझ से करीब दस माह छोटे थे और अमर भाई मुझसे दो वर्ष बड़े ।  लिहाजा मैंने उन्हें ' भाईसाहब ' कह कर पुकारा ।

      

          एक संगीत शिक्षक का पुत्र होने के कारण संगीत भी मेरी घुट्टी में था तो मैं सहज ही अमर भाई साहब के वादन को गौर से नोटिस करने लगा ।


     मैनें देखा कि वे ' कुहू कुहू बोले कोयलिया ' जैसे शास्त्रीय संगीत आधार गीत की तानें बहुत निपुणता और शुद्धता से बजा रहे हैं तो मैं चमत्कृत हो गया ।


          किन्तु उनका मन अतृप्त था । फिल्मी संगीत में युगल गीत में स्त्री और पुरुष स्वर की पिच को वे वाद्य यंत्र पर उतार  लेने को व्यग्र थे तो उन्होंने बेंजो के सभी छहों तार हटा दिए और दो महीन तार और दो  मोटे तारों के सैट लगा कर बेंजो को अनोखा वाद्य बना   दिया ।


      मजे की बात थी कि अब मोटे तारों से  रफी साहब की  ध्वनि और पतले तारों में लता की गायकी की  धुन युगल गीत बन कर कानों में माधुर्य घोल रही थी   ।


        और हम बेंजो के इस नए रूप को देख कर  भौंचक्के थे साथ में अमर भाईसाहब की प्रयोगधर्मिता को देख कर भी ।


      ---सभाजीत


     

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  अमर भाईसाहब को बेंजो बजाते देख मेरे मन में भी बेंजो बजाने की अभिलाषा जगी । लेकिन बेंजो तो मेरे पास था  नहीं ।इसलिए मैं उसकी तलाश में जुट गया । 

उस युग में बेंजो भी कीमती वाद्य यंत्र था और बड़े शहरों में ही बिकता था ।  मैं जानता था कि मेरे पिताजी मुझे बेंजो खरीद कर तो कभी देंगें नहीं । कारण स्पष्ट था ,,,यद्यपि वे खुद एम म्यूज़ थे और लखनऊ में बाकायदा रतनजनकर की शिष्यता में शास्त्रीय संगीत सीखे थे किंतु संगीत को जीवकोपार्जन हेतु व्यवसाय बना कर नौकरी करने से वे असंतुष्ट थे ।  उनका मानना था कि कला और लक्ष्मी में छत्तीस का आंकड़ा है और तेजी से बदलते आर्थिक युग में कलाकार और कला को वहः स्टेटस  नहीं मिलता जो अन्य विषयों में सहज ही मिल जाता है । इसलिए संगीत की दुनिया में वे मुझे कदम रखने ही नहीं देना चाहते थे ।

        फिर भी उन दिनों वे व्यायज़ हायर सेकेंडरी स्कूल में ही संगीत शिक्षक थे और उनके आधीन संगीत का एक प्रकोष्ठ था जिसमें सभी वाद्य यंत्र उपलब्ध थे । 

            तो मैं स्कूल में ही एक दिन उनके उस प्रकोष्ठ में चला गया जहां एक बेंजो मैनें देखा । बेंजो देख कर मैनें जिद पकड़ ली कि वे मुझे बेंजो इशू करवा दें । लेकिन उन्होंने मुझे यह कह कर टाल दिया कि वहः खराब है । बाद में घर आकर फिर में जब जिद करने लगा तो उन्होंने साफ मना कर दिया ।

              कुछ ही दिनों बाद , जब मैं अपने एक सहपाठी रामनरेश के घर गया जो उस समय स्कूल के उप प्राचार्य के पद पर तैनात श्री गणेश सिंह के भतीजे थे , उनके घर में रामनरेश को उसी बेंजो से छेड़छाड़ करते देखा जिसे पिताजी ने मुझे इशू करने  से मना कर दिया था तो समझ गया की पिताजी ने मुझसे बचाने के लिएवहः बेंजो  वाइस प्रिंसिपल के भतीजे को इशू कर दिया था ।

                रामनरेश को संगीत से कोई रुचि नहीं थी । मेरे मांगने पर उसने वहः बेंजो मुझे दे दिया और में उसे घर ले आया । मैं उसे जब बजाने लगा तो मुझे देख कर पिताजी ने कुछ नहीं कहा ।

           अब बेंजो की प्रेरणा देने वाले अमर भाई साहब को देख  देख कर मैंने अथक रियाज़ शुरू किया और में उसे बखूबी बजाने लगा ।

           लेकिन अमर भाईसाहब के लिए तो बेंजो बहुत साधारण चीज  थी । वे तो सितार सीख कर कला में पारंगत हुए थे इसलिए वहः यात्रा मेरे लिए बिल्कुल वैसी ही थे जैसे एक बहुत कुशल पायलट आगे चल रहा हो और उसके बनाये रास्ते पर पीछे पीछे में दौड़ रहा हूं  ।

   

            कुछ ही दिनों में वे हायर सेकेंडरी पास करकेँ 1964 में छतरपुर महाराजा कालेज चले गये  । अब मैं पीछे अकेला रह गया । मैनें अमर भाईसाहब के  पदचिन्हों पर चलते हुए अपने बेंजो में भी खर्ज के दो मोटे तार लगाए और युगल गीत बजाने लगा । 

       

              तभी वे जब नौगावँ आये तो उन्होंने मुझे एक नया करिश्मा करकेँ दिखाया । उन्होंने बेंजो का कीबोर्ड निकाल दिया और पेन को तारों पर घसीट के एक गीत बजा कर दिखा दिया । बेंजो का यह नया पृयोग मेरे लिए अनोखा था किंतु यह बाज बहुत मधुर था । 


             उन्होंने ही बताया कि यह " हवाईयन गिटार " का बाज है । अब तक गिटार शब्द हम सबके लिए सर्वथा नया शब्द था । क्योंकि गिटार तो कभी रूबरू देखा नहीं था । फिल्मों में जरूर विश्वजीत एक्टर को उसे हाथों में ले कर उछलते कूदते देखा था । लेकिन यह बजता कैसे होगा यह हम लोग नहीं जानते थे ।


              इस बाज को सुनने के बाद मैनें रेडियो सीलोन की प्रातः कालीन सभा सुनना शुरू की जहां नियमित एक गीत गिटार पर बजता ही था । इसी सिलसिले में वादकों के नामों से भी परिचित हुआ ,,," वानशिपले" और एस हजारा सिंह " ,,। गीतों की मधुर धुनें सुन कर भी मेरे लिए यह पहेली ही बना रहा कि आखिर इसे बजाते कैसे हैं ।


            एक दिन जब मैं प्रताप से मिलने उसके घर गया तो प्रताप के  बाबूजी , यानी उनके पिताजी ने कहा --" सभाजीत  ,,! अमर एक गिटार ले आये हैं ,,जा कर देखो ,,!"

             तभी अमर भाईसाहब खुद अपने हाथों में एक वुडन गिटार लिए बाहर निकल आये । उन्होंने घुटनों पर उसे रख कर ,  दाएं हाथ में नेल्स पहन कर। बाएं हाथ से  स्टील के एक बार से बजाया तो अलग अलग स्ट्रिंग पर मींड में मचलता हवाईयन गिटार जैसे गाने लगा । 


            नौगावँ का  सम्भवतः वहः पहला गिटार था और अमर भाईसाहब पहले वादक । क्योंकि नौगावँ जैसे छोटे कस्बे में गिटार कभी बजा ही नहीं था । और शायद हम लोग  नौगावँ के वे पहले श्रोता  थे जिन्होंने रूबरू गिटार देखा था और जाना कि यह कैसे बजता है ।


             अमर भाईसाहब तो गिटार ले कर छतरपुर चले गये लेकिन मुझे फिर विचलित कर गये । 


                मेरे मन में गिटार के लिए लालच जगा गये और मुझे एक नया अभियान सौंप गये कि मैं गिटार तलाशूं,,।

                लेकिन जब मुझे बेंजो ही बड़ी जुगत से मिल पाया था तो अब गिटार कहां से पाऊं ,,?? 


              इसी बीच 1966 में हायर सेकेंडरी पास करकेँ मैं नौगावँ पॉलिटेक्निक में चला गया और प्रताप छतरपुर ,,,आगे के ग्रेजुएशन के लिए महाराजा कॉलिज में दाखिला लेने ।


                उधर भाईसाहब निरन्तर एक उत्कृष्ट गिटार वादक बनने के सोपान चढ़ रहे थे इधर नौगावँ में में गिटार जुगाड़ने की तलाश में भटकने लगा ।


                  जहां चाह वहां राह ,,,। मुझे भी 1967 में एक टूटा हुआ गिटार मिला जो दतिया से मुझे मेरे चाचा जी के  न्यायाधीश मित्र , श्री देवेंद्र जैन ने भिजवाया ।


           किन्तु अब वहः मौका नहीं था कि मैं अमर भाईसाहब को देख देख कर सीख सकूं ,,क्योंकि वे तो छतरपुर में थे और में उनसे 24 किलोमीटर दूर नौगावँ में ।

          और जब उन्हें , 1967 में अपने ही पोलटेक्निक कॉलिज के एनुअल फंक्शन में  मंच पर गिटार बजाते देखा तो स्तब्ध रह गया । वे अब वुडन गिटार नहीं ,,बल्कि स्व निर्मित इलेक्ट्रिक गिटार बजा रहे थे ।


            गीत था , मेरा साया फ़िल्म का , आशा भोंसले का गाया ,,," झुमका गिरा रे ,,," पूरे अंदाज़ में और बेस स्ट्रिंग ने  बीच में  जब पूछा ,," फिर क्या हुआ ,,?? "  


               तो पूरे हॉल में तालियां थमने का नाम न ली ।


          यह बाज तो बिल्कुल अलग था ,,,जिसके आगे वानशिपले और हजारा सिंह भी कहीं नहीं टिकते थे ।


               उन्होंने अब मुझे नई राह दिखा दी थी ,,की गिटार सिर्फ गाता ही नहीं बोलता भी है ,,बखूबी वैसा ही ,,जैसा गीत में कोई बोलता है ।


              मैनें भी ठान लिया ,,, अब ऐसा ही मैं भी बजाऊंगा,,।


    - ' सभाजीत ' 


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     प्रताप के छतरपुर चले जाने से , अमर दादा का विशाल घर और परिसर सूना ही हो गया । बाबूजी भी वकालत के लिए छतरपुर ही रहने लगे और परिवार भी वहीं रहने लगा । उन्होंने वहां एक बड़ा घर , रेस्टहाउस पहाड़ी के नीचे , मुख्य मार्ग पर ले लिया ।

       मेरे लिए भी पॉलिटेक्निक का नया वातावरण मिल गया और नए मित्र भी । इसलिए अब अमर भाईसाहब से और प्रताप से मिलने जुलने का क्रम शिथिल हो गया ।

       किन्तु वे कभी कभी इतवार को नौगावँ भी आ जाते थे और तब मैं उनसे मिलने का मौका नहीं चूकता था । इसीबीच एक दिन वे आये और  बोले कि तुम्हें छतरपुर के जलविहार मेले के कार्यक्रम में एक मुकेश का गीत गाना है । उनके हिसाब से मैं मुकेश के गीत ' ठीक ठाक ' गा लेता था । मैं सहर्ष मांन  गया । वे गिटार साथ लाये थे । उन्होंने कहा - ' रिदिम ' नहीं बजेगी ,,,तुम्हे मेरे हवाईयन गिटार के ' वेम्पस ' पर गाना पड़ेगा । मैं वहः भी मांन  गया  । ,,क्योंकि इस के अलावा मेरे पास चारा ही क्या था । हवाईयन गिटार पर " कॉर्ड्स " नहीं बजाए जा सकते । किन्तु सुरों के आधार पर , फ्रेट्स पर बार स्थिर रख कर वेम्पस देते हुए रिदिम देना सम्भव है ।  उन्होंने वेम्पस दिए ,,और मैनें गाया ,,' हरी भरी वसुंधरा पे नीला नीला ये गगन । '' वे मुझे प्रेक्टिस करवा कर संतुष्ट हुए और फिर मैंने छतरपुर जा कर यह गीत गाया ।

        बिना तबले ,  के गिटार के रिदिम पर  यह गीत श्रोताओं को कुछ अलग हट कर ही लगा ।  लोगों ने तालियां बजाईं। लेकिन निश्चित था कि ये तालियां गिटार के वेम्पस के रिदिम के सर्वथा नए पृयोग के लिए थीं ।

         छतरपुर के इस नए घर में मैनें कुछ नईं चीजें देखी ,,जैसे एक रिकॉर्ड प्लेयर , कुछ एल पी रिकॉर्ड्स  , और एक नया स्पेनिश गिटार । 

          प्रताप  ने बताया कि अब भाईसाहब हवाईयन गिटार कम बजाते हैं ,,बल्कि स्पेनिश गिटार ज्यादा बजाते हैं । स्पेनिश गिटार तो पाश्च्यात संगीत की शास्त्रीयता और नियम कायदे से बंधा था  । उसके स्ट्रिंग की ट्यूनिंग भी अलग नियमान्तर्गत थी । उसमें फिल्मी धुनें बजाने का कोई स्कोप नहीं था । उसके कॉर्ड्स भी स्थापित थे जिसमें उंगलियों को सभी स्ट्रिंग्स पर , निश्चित  फ्रेट्स पर रख कर ही निकालना सम्भव था । तो भाईसाहब को इस विधा में क्या ऐसा दिखा की वे इस ओर मुड़ गये,,?? 

        इसका जवाब खुद भाईसाहब ने दिया । उन्होंने एक एल पी , रिकार्ड प्लेयर पर चढ़ाया और कहा --"  सुनो इसे ,,यह विश्व विख्यात गिटार वादक ' चैट एटकिन्स " है । जैसे भारत मे रविशंकर विख्यात हैं वैसे ही विदेश में यह व्यक्ति विख्यात है । स्पेनिश  गिटार एक पूर्ण समर्थ वाद्य  है ,, बिल्कुल वैसे ही जैसे भारत में सरोद या सितार । " 


           और सचमुच ,,जब मैनें वहः रिकार्ड सुना तो मेरी आँखें खुली की खुली रह गईं । मुझे पहली बार यह समझ में आया कि पाश्चात्य संगीत में भी सौंदर्य है , मधुरता है , और शास्त्रीयता है । भाईसाहब ने बताया कि यह व्यक्ति स्प्लेक्टलम से गिटार नहीं बजा रहा है बल्कि हाथों की सभी उंगलियों और अंगूठे से सभी तारों को छेड़ रहा है और फ्रेट्स पर उसकी उंगलियां पानी की तरह चल रही हैं ।

           फिर उन्होंने वेंचर्स ग्रुप के कुछ रिकार्ड चढ़ाए जो उस समय पूरे देश में लोकप्रिय हो रहे थे । उसमें तो स्पेनिश गिटार का पूरा ग्रुप ही था ,,अद्भुत ।


           अब मुझे लगा कि और भी जहाँ हैं ,,इस जहाँ के आगे । अभी तक तो मैं फिल्मी धुनों और उसके हवाईयन गिटार पर वादन तक ही अटका था ,,लेकिन भाई साहब ने तो एक नई दुनिया के ही दर्शन करवा दिए थे ।


          मुझे याद आया कि पॉलिटेक्निक के मंच पर उन्होंने इलेक्ट्रिक गिटार बजाया था ,,तो क्या भाई साहब ने हवाईयन गिटार में  भी नया इलेक्ट्रिक गिटार  ले लिया ,,??  1967 में इलेक्ट्रिक गिटार खरीदना  और बजाना बहुत बड़ी बात थी । मैनें प्रताप से जब इस बारे में पूछा तो प्रताप हंसने लगा । उसने बताया कि यह अमर भाईसाहब की अपनी खोज और अपना पृयोग है । उनका गिटार वही पुराना वुडन गिटार है और कोई नया इलेक्ट्रिक गिटार नहीं खरीदा ।


     प्रताप ने बताया कि उन्होंने जब प्लेयर लिया तो उसी आधार पर उन्होंने कम्पन को विद्युत तरंगों में बदलने वाले प्लेयर के  एक नए पिकअप को अलग से खरीद लिया । जैसा हम सब लोगों ने पढ़ा है कि रिकार्ड पर चलते हुए , पिकअप में लगी निडिल में जो कम्पन पैदा होता है वहः इलेक्ट्रो मैग्नेट फील्ड के जरिये पिकआप विद्युत तरंग में बदल देता है ,,तो भाई साहब ने वुडन गिटार के ब्रिज पर  महिलाओं द्वारा बुनने के पृयोग में आने वाली ' क्रोशिया ' फंसाईं और उसके मुंह पर पिकअप फंसा दिया । इस तरह जो कम्पन तारों में हुआ वहः क्रोशिया के जरिये पिकप को मिला और पिकप से उन्होंने एमलीफ़ायर को जोड़ दिया ,,,तो बन गया ,," ' इलेक्ट्रिक गिटार ,,' !!


        सचमुच यह पृयोग अचंभित कर गया । विज्ञान तो हम सब पढ़ते हैं किंतु उसका इतना सार्थक पृयोग क्या कोई , कभी करता है ,,??  लेकिन भाई साहब तो बिरले निकले ।


          


           उधर ,,, स्पेनिश गिटार , हवाईयन गिटार जैसा सहज नहीं था । उसे सीखने के बाकायदा पश्चिमी संगीत के व्याकरण के बीच से गुजरना जरूरी था ।


       भाईसाहब तो कॉर्ड्स की बुक ही खरीद लाये थे । और स्टाफ नोटेशन को भी समझने की कोशिश कर रहे थे । मेरे लिए तो यह सब उपाय दुरूह थे ।


       दूसरे,,मेरे हाथ तो अभी तक हवाईयन गिटार ही नहीं आया था ,, स्पेनिश तो दूर की कौड़ी थी । यह वो समय था जब लोग स्पेनिश गिटार पर बजे ,, ' कम सेप्टेंबर ' धुन का जादू नहीं भूले थे और नृत्य में ' ट्विस्ट ' हर रईस घर का बच्चा करना शुरू कर दिया था । फिल्मों में आर डी बर्मन का पदार्पण हो चुका था , और तीसरी मंजिल फ़िल्म का ,," आजा आजा ,,में हूँ प्यार तेरा " का सुरीला इंटरल्यूड हर श्रोता के कानों में बस गया था । फ़िल्म के हर संगीत निर्देशक , यहां तक कि नौशाद भी अपनी धुनों में स्पेनिश गिटार बजवाना शुरू कर दिए थे  ।


         अब एक मुश्किल और भी थी ,,की भाई साहब नौगावँ से 24 किलो मीटर दूर हो चुके थे ,,अब उन्हें देख देख कर भी स्पेनिश गिटार सीखना सम्भव नहीं था ।


        तभी वे छतरपुर में बीएससी करने के बाद एम एस सी फिजिक्स से करने शहडोल चले गये ,,तो जो कभी कभी होना सम्भव था वहः बिल्कुल असम्भव हो गया ।


        इधर मेरी पढ़ाई भी कठिन ही थी । मैनें उस समय 1966 में , सबसे कठिन ट्रेड ' इलेक्ट्रिकल ' चुना था तो मेरे  पिताजी मुझे अधिक मेहनत के लिए आगाह करने लगे थे । वे भला मुझे गिटार क्यों ख़रीदवाते ,,?? 


   अलबत्ता मेरे आग्रह पर उन्होंने मुझे ' ताल ' सिखाना स्वीकार कर लिया । और मैनें तबले पर सभी ताल बजाने सीख लिए ।


       ऐसी स्थिति में आगे  मेरे काम आये मेरे चाचाजी  ,,'  गुणसागर सत्यार्थी ' जी । उन्होंने अपने मित्र श्री देवेंद्र जैन को कहा ,,,जो उस समय दतिया में  सिविल जज थे ।

उनके पास एक टूटा गिटार था जो कभी चाव से बजाने के लिए उन्होंने लखनऊ से खरीदा था । किंतु जज होने के कारण कभी सीख न पाए और वहः गिटार उखड़ गया था । उन्होंने कहा कि वे दतिया बस से उसे नौगावँ भिजवा देंगें ।


    अब हर शाम में बसस्टेंड जाता ,,बस कंडक्टर से पूछता ,,लेकिन गिटार का आगमन नहीं हुआ । हर दिन में उदास होकर एक गीत की पंक्तियां ,,," ये तमन्ना ही रही,, उनका पयाम आएगा ,," ,,यूँ गुनगुनाता ,,,' ये तमन्ना ही रही उनका गिटार आएगा ,,',,!!

  

          जब एक माह बीत गया तो  निराश होकर मैंने बस स्टैंड जाना बंद कर दिया । लेकिन एक शाम यूंही जब मैं शिवोम के घर गया जो पड़ोस में ही था तो देखा कि शिवोम उस प्रतीक्षित टूटे गिटार को एक कवर से निकाल कर देख रहा था । पूछने पर शिवोम ने बताया कि कोई कंडक्टर बस स्टैंड से आकर  दे गया है और बता गया है कि किन्हीं जज साहब ने दतिया से भेजा है ।

         

               उस टूटे गिटार को देख कर मुझे लगा ,,जैसे मुझे स्वर्ग मिल गया है । मैं शिवोम से वहः गिटार घर ले आया ,,और उसे जुडवाने  की जुगत में लग गया ।


                गिटार तो जुड़ गया ,,लेकिन मेरा गाइड और पायलट तो शहडोल जा चुका था । अब जो कुछ करना था मुझे मष्तिष्क में बसे उस अनुभव के आधार पर ही करना था जो भाई साहब को देख कर मिला था ।


---' सभाजीत '


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अमर भाईसाहब के शहडोल चले जाने के बाद , मुझे नौगावँ के सुगम सँगीत और फिल्मी संगीत का क्षेत्र खाली खाली लगने लगा । यद्यपि नौगावँ में  परम्परागत संगीत  की अविरल धार अभी उतनी ही सघन थी और उसका प्रभाव बढ़ रहा था । मेरे पिताजी श्री ज्ञान सागर शर्मा , शास्त्रीय संगीत के सुदृढ स्तम्भ थे । नगर के लोकप्रिय संगीतज्ञ , शिवोम के पिताजी श्री नारायणदास आहूजा जी भी संगीतज्ञ थे । और उन दिनों कीर्तन की विधा के उभरते कलाकारों में पी डब्ल्यू डी कार्यरत श्री एम पी मिश्रा जी की बहुत धूम थी ।  हर  त्योहार में , बड़े मंदिर में लोगों की भीड़ कीर्तन सुनने जुटती और मिश्रा जी , फिल्मों की नई नई धुनों पर कीर्तन करते । उनके साथ उनकी मंडली में " झींका " बजाने वाले जगदीश मास्साब  की मुद्राएं लोगों के आकर्षण का केंद्र होती ।

         लेकिन न जाने क्यों ,,मुझे यह संगीत आकर्षित ही नहीं करता था । में भाईसाहब द्वारा अपनाई गई  नइ लीक , सुगम संगीत  , फिल्मी संगीत , और वाद्य  वादन का मुरीद था । यह विडंबना ही थी कि नगर के  युवा गायक तो बनना चाहते थे किंतु वाद्य वादन के प्रति उनका कोई झुकाव नहीं था ।  यहां तक कि ताल वाद्य में भी किसी ने  जानकार होने की कोशिश नहीं की । उस समय मलखान सिंह ढोलक तो आकर्षक बजाते थे किंतु तबले जैसे परिपूर्ण ताल वाद्य से अनिभिज्ञ थे । और बिना तबले के फिल्मी संगीत या सुगम संगीत को दिशा देना सम्भव ही नहीं था ।

          जब मैं पॉलीटेक्निक के प्रथम वर्ष में था तो शिवोम के घर के बगल में , एक किराए के घर में रहता था , जिसका ऊपरी कमरा हमेशा खाली रहता था ।  उन्हीं दिनों मैनें उस खाली कमरे में सुगम संगीत की गोष्ठियां शुरू की । उस गोष्ठी में प्रदीप राव भी आते थे जो इसराज बजाते थे । वे तबले पर भी हाथ आजमा लेते थे और शायरी भी करते थे । वे प्रायः अपने स्वर में अपनी लिखी नज़्म पढ़ते । उधर शिवोम को भी " बोंगो ड्रम ' बजाने का चस्का लगा । यह चस्का उसे इसलिए लगा क्योंकि छतरपुर में महलों के निकट रहने वाले , दो चौरसिया भाई , विनोद और अशोक चौरसिया , संगीत सभाओं में जुगलबंदी में तबला और बोंगो बजाते थे , जो बहुत प्रभावी होता था  ।

       लेकिन मेरी तरह , शिवोम के पास भी ,,ललक तो थी किन्तु बोंगो ड्रम नहीं था । उन दिनों बोंगो कहीं मिलता भी नहीं था ,,सिर्फ कलकत्ता या मुम्बई जैसे महानगर को छोड़ कर , जहां से उसे लाना दुष्कर था । तो ,,शिवोम ने डालडा घी के दो छोटे और बड़े डिब्बे कटवाए और ढोलक की तरह नीचे  कुंदे लगवा कर रस्सी से ऊपर खाल मड़वा दी -- तो बन गया एक देशी बोंगो ,,!  -- अब प्रदीप ने और शिवोम ने तबले और बोंगों पर प्रेक्टिस शुरू की और जल्दी ही वे  तैयार भी होगये ,,चौरसिया ब्रदर्स को टक्कर देने । 


         मेरे पास भी गिटार आ ही गया था । किंतु मुझे रियाज़ की जरूरत थी । पिताजी का रुख यद्यपि थोड़ा नरम पड़ गया था किंतु इतना नरम भी नहीं कि मैं सब कुछ छोड़ कर संगीत साधना में लीन हो जाऊं । इसलिए मैनें प्रेक्टिस शुरू जरूर की , किन्तु रात में , उनके सो जाने के बाद ही , बाहर के कमरे में दरवाजा बंद करके दो बजे तक गिटार बजाता रहा ।

      अचेतन मन में तो , भाइसाहब को देख कर सीखा गिटार था ही ,, डी एन ए में विद्यमान मेरे अपने संगीत ने जल्दी ही मुझे पारंगत कर दिया । मैं बेस स्ट्रिंग , लीड स्ट्रिंग पर गीत बजाने के साथ साथ इंटरल्यूड्स भी बजाने लगा ।

         वे दिन सुगम संगीत और फ़िल्म संगीत के स्वर्णिम दिन थे । छतरपुर जलविहार मेले में , कानपुर से दो युगल गायक ,,उषा और  राजेन्द्र परदेशी आते और अपनी आवाज़ की धूम मचा कर चले जाते ।तबले की संगत में एक अद्वितीय तबला वादक ,," हुक्मानी "  अलग से भारी फीस ले कर आता ,,लेकिन  वैसा तबला वादक दूर दूर  तक उपलब्ध नहीं था । वे अधिकतम नए  फिल्मी गीत गाते और साथ देते हुक्मानी ।  हुक्मानी हूबहू वही ठेका तबले पर बजाते जो फ़िल्म में , गीत में बजा होता ।  यह आश्चर्य का विषय था कि मात्र हारमोनियम , कण्ठस्वर , और तबले की थाप से सजी वहः महफ़िल , एक यादगार महफ़िल में तब्दील हो जाती और लीग  ' पिन ड्राप साइलेन्स ' के साथ वे मधुर गीत पुनः पुनः सुनने की शिफारिश करते। और पूरी रात यूंही गुजर जाती ।

    

       तो 1967 में ,  मेरे मन में भी एक साध जगी की मैं एक सुगम संगीत का दल बनाऊं । प्रदीप और शिवोम ताल वाद्य  के लिए तैयार हो चुके थे । उधर प्रदीप भी अपनी नॉकरी के फंड से किसी तरह एडवांस निकलवा कर एक सेकेण्ड हैंड  एकोर्डियन खरीद लाये ।  अब जरूरत थी गायक गायिकाओं की जो मंच पर राजेन्द्र परदेशी और उषा की तरह युगल गीत गा सकें । लेकिन ऐसे गायक गायक तो नौगावँ में मिलना सम्भव था ही नहीं ।

    

   हम लोगों ने मिलकर " अलंकार म्यूज़िक एशोषियेशन ' के नाम से दल बना लिया । मैनें हारमोनियम सम्हाला , प्रदीप ने तबला , शिवोम ने बोंगों ,।  हम लोगों ने वाद्य में गिटार और एकार्डियन  को जोड़ी बना लिया । प्रदीप  एकार्डियन पर , युगल गीतों में , लता की पंक्ति बजाते और मैं गिटार की बेस स्ट्रिंग पर मुकेश या रफी की गायजी पंक्ति । इंटरल्यूड हम मिलजुल कर आपस में बांट लेते ।

         लेकिन बिना गायकों के तो दल अधूरा ही था । गायक तो सहीत बोस के रूप में मिल गये किन्तु स्त्री कंठ का तो अभाव ही था । तब हम लोगों ने सोचा कि भले ही कोई बालिका ही दल में गाने लगे तो हम बच्चों के गीत गवा कर यह कमी पूरी कर लेंगें । 

        

          और हमारी यह साध पुरी की , आदरणीय चाचा जी की दो सुरीली बेटियों ,,साधना और अर्चना ने । वे बहुत मधुर गातीं थीं । तो हमने बच्चों के दो गीत ,, 'बच्चे मन के सच्चे ',,और  'बापू सुन ले ये पैगाम ,'  उनके कण्ठों में तैयार करवाये ।  


        सुगम संगीत में मुझे धुनें कम्पोज़ करने की ललक जगी । प्रदीप ने गीत लिखना शुरू किया और मैनें कम्पोज़ करना । जल्दी ही हमारे पास अपनी खुद की धुनों और गीतों का  बड़ा जखीरा तैयार हो गया । सहयोग से इस जखीरे की हर धुन मधुर बन गयी और गीत मनोहर ।  तो अब हमारे पास खुद का एक  सम्पूर्ण दल तैयार हो गया और हमने कार्यक्रम देना शुरू किया । 

    

           मुझे याद है जब , पहले कार्यक्रम में ,,  टीकमगढ़ में , मैदान में जुटी श्रोताओं के बीच ,  अर्चना की सुरीली आवाज ' बापू सुन ले ये पैगाम ' गूँजी तो चारों ओर लोग स्तब्ध रह गये । आवाज़ और गीत के बोलों ने लोगों की आंखें भिंगो दी । उधर सुहीत ने भी गाया - " चांदी की दीवार न तोड़ी ,,"  तो लोग झूम गये । हमारे स्व रचित गीत  " आँसू समझ के गम को पिये जा रहे हैं हम ,," ने भी समां बांध दिया । हमलोगों ने गिटार और एकार्डियन पर दो युगल  गीत बजाए ,," सावन का महीना " और " गाता रहे ,,मेरा दिल ,," ,,!!


          टीकमगढ़ के सफल कार्यक्रम ने हमारा हौसला बढ़ा दिया ।  फिर हमने कई कार्यक्रम दिए जिनमें अधिकतम आर्मी के आई टी बी पी ट्रेनिंग सेंटर के मंच पर आयोजित हुए । आईटीबीपी के कमांडेंट श्री रमेश अग्निहोत्री हमारे दल के बड़े प्रशंसक हो गये ।  उस मंच पर मैनें भी एसडी बर्मन का गाया गीत गाया ,,' मेरे साजन हैं उस पार,,',,।। अग्निहोत्रीजी उस गीत के मुरीद हो गये । वे कहीं अन्यत्र भी मंच पर मुझे देखते तो चिट भेज देते ,,,'  ' मेरे साजन हैं उस पार गाओ ,,सभाजीत ,,!!" !


         इसी सिलसिले में वहः दिन भी आया जब मुझे गिटार देने वाले चाचा जी देवेंद्र जैन ने पूरे दल के साथ सतना बुलवाया और हमने उनके दिए टूटे गिटार पर अच्छी हालत में गीत बजा कर सुनाए ।


           इस बीच यदा कदा  अमर भाईसाहब भी आते रहे और उन्हें यह देख कर खुशी होती कि मै गिटार बजाने लगा हूँ । अलबत्ता  मेरे पिताजी मेरी इस संगीत पार्टी से बहुत खुश नहीं थे । उन्हें चिंता सताती रहती थी कि इस संगीत पार्टी के चक्कर में , में अपना भविष्य न बिगाड़ लूं । क्योंकि उनकी एक ही साध थी कि मैं संगीतज्ञ नहीं ,,बल्कि एक इंजीनियर बनूँ ।


            और एकदिन जब अमर भाईसाहब नौगावँ आये तो पिताजी ने उनसे मेरी एक्टिविटीज को ले कर रुक्क्षता प्रकट की । अमर भाईसाहब थोड़ी देर सुने,, फिर बोले ,," मुझे नहीं मालूम की सभाजीत एक सफल इंजीनियर बन पाएगा कि नहीं ,, किन्तु वहः एक सफल कलाकार बन जायेगा ,,,इसकी में गारंटी देता हूँ ,,बशर्ते आप उसे भी  संगीत सिखा दें ,,। ,,जो जन्मजात। गुण हैं ,, उन्हें आप चाह कर भी  नहीं रोक पाएंगें । "


          बात साधारण थी किन्तु पिताजी को शायद घर कर गयी । उन्होंने मुझे  फिर संगीत के लिए रोका भी नहीं   किन्तु उन्होंने सिखाया भी नहीं । नतीजतन में शास्त्रीय संगीत में शून्य ही रह गया ।


              मैनें 1969 में डिप्लोमा पूरा किया और मुझे 1970 में  नौकरी मिल गयी तो मैं विद्युत मंडल में सबइंजीनियर बन कर बालाघाट चला गया और पीछे छोड़ गया संगीत की ,, आर्केस्ट्रा या सुगम संगीत की दुनिया ।


                     उधर अमर भाईसाहब भी भौतिकी से  एमएससी करकेँ पी एच डी रिसर्च करने सागर चले गये,,।

उन्होंने प्रारंभिक वर्षों में ' सेमी कंडक्टर ' पर रिसर्च की किन्तु बाद में उन्हें फेलोशिप में भाभा एटोमिक रिसर्च संस्थान के तत्वाधान में ' लेसर रे ' पर रिसर्च करने का ऑफर मिला तो वे पुनः नई रिसर्च के लिए मुम्बई चले गये  ।

        हम लोग 7 वर्षों के लिए एक दूसरे के जीवन से अनभिज्ञ रहे किन्तु फिर मौका आया और मेंने इन 7 वर्षों के बारे में पूरी जानकारी उनके बारे में ले ली । 


             वर्ष 1977 में कुछ साम्यतायों ने हमें समानांतर कर दिया ।


--' सभाजीत ' 


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    बालाघाट जाने पर  मेरे स्वप्न - विहंगों  को नया आकाश मिला । सतपुड़ा की गोद में बसे इस छोटे से नगर में पग पग पर बिखरी  , वन सुषमा ने मेरा मन मोह लिया । मेरा सौभाग्य था कि मेरा हेडक्वार्टर जिला मुख्यालय बालाघाट नगर  में ही बना दिया गया  । 

      1969 में ही , मेरे चाचा जी श्री गुणसागर सत्यार्थी जी ने , मेरी संगीत अभिरुचियों को देखते हुए ,  मेरे हाथों में मुझे एक नया उपहार  ,,नायलॉन स्ट्रिंग का एक  रशियन स्पेनिश गिटार थमा दिया था । इस गिटार जी आवाज़ बहुत मधुर थी । बेस स्ट्रिंग्स तो ऐसे बोलते थे जैसे सरोद की गमक हो । 

      में अपने साथ , फर्स्ट एपोइंटमेंट में ही , उसे ले कर बालाघाट गया । बालाघाट में शास्त्रीय संगीत का एक बड़ा विद्यालय था । इस विद्यालय में जिस के नाम से विद्यालय था  वही  एक कम वय का किशोर मुझे  सितार बजाते दिखा । यह बहुत प्रतिभावान युवा था । जितनी महारत उसे सितार पर प्राप्त थी  , उतनी ही महारत उसे वायलिन पर भी प्राप्त थी । तबले पर संगत के लिए , उसके छोटे भाई  भी उतने ही पारंगत थे । 

        जल्दी ही मैं उस परिवार में घुल मिल गया । बालाघाट में गिटार का कोई प्रचलन नहीं था । इसलिए मुझे उस संगीत समाज में विशेष महत्व मिला ।  मैनें देखा कि इस छोटे से नगर में नाट्य विधा भी अपने उत्कृष्ट स्तर पर विद्यमान थी । काव्य गोष्ठियां भी होती थी  जिसमें  नगर के कई प्रतिभाशाली कवि काव्य पाठ करते ।  जल्दी ही में इस नगर की मुख्य साहित्यिक एवम सांस्कृतिक धारा का अंग बन गया । 

        यहां आकर मुझे लगा कि नौगावँ में जो बहुत कुछ नहीं था ,, वो यहां बहुत कुछ था । नौगावँ में जिस संगीत की धारा को प्रवाहित करने के लिए मुझे विशेष यत्न करने पड़े थे वे यहां स्वयमेव विद्यमान थे । किंतु फिर भी यहां कलाकार बिखरे हुए थे , उनमें आपसी सामंजस्य नहीं था । इसी दौरान मेरी मित्रता नगर के एक युवा कवि ,,शरद श्रीवास्तव " से हुई  जिनके गीतों में महाकवि नीरज के भावों  जैसी कसक थी । ये गीत सुनकर मेरी धुन कम्पोजिंग की चाहत फिर जाग उठी । जल्द ही हम लोग एक दूसरे के पूरक हो गये  ,,। में धुन बनाता ,,वे गीत लिख देते ,,या फिर वे गीत लिखते में धुन बनाता ,,।  धीरे धीरे मेरे पास सुरबद्ध कई गीतों का खजाना बन गया । ये गीत सभी मनः स्थितियों के थे । फिल्मों के सर्वथा अनुकूल । तो अब हम इनका क्या करें ,,??  यह सवाल हमारे मन में कौंधा ।

          इसके निदान के लिए मैनें उपाय सोचा । मैनें एक स्पूल वाला टेपरिकार्डर खरीदा । एक छोटे छोटे दृश्य वाली स्क्रिप्ट  लिखी  । उसमें डायलॉग बुलवाए , रिकार्डिंग के वक्त ही  बैकग्राउंड संगीत डाला , और एक गीत कम्पोज़ कर के रिकार्ड किया ।  मुझे वहां मेरे मित्रों में फ्ल्यूट वादक , मेंडोलिन वादक , वायलिन वादक सहज ही मिल गये । दृश्य था ,,नायक के जन्म दिन का ,,और नायिका ने शरद के लिखे बोलों को इस प्रकार गाया ,,,," दिल दे रहा है ,,क्या क्या दुआएं ,,महफ़िल में दिलबर ,,कैसे बताएं ,,!! !  उन सीमित साधनों में भी गीत फैंटास्टिक रिकार्ड हुआ ।


            इस मेहनत का फल भी मुझे शीघ्र ही मिला । उनदिनों बालाघाट के निवासी श्री  मुकुंदभाई त्रिवेदी , नागपुर रह कर एक स्थानीय फ़िल्म " भादवाँ माता " बना रहे थे । वे बालाघाट आये तो हमने उन्हें अपना गीत और बैकग्राउंड संगीत सुनवाया । वे अपनी फिल्म के बैकग्राउंड संगीत हेतु किसी नए और सस्ते संगीतकार की तलाश में थे ,,तो उन्होंने प्रभावित होकर कहा ,,' ,आप तैयार  रहिए ,,मद्रास चलकर आप बैकग्राउंड तैयार करवाइए । अगली फिल्म में बुंदेलखंड की रीजनल फ़िल्म बनाऊंगा। ,,तब आपको फुलफ़्लेज संगीत निर्देशक बना दूंगा ,,!!" 

            शरद और मुझे लगा कि फ़िल्म जगत के रास्ते अब  हमारे लिए खुल चुके हैं और हम अपनी अगली उड़ान की कल्पना मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्रीज़ के लिए करने लगे । किन्तु भाग्य को कुछ और ही मंजूर था । फ़िल्म प्रोसेसिंग और पोस्ट प्रोडक्शन के लिए मुकुंदभाई के पास पैसे ही नहीं बचे । फ़िल्म की शूटिंग क्वालिटी भी साधारण थी इसलिए किसी ने भी  पैसा लगाने से इनकार कर दिया और फ़िल्म डब्बे में चली गयी ।


          इन सब गतिवीधियों के बीच भी , में  नौगावँ से निरन्तर जुड़ा रहा ।  जिस अलंकार संगीत संघ को मैं अधर में छोड़ आया था उसे पीछे प्रदीप ने सम्हालने की कोशिश की । इस सिलसिले में मैने अपने इस ग्रुप को , गणेश पूजा कार्यक्रमों में , मंच पर कार्यक्रम देने आमंत्रित करवाया । बालाघाट मराठी संस्कृति का नगर था । वहां गणेश उत्सव बहुत धूमधाम से मनाया जाता था । इन्ही उत्सवों में एक गणेशोत्सव समिति ने आर्केस्ट्रा के रूप में नौगावँ के अलंकार म्यूजिक एसोशिएशन को बुलाया । प्रदीप दलबल सहित बालाघाट आये । 


           किन्तु संयोग ,, ,,की उस दिन घनघोर वर्षा हुई । पूरा मैदान जल से सराबोर हो गया । मंच भींग गया ,,। न जनता आ पाई ,,न कार्यक्रम हो पाया । दूसरे दिन फिर कार्यक्रम हुआ ,,,किन्तु उस भींगे भींगे समां में कोई मजा न आ पाया । ,

   ,' फिर याद कीजियेगा कभी ,,',, ,कह कर प्रदीप अपने दल को ले कर लौट गये । 


      बालाघाट में रहते हुए भी में नौगावँ से निरन्तर जुड़ा रहा । बीच बीच में जब भी आता ,,प्रदीप से , शिवोम से जरूर मिलता । एक चक्कर प्रताप के घर का भी लगाता और एक चक्कर आदरणीय चाचा जी ,,अवस्थी जी के घर का भी । 

           इस बीच छतरपुर में आकाशवाणी का केंद्र खुल गया । सारी साहित्यिक और संगीत की गतिवीधियों का आकाशवाणी केंद्र प्रश्रय दाता हो गया । तो नौगावँ की अपेक्षा  छतरपुर  अधिक महत्वपूर्ण हो गया ।


          जब भी नौगावँ आता ,,,प्रताप से भाईसाहब के बारे में खोज खबर लेता । प्रताप से ही पता चला कि भाईसाहब मुम्बई में हैं और अपने शोध के साथ साथ मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्रीज़ में अपना स्थान बनाने का प्रयास कर रहे हैं । अब तक भाईसाहब एक उत्कृष्ट स्पेनिश गिटार वादक बन चुके थे । वे मेरी अपेक्षा अधिक सक्षम संगीतज्ञ पहले ही थे । अब मुम्बई जा कर स्टाफ नोटेशन से गिटार बजाने में वे और अधिक  पारंगत हो चुके थे । सोने में सुहागा यह था कि उन्हें प्रख्यात बांसुरी वादक और फ़िल्म डिवीजन के संगीत निर्देशक श्री रघुनाथ सेठ का वरद हस्त प्राप्त था । निश्चित ही उनकी दुनिया अब मुम्बई में बसने वाले थी ,,चाहे वे भाभा एटॉमिक सेंटर के साइंटिस्ट बनते अथवा फ़िल्म इंडस्ट्रीज के उत्कृष्ट स्पेनिश गिटारिस्ट ,,दोनों ही स्थितियों में उनका भविष्य उज्ज्वल था ।  अब मुझ में और उनमें दो अंतर स्पष्ट थे ,,,- वे संगीत के एक विधिक जानकार थे ,,एक इंजीनियर की तरह और में अनुभव से सीखा  एक जानकार ,,एक कुशल मिस्त्री की तरह ।

    

             लेकिन दूसरा अंतर मेरे पक्ष में अधिक ।महत्वपूर्ण था । मैं धुनों का सृजक था और वे वादक । तो मुझे संतोष था कि मेरी संगीत की जानकारी विधिक न होने पर भी मेरे लिए तो उपयोगी ही थी । 


                  इसी श्रंखला में प्रदीप राव भी नौगावँ छोड़ कर मुम्बई जा पहुंचे ,,एक गीतकार के रूप में अपना भाग्य आजमाने ,,और शिवोम भी,,मेंडोलिन सीखने ।


               अब मुम्बई तो सबके लिए मंजिल थी । भाईसाहब के लिए भी , प्रदीप के लिए भी , शिवोम के लिए भी ।

                   और में और शरद तो एक स्वप्न देख ही रहे थे ,,मुम्बई के  लिए ।


                  किन्तु भाग्य हम सबके लिए अलग अलग रास्ते तय करने वाला था । और वे रास्ते तय होने वाले थे हमारे विवाहोत्तर जीवन के टर्निंग प्वाइंट्स से जो शीघ्र ही 1977 बन कर हमारे सामने आने वाला था ।


--' सभाजीत ' 


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नौगावँ से बाहर बालाघाट  प्रवास करते हुए मेरे  सात वर्ष यूँ व्यतीत हो  गये  जैसे  मात्र कुछ दिन ही बीते हों । इन वर्षों में मैं अपने स्वप्न सँजोता रहा और उन्हें मूर्तवत करने की राहें ढूंढता रहा । मैनें ठान लिया था कि जब तक वांछित मुकाम पर नहीं पँहुचूंगा  ,,एकाकी ही रहूंगा । 


        इसबीच देवेंद्र चाचाजी बालाघाट आये और अपना दिया हवाईयन  गिटार वापिस ले गये। में बिना हवाईयन गिटार बजाए नहीं रह सकता था , इसलिए मैनें कलकत्ता से बुक करवा कर डबलनेक गिटार खरीदा । अब मन पूरी तरह संतुष्ट हुआ कि जो स्वप्न नौगावँ में मैनें कभी  देखा था वहः अब जा कर  पूर्ण हुआ । 


          संगीत में सृजन की राह ने मुझे अलग ही दिशा में मोड़ दिया । बालाघाट के मेरे कुछ मित्रों ने , मुकुंदभाई त्रिवेदी से प्रेरणा ले कर , एक पूरी फीचर फिल्म  बालाघाट में ही बनाने की योजना बना डाली । इस अभियान में में केंद्र बिंदु बन गया । ।मुकुंदभाई ने सलाह दी कि हम लोग 16 एमएम फॉर्मेट में फ़िल्म बनाएं तो मेरे मित्र एक सेकेंडहैंड 16 एम एम कैमरे को जुगाड़ कर खरीद लाये । उससे जुड़ते ही मेरी दिशा फोटोग्राफी की ओर मुड़ गई और संगीत पार्श्व में चला गया । 


        अनन्त आकाश में उड़ने के लिए एक ओर जहां  मैं अपने पंख तौल रहा था ,,इधर नौगावँ में  मेरे माता पिता मुझे बंधन में बांधने की तैयारी में लगे थे । जैसा कि हर मध्यम वर्गीय परिवार में होता है ,,परिवार के बुजुर्गों में पौत्र को खिलाने की असीम इच्छा जाग उठती है । मेरी दादी अपने पड़पोते को देख कर ' स्वर्ग निसेनी " की तमन्ना करते करते जब स्वर्ग सिधार गईं तो मेरे माता पिता की व्यग्रता तीव्र हो गई । उन्होंने वर्ष 77 के शुरू होते ही विभिन्न कन्याओं के फोटो भेजने शुरू कर दिए । मैनें जब  विवाह के लिए स्पष्टतः मना कर दिया तो वे दुखी हो गये और कारण पूछने लगे  । 


            कमोबेश यही बात अमर भाईसाहब के साथ  घटित हुई । 1977 में वे मुम्बई में रिसर्च के अंतिम चरण में थे और  उन्हें एक वर्ष और लगना था । इस बीच फ़िल्म इंडस्ट्री के संगीत क्षेत्र में रघुनाथ सेठ के माध्यम से वे  अपनी पैठ बना चुके थे  । रघुनाथ सेठ ने उन्हें चार स्पेनिश गिटार का एक पूरा सेट  खरीदने की सलाह दी । रघुनाथ सेठ ने कहा कि यदि अमर भाईसाहब यह सेट खरीद लेते हैं तो मुम्बई में फ़िल्म इंडस्ट्री में  उन्हें शीर्षस्थ गिटारिस्ट होने से कोई नहीं रोक सकता ।  उन्हें अपने दोनों हाथों में लड्डू होने का सुखद एहसास होने लगा था । एक ओर ' लेज़र रे ' जैसे महत्वपूर्ण विषय पर महत्वपूर्ण उपलब्धि , दूसरी ओर उनके संगीत  के प्रिय साथी गिटार का  एक मुक्कमल मुकाम ।

        लेकिन तभी बाबूजी ( अमर भाईसाहब के पिताजी ) ने उन्हें अर्जेंट नौगावँ बुलाया और उन्हें विवाह बंधन में बंधने का आग्रह किया ।  अमर भाईसाहब अजीब असमंजस में पड़ गये । उन्होंने भी विवाह बंधन में   बंधने हेतु  अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी ।। उन्होंने एक वर्ष का समय मांगा किन्तु बाबूजी तो जैसे निर्णय  ही ले चुके थे कि इस वर्ष ही अब उनका विवाह  होगा । । 


         और अंत में बुजुर्गों  की  इच्छा के सामने हम दोनों को सिर झुकाना पड़ा । अमर भाई साहब का विवाह एक अंतराल में आगे पीछे  नवम्बर 77 में हुआ और मेरा दिसम्बर 77 में ।


            अमर भाईसाहब का तो नहीं पता लेकिन मेरे लिए मेरे माता पिता ने , बिलहरी निवासी एक पंडित जी से पूछा तो उन्होंने कहा मि यदि इनका विवाह 77 में नहीं हुआ तो ये सन्यास भी ले सकते हैं ।  मैनें जब स्पष्ट मना किया तो उन्होंने पंडितजी से एक ताबीज़ बनवाया । जब मैं 77 में ही रक्षाबंधन में घर नौगावँ आया तो राखी बंधने  के बाद मेरी माताजी ने वहः ताबीज़ मेरी भुजा पर यह कह कर बंधवा दिया कि यह तुम्हारा रक्षक है । 


         बाद में एक माह बाद जब उन्होंने एक फोटो भेजते हुए , मुझ से आग्रह किया कि मैं इलाहाबाद आकर कन्या देखने की रस्म तो कर दूं तो मेरे मित्रों ने सलाह दी कि देख आओ , कौन सा विवाह ही होने जा रहा है ,,निर्णय तो तुम्हें लेना है ,,कम से कम माता पिता का मन रह जायेगा तो मैं चला आया ।  समय बलवान था या ताबीज़ यह तो नहीं जानता किन्तु कन्या की मुंह दिखाई होते ही मेरी मां ने कन्या को और कन्या की मां ने मुझे अंगूठी पहनाते हुए सगाई पूर्ण होने की घोषणा कर दी और मैं मुंह बाए बैठा रहा गया  । 


           मजेदार बात यह भी हुई कि विवाह के बाद , इलाहाबाद से बरात के नौगावँ घर पँहुचते ही दूसरे दिन सुबह वहः ताबीज़ बांह से खुल कर कहीं  गिर  गया और पूरा घर खोज लेने पर भी नहीं मिला ।


बहरहाल ,,,,,,।।


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           विवाह हम दोनों के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ । 

विवाह के छह माह बाद ही मेरा स्थानांतरण बालाघाट से लखनादौन हो गया और मुझे अपने सपनों के आकाश को छोड़ कर लखनादौन जाना पड़ा । फोटोग्राफी के नए शौक के कारण मैनें बालाघाट में स्टिल फोटोग्राफी का एक स्टूडियो बना डाला था । नौकरी के कारण ,  प्रकट में उसे में तो  चला नहीं सकता था इसलिए एक मित्र के पिताजी को उसमें बैठने को राजी कर लिया था । किंतु स्थानांतरण होते ही मेरे लिए वहः एक समस्या बन गया ।  उस स्थिति में मैनें अपने चचेरे भाई को चिरगावँ से बुलाया और चाबी उसे सौंप दी और फिर पलट कर उस ओर कभी नहीं देखा । 


     इसी तरह अमर भाईसाहब को भी अपनी रिसर्च अधूरी छोड़ कर नौगावँ वापिस  आना पड़ा । इस परिवर्तन में  उनका मुम्बई का वहः वृहत आकाश छूट गया  जिसमें वे अनन्त ऊंचाई तक उड़ान भर सकते थे ।  नौगावँ एक छोटी जगह थी जहां  संगीत के व्यवसायीकरण का कोई स्कोप नहीं था । उन्होंने जो रिसर्च की थी उसका उपयोग तो वैज्ञानिक के बतौर किसी बड़े संस्थान में नौकरी के अंतर्गत ही हो सकता था तो नौगावँ लौट के वे क्या कर सकते थे । ,,?? 


     फिर भी वे क्यों लौट आये यह बात उनको जानने समझने वालों  के लिए सवाल ही बनी रही । मैनें अपने बचपन से अमर भाईसाहब के बाबूजी को देखा था । वे मितभाषी किन्तु दृढ़ निश्चयी व्यक्ति थे । उनके जैसा ज्ञानी और वकालत में दक्ष कोई व्यक्ति क्षेत्र में तो क्या पूरे प्रदेश में  नहीं था । जब भी में प्रताप के घर जाता ,  बाहर पड़े तख्त पर बहुत से वकील उनसे  राय लेने को बैठे मिलते थे । अक्सर वे मेरे जाने पर , मुस्करा कर प्रताप को आवाज़  दे  कर बाहर बुला लेते या फिर मुझे अंदर जा कर प्रताप से मिल लेने को कह देते ।  प्रताप के बताए अनुसार बाबूजी  अपने युग के एक फ्रीडम फाइटर रह चुके थे । उन्होंने 1927 में बहुत छोटी उम्र में ही केमिकल इंजीनियरिंग से डिप्लोमा कर लिया था । वे गणित के स्नातक थे और साथ ही उन्होंने लॉ भी कर लिया था । गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने अंग्रेजों की नॉकरी छोड़ दी थी और आजीवन फिर गांधी ने के अनुयायी रहे । 

           अपनी मेधाशक्ति से उन्होंने सफल वकालत की और सम्पत्ति भी अर्जित की । नौगावँ में उनकी गणना अग्रिम पंक्ति के लोगों में होती थी । उनकी दलीलें , लॉ के जनरल्स में दर्ज होती थीं और मिसाल की तरह उद्धत की जाती थीं । 

           अमर भाईसाहब को विज्ञान और संगीत में प्रति उन्मुख करने में उन्हीं का योगदान था । उन्होंने ही भाईसाहब को प्रारंभिक संगीत शिक्षा दिलवाने , घर में ही एक शिक्षक में रूप में व्यवस्था की थी  । यही नहीं , सागर और मुम्बई में रिसर्च करने हेतु उन्होंने ही भाईसाहब को उद्यत किया था । 

             तब जब भाईसाहब अपने अभियान में पूर्ण सफल हो गये  तो उन्हें तुरंत विवाह के लिए और नौगावँ वापिस लौटने को उन्होंने क्यों  जोर डाला,,यह  सवाल अनुत्तरित ही रहा । 

                 तब तो नहीं , बाद में प्रताप ने सम्भावित कारण  यह बताया की बाबूजी भाईसाहब को बहुत चाहते थे । भाईसाहब के नाम के पीछे सिंह शब्द लगाने का कारण कोई उपाधि नहीं बल्कि , प्रारंभिक  सन्तानों के मृत्यु के बाद , देर से भाईसाहब के जन्म होने पर , एक सिख डॉक्टर के कहने पर , रक्षात्मक भाव से सिख गुरु  के सिंह शब्द को लगाने की सलाह मांन  कर बाबूजी ने अमर नाम मे साथ सिंह शब्द जोड़ा । जब भाईसाहब जन्मे , तब बाबूजी 43 वर्ष पार कर चुके थे । इसलिए 72  वर्ष की उम्र में  आते आते वे अब पौत्र का मुख देखने को लालायित थे और कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे । वे चाहते थे कि उनकी अचल संपत्ति की देख रेख भी अमर भाईसाहब  नौगावँ रह कर  करें क्योंकि  इतनी सम्पत्ति के होते भाईसाहब उनसे दूर , परदेश  रहें यह उन्हें मंजूर नहीं था । 


             कोई भी कारण हो ,, पुत्र प्रेम , अथवा भावनात्मक आधार   ,,,इस निर्णय ने भाईसाहब की दिशा ही बदल दी ।। विवाह तो अवश्यम्भावी है ,,वहः समय पर होना निश्चित था ,,जो हुआ ,,किन्तु मुम्बई छोड़ कर नौगावँ लौट आना उनके हित में लिया निर्णय साबित नहीं हुआ ।


   किन्तु यह तो अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों की नियति ही है । बड़े पुत्र को अक्सर बुजुर्गों के निर्णय शिरोधार्य करने ही होते हैं ।  कई बार परिवार और माता पिता के सुख के लिए अपनी आकांक्षाओं को त्यागना ही पड़ता है ।


        और अमर भाईसाहब इसके अपवाद नहीं थे ।


--' -सभाजीत


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   लखनादौन, बालाघाट नगर की अपेक्षा  बहुत छोटा कस्बा था । किन्तु जबलपुर - सिवनी - नागपुर मार्ग पर स्थित होने के कारण एक  जीवंत कस्बा था । यहां से सागर जाने के लिए एक मार्ग फूटता था और एक मार्ग घँसौर जाने के लिए भी । 

        स्थान परिवर्तन के कारण , अब मुझे एकबार फिर अपरचितो के मध्य अपनी पहचान बनाने का नया काम जिम्मे आ गया । इस बार मेरे विभागीय कार्यशैली में भी  एक नया परिवर्तन आ गया था । अब मैं विद्युत वितरण के कार्य से हट कर  विद्युत लाइनों के निर्माण के उपसंभाग में आ गया था । यह मेरे लिए नई फील्ड तो नहीं थी ,,किन्तु इसमें मुझे अधिकतम गावों में होने वाले विस्तार कार्यों के निरीक्षण हेतु नगर से हट कर बाहरी स्थलों में ही रहना आवश्यक था । 

           किन्तु फिर भी जल्दी ही  मैनें उस  कस्बे में संगीत  प्रेमियों को ढूंढ निकाला ।  छोटा कस्बा होने के कारण वहां वाद्यवृंद और वादक तो नहीं थे किंतु गायक बहुत थे । वे लोग सप्ताह में , एक अलग कमरे में मिल कर बैठते और गज़लें और फिल्मी गीत गाते । 

             वे दिन चित्रा सिंह और जगजीतसिंह  के उभार के दिन थे । उनकी कोई नई ग़ज़ल आते ही लोग उस पर अपने अपने स्वरों में गाने हेतु पिल पड़ते । उन गायकों के समाज ने जल्दी ही प्रेमपूर्वक मुझे अपना लिया । वे मेरे डबलनेक गिटार वादन के कायल  हो गये  और जब कभी में उनके बीच उपस्थित न होता तो वे मुझे घर आ कर पकड़ ले जाते । मेरी पत्नी उस समय नौगावँ में ही , अपने सास ससुर के संरक्षण में रहीं क्योंकि वे मेरी प्रथम सन्तान को जन्म देने वाली थीं । 


           उधर , मुम्बई से वापिस ,नौगावँ लौट कर आने वाले अमर भाईसाहब ने भी अब अपनी अगली  पारी खेलने की कोशिश की । करीब दस वर्ष पूर्व नौगावँ छोड़ देने  वाले भाई साहब के लिए अब अपना ही गावँ अपरचित हो गया था । उनके युग के स्कूल के साथी तो कब के , अपने दाने पानी की तलाश में घोंसले छोड़ कर उड़ चुके थे । अब समान अधिकार से अंतरंग चर्चा करने वाला  उनका कोई सम वयस्क साथी नौगावँ में नहीं बचा था । अलबत्ता ,,संगीत के साथी के रूप में मुम्बई से मेंडोलिन सीख कर लौट शिवोम जरूर वहां उपलब्ध थे । प्रदीपराव भी लौट आये थे किंतु उनका एकोर्डियन खराब हो चुका था और वे एकोर्डियन बजाना छोड़ चुके थे । संगीत में एक ही बड़ी उपलब्धि नौगावँ को थी कि वहां  आदरणीय चाचाजी श्री रामरतन अवस्थी जी की सुरीली बेटी अर्चना अभी मौजूद थी । 

               वैसे छतरपुर में खुला आकाशवाणी केंद्र अब सभी रचनाकारों और संगीतकारों का आश्रय बन चुका था । युवा वाणी कार्यक्रम के तहत जहां क्षेत्रीय कलाकार अपनी गायन वादन  कला को प्रस्तुत करने लगे थे ।  वहीं इन्ही कलाकारों में छतरपुर के एक हरफन मौला कलाकार ,,सरदार मनोहर सिंह भी तेजी से उभर रहे  थे ।


             जमीनी सम्पदा की जिस देखरेख के लिए बाबूजी ने अमर भाईसाहब को बुलाया था वहः अब टेढी  खीर हो चुकी थी । चारों ओर बिखरी जमीन पर लोग अब अवैध कब्जा कर लिए थे जिसे हटाना आसान काम नहीं था । फौजदारी भाईसाहब कर नहीं सकते थे और अदालतों के मुकदमों में फैसले वर्षों तक होने वाले नहीं थे । 

              इसलिए उन्होंने अपने  प्रिय विषय संगीत को चुना और अलंकार्स ग्रुप के नाम से एक ग्रुप बनाया ।  उन्होंने संगीत के क्षेत्र में , नौगावँ - छतरपुर की दूरी को पाटने का संकल्प लिया और मनोहर सिंह को राजी किया कि वहः सभी वाद्य यंत्र खरीदे और ग्रुप में हुई आय से अपने वाद्ययंत्रों का किराया अलग से ले ले । मनोहर सिंह ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और जाज़ ड्रम सैट सहित सभी वाद्ययंत्र तथा साउंड सिस्टम को खरीद लिया ।

       

                 इस तरह एक अत्यंत सक्षम और मधुर आर्केस्ट्रा ग्रुप आनन फानन में तैयार हो गया । उन्होंने इस ग्रुप के संगीत निर्देशन का काम सम्हाला । वे परफेक्शन के पक्षधर धे । इसलिए उनके निर्देशन में सभी प्रस्तुतियां आकर्षक और मधुर बनीं ।  अलंकार्स ग्रुप ने जल्दी ही अपनी साख कायम कर ली ।  यह ग्रुप क्षेत्रीय कलाकारों का ग्रुप बना जिसमें नौगावँ  के कलाकार तो शामिल हुए ही ,,ड्रम वादक कामेश अवस्थी और उद्घोषक कुलदीप सक्सेना ने भी सतना से छतरपुर जा कर अपनी प्रतिभा दिखाई ।  इस वरूप में अर्चना अवस्थी की मधुर आवाज एक निधि थी ।  मुझसे 20 वर्ष छोटी मेरी सबसे छोटी बहिन मृदुला भी इसमें एक गायक सदस्य बनी ।करीब दो तीन वर्ष तक साथ रहने के बाद इस ग्रुप में मतभेदों के कारण बिखराव आ गया और यह ग्रुप विखंडित हो गया । 


             वर्ष 1979 के  सितंबर माह में मेरी बड़ी बेटी ने जन्म लिया । उसी वर्ष एक माह पहले ही  अगस्त 1979 में अमर भाईसाहब के घर में उनकी बड़ी बेटी ने जन्म लिया । यह संयोग ही था कि जिस एकमाह के अंतराल में हम लोगों का वर्ष 77 में विवाह हुआ था उसी एक माह के अंतराल में हमारे घर में हमारी पहली बेटियों ने जन्म लिया । आगे भी यही अंतराल बना रहा और मेरे यहाँ दो बेटियां और एक बेटे ने जन्म लिया और उनके घर में भी इसी क्रम में बेटियां और बेटा ,,तीन संतानें आईं ।


        बड़ी बेटी के जन्म के बाद , में अपनी पत्नी को भी लखनादौन ले गया । हम लोगों ने अपनी नई नवेली गृहस्थी बसाना शुरू किया । अब तक लखनादौन में मेरा वृहत परिचय लोगों से हो चुका था । बालाघाट में रहते हुए  एक व्यक्ति ने मुझे फ़िल्म लाइन का जानकार मानते हुए किरनापुर में अस्थाई टूरिंग टाकीज खोलने की इच्छा जाहिर की थी ।

           उन दिनों ही नागपुर में आज के प्रसिद्ध  फ़िल्म क्रिटिक श्री जयप्रकाश चौकसे ने सस्ती जनता टाकीज खोलने का बीड़ा उठाया था ।  वे फ़िल्म टाकीज और फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स के एकाधिकार के  विरुद्ध एक बहुत साहसिक लड़ाई लड़ने जा रहे थे । उन्होंने सुपर 8 एम एम के प्रोजेक्टर में एक ज़ूम लेंस लगा कर , 8×12 फ़ीट के स्क्रीन पर व्यावसायिक टाकीज के बराबर प्रोजेक्शन तैयार कर दिया था । इन प्रोजेक्टर्स में फ़िल्म प्रिंट भी सुपर 8 एम एम का लगता था जो सस्ता था  । तो जहां व्यावसायिक 35 एम एम की टाकीज 70 लाख में तैयार होती थी वहीं गावों में मात्र एक लाख में जनता टाकीज बनने लगी थी ।

         मैनें नागपुर जाकर चौकसे जी से बात की और तब किरनापुर में टाकीज खोलना तय हो गया । किन्तु बालाघाट से स्थानांतरण के बाद  वहः काम अधर में ही रह गया । अब लखनादौन में कुछ उत्साही लोगों ने जनता टाकीज खोलने का मन बनाया तो मैनें उन्हें सहयोग दिया ।

          लेकिन तभी फिर एकबार मेरे लखनादौन से सतना स्थानांतरण का आदेश मुझे थमा दिया गया तो मैनें विभाग में ही बागी बनने का निश्चय कर लिया । वहः आदेश 120 जूनियर इंजीनियर का एक मुश्त आदेश था । मैनें जम कर यूनियन बाजी की । पत्नी और शिशु बालिका को नौगावँ छोड़ा और जा कर जबलपुर में विभाग के विरुद्ध अपनी यूनियन के साथ डट गया । जिस अधिकारी ने आदेश पारित किया था उसके विरुद्ध कर्मचारियों को अनावश्यक सताने और नियमाविरुद्ध गलत मंशा से आदेश देने का  केस दायर कर दिया । यह लड़ाई तीन माह तक चली किन्तु मैं एक जुझारू नेता के रूप में अपने इंजीनियर बंधुओं के बीच  पूरे विभाग में प्रसिद्ध हो गया । बाद में कोर्ट ने  स्थानांतरण को नियोक्ता का अधिकार मानते हुए हमारी अपील खारिज करदी तो मुझे अंततः सतना आना ही पड़ा । लखनादौन केलोगों ने मुझे भावभीनी विदाई दी ।

              सतना आते ही मेरे कर्मचारी बंधुओं   ने मेरा फूलमालाओं से स्वागत किया । अब मैं पूरी तरह कामरेड बन गया था । बढ़ी हुई दाढी , कुर्ता और कंधे पर थैला लटका कर में विभाग के ओर छोर नाप चुका था । इसलिए सतना के अधिकारियों ने भी मुझे निंदक नियरे राखिए की नीति के अंतर्गत सतना में ही इंडस्ट्रियल एस्टेट के क्षेत्र का वितरण केंद्र कुलगवां थमा दिया ताकि मेरी गतिविधियां  उनकी निगाह में रहे  ।  अब घर से ही मेरी यूनियन गतिविधियां चलने लगीं । एक आया , एक गया ,,जैसे कई साथी अपनी समस्या लेकर आते और में उनका निवारण करता ,,उनके लिए अधिकारियों से जूझ जाता । प्रदेश स्तर में भी में सीडब्ल्यूसी का महत्वपूर्ण सदस्य था इसलिए बाहर से भी पत्राचार चलने लगा ।  इस आपा धापी में , मैं संगीत , फ़िल्म , फोटोग्राफी , गिटार सब  भूल गया । एकतरह से उन दिनों में संघर्ष शील हो गया ।


               अमर भाईसाहब भी उन्हीं दिनों। संघर्ष शील हो गये  थे ।  एक ओर जमीन जायदाद के केस , दूसरी ओर पारिवारिक दायित्व  और तीसरी ओर संगीत ग्रुप का बिखरजाना । तो उन्होंने भी फोटोग्राफी को व्यवसाय बना कर कैमरा उठा लिया ।   वे साधारण फोटोग्राफर तो थे नहीं । उनके लिए कैमरा डिवाइस नहीं बल्कि वैज्ञानिक उपकरण था । वे फोकल लेंथ , शटरस्पीड , एपर्चर , फ़िल्मस्पीड , डेप्थ ऑफ फील्ड , फ्रेमिंग के समीकरण में निष्णात थे तो उनकी खींची फोटो कुछ अलग हट कर क्लासिक ही होती थीं ।  उन्होंने अपने परिचितों के विवाह में व्यावसायिक हो कर फ़ोटो खींचने का काम किया । किन्तु व्यावसायिक मानसिकता और गुर तो उनमें था नहीं तो यह काम भी उन्होंने छोड़ दिया । वहः समय स्लाइड फोटोग्राफी और प्रोजेक्टर पर फ़ोटो दिखाने का था । कई बार यदि किसी की  स्लाइड वे खींच भी देते तो बिना प्रोजेक्टर तो वहः उपयोगी सिद्ध होती ही नहीं । दूसरे बिना स्टूडियो या शॉप के , फ्री लानसिंग फोटोग्राफी का युग नहीं था । मैगज़ीन फोटोग्राफी के लिए यदि वे उस समय ठान लेते तो दूसरे रघुराय वे जरूर होते । 


                  सतना में कामरेडी करते हुए मुझे एक दिन लगा कि मैं अपनी राह से भटक रहा हूँ । ईश्वर ने मुझे इस  काम के लिए नहीं भेजा है तो मैंने पुनः अपनी कलात्मक टीम ढूंढना शुरू किया और फिर एक बार उस ओर मुड़ गया । इस बीच मुझे यह भी भान हुआ कि बड़े होने के नाते मेरे अन्य भाई बहिनों के विवाह का कार्य भी मेरे कंधे पर है तो में उनके लिए सुयोग्य वर ढूंढने और उनके विवाह के अभियान में भी जुट गया ।


            भाईसाहब भी परिवार में बड़े थे ,,तो उन्हें भी यही भान हुआ और वे भी अपने परिवार के लिए इसी अभियान में जुट गए ।


                 इस बीच  हमारे बीच के कॉमन शौक गिटार को उन्होंने भी पार्श्व में रख दिया और मैनें भी । किन्तु मुझे फ़िल्म निर्माण हेतु एक अच्छी टीम मिल गयी तो मैं उसे भी साथ साथ करता चला गया जबकि वे फोटोग्राफी और संगीत से विरक्त होते चले गये  ।


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,," जीवन की संकरी गलियों में , 

   भटक न जाऊं कहीं अकेला ,,!!  " 


      बहुत पहले ,  क्षात्र जीवन में , ये पंक्तियां मैनें , एक गीत के मुखड़े के रूप में लिख दीं थी । उस उम्र में  भाव बोध तो था किंतु न तो जीवन की परिभाषा मालूम थी और न संकरी गलियों में भटकने का यथार्थ । 

      जब जीवनपथ पर चला तो शहर , गावँ , गली सभी  यथार्थ बन कर सामने आए ।  भाईसाहब के सामने यह यथार्थ प्रश्नचिन्ह  बन कर आया ।

       

          अपने प्रारंभिक जीवन में उन्हें कभी असुरक्षा का भाव नहीं जागा । वे एक ऐसे वटवृक्ष की छाया में थे जिसकी छाया के क्षीण होने की कल्पना वे कर ही नहीं सकते थे । किंतु वट वृक्षों की भी एक उम्र होती है , यह विचार वे कर ही नहीं सके । वे घर के बड़े सदस्य थे ।  उनके जिम्मे कई काम उनकी बाट जोह रहे थे जिनमें घर के शेष सदस्यों की शादी व्याह करना भी उनके जिम्मे थी ।  नौगावँ  वापिस लौटने के बाद  आठवर्षों के अन्तराल में उन्होंने  जुट कर अपना यह दायित्व निभाया । बहिन के विवाह के बाद उनके पिता बाबूजी का अस्वस्थता के कारण देहांत हो गया और उन्हें तब जमीनी कठोरता का सामना करना पड़ा । 

         उन्होंने लोगों की वहः स्वार्थपरिता देखी जो उनके पिता की भलमनसाहत के तले पनपी थी । उनके पास अचल संपत्ति थी लेकिन वहः एक कागज के टुकड़े से ज्यादा मूल्यवान नहीं थी  । जीवकोपार्जन हेतु  उन्हें वहः अचल संपत्ति कोई  नियमित धनोपार्जन में कोई सहायता नहीं दे सकती थी ।  लोगों ने जमीन को लावारिस समझ कर उस पर अवैध कब्जा कर लिया था । कब्जे हटवाने का अर्थ था ,,एक लंबी अदालती लड़ाई ,, जिसमें जिंदगी खप जाना निश्चित था ।  

          

          उधर उनकी अपनी खुद की गृहस्थी भी बड़ी हो रही थी । बच्चे बड़े हो रहे थे , उनके विद्यार्जन और उन्हें निश्चित दिशा देना भी उनके दायित्वों में  शुमार था । उन्हें यह भी लगा कि विवाहोपरांत वे अपने परिवार को वहः सब कुछ नहीं दे पाए थे जो उन्हें देना चाहिए था । 


      इसलिए उन्होंने सबकुछ छोड़ कर पहले एक नौकरी करना जरूरी समझा । कला के क्षेत्र से धन कमाने का प्रयास करकेँ वे देख चुके थे जो असफल सिद्ध हुआ था । अब नियमित जीवन के लिए नौकरी ही एक विकल्प था इसलिए उन्होंने छतरपुर में , एक क्रिश्चियन स्कूल में नौकरी ज्वाइन कर ली । जो व्यक्ति भारत का एक श्रेष्ठ वैज्ञानिक बनने  की क्षमता रखता था , जो  खुद एक  उत्कृष्ट संगीतज्ञ था , जो दूसरों के लिए आदर्श था , वहः जीवन की संकरी गलियों में फंस कर एक छोटी सी नॉकरी से समझौता  कर लिया था ।

        सतना , जैतवारा , नागौद , मैहर की गलियां छानते हुए , वर्ष 1989 में पदोन्नति पाकर ,,, प्रतिनियुक्ति पर मैं एक बार फिर नौगावँ पहुंचा । भाईसाहब उन दिनों नौगावँ में ही थे । वे प्रति रविवार मुझसे बात करने घर आ जाते या फिर में उनके पास पहुंच जाता । इस दौरान हम लोग गिटार से विरक्त हो चुके थे । मैनें तो गिटार बजाना बंद ही कर दिया था ,, उन्होंने  भी गिटार नहीं छुआ था । फिर भी बात संगीत की ही होती ।


           नौगावँ अब वहः नौगावँ नहीं रह गया था । में अपने पुराने साथियों को तलाशता तो या तो उनके पुत्र मिलते या फिर एक्का दुक्का वो लोग , जो निरन्तर मेहनत  करकेँ थक चुके थे । नौगावँ में विद्युत सोसाइटी षड्यंत्रों और भरस्टाचार का अड्डा बन गई थी । अपनी आदतों से मजबूर एक बार फिर में यहां भिड़ गया । लेकिन इस बार  मुझे उन लोगों से सामना करना पड़ा जो अपने थे और जो कभी सहपाठी भी रह चुके थे । इन विपरीत परिस्थितियों में मैं अपने निवेदन पर नौगावँ से स्थानांतरण ले कर रीवा जिले के दस्यु ग्रस्त क्षेत्र त्योंथर में आ गया । 

          मैनें उनदिनों अनुभव किया कि भाईसाहब विचिलित हैं । उनका संगीत क्षेत्र एकांत  हो गया था । शिवोम  वहां से दुर्ग रायपुर जा चुका था । मनोहर की छतरपुर में संगीत वतिविधियाँ शून्य थीं । वे धीरे धीरे खुद में सिमट रहे थे । किसी की परामर्श सुनना पसंद न करते ।  उनके पास विज्ञान का समुद्र था वे सबको बांटना चाहते थे लेकिन ग्रहण करने वालों  का उनके पास अभाव था । उनमें एक छटपटाहट थी ,,,किसी ऐसे व्यक्ति के साथी संगी की ,, जो उनकी रुचियों से सांझा कर सके लेकिन वैसा व्यक्ति उनके पास नहीं था ।


          त्योंथर आने के दो वर्षों बाद में रीवा आ गया और 12 वर्ष रीवा में  रहा । 2004 में स्थानांतरित हो मंडला गया और 2009 में रिटायर हो कर सतना में स्थित हो गया ।

 इस दौरान दो तीन बार नौगावँ जाना हुआ ।  भाईसाहब  कभी मिले ,,कभी नहीं मिले ।  असल में वे छतरपुर छोड़ कर इंदौर में एक स्कूल में एडमिनिस्ट्रेर के पद पर नौकरी करने चले गये  थे और वहीं रम  गये थे । अब फोन पर उनसे बीच बीच में वार्तालाप हो जाती थी । 

            इसी बीच  छोटी बेटी के विवाह के सिलसिले में  जबलपुर जाते हुए वे  मेरे यहाँ  रात में सतना   रुके ।  मेरी पत्नी ने उनके लिए पराठे बनाये तो उन्होंने बताया कि यह उनके लिए निषेध है । तेल घी उन्हें नुकसान कर रहा है और उन्हें आंतों में कष्ट होता है ,,खाना नहीं पचता । तो मेरी पत्नी ने उन्हें तुरंत गर्म रोटी बना कर खिलाई । उन्होंने हार्दिक खुशी जाहिर की और उन्हें आशीष दिया  । देर रात वे कई मुद्दों पर चर्चा करते रहे जिनमें उनके पारिवारिक मुद्दे भी शामिल रहे ।


             इस बीच वे मेरे फेसबुक मित्र बन गये ।  कई पोस्ट पर वे बेबाक टिप्पणी करते ।  मुद्दों पर तर्क वितर्क होता । तभी एक बार मुझे नौगावँ रामलीला कमेटी ने विगत में राम का अभिनय करने के सन्दर्भ में , सम्मानित करने बुलाया तो मैं रात में  प्रताप के घर रुका । संयोग से भाईसाहब भी वहीं थे । उस रात हमने एक बार कम्प्यूटर पर फिर चैट एटकिन्स को मिलकर सुना । भाइसाहब देर रात तक और अन्य कई विदेशी गिटारिस्टों के गिटार वादन को सुनवाते रहे ,,उनकी विशिष्टताओं की व्याख्या करते रहे ।  उन्हें बहुत दिनों बाद मैं मिला था तो उन्होंने मुझे बताने समझाने का कोई मौका न छोड़ा ।


          दो तीन वर्षों  बाद अचानक उन्होंने बताया की  उन्हें कैंसर डिटेक्ट हो गया है । किन्तु डरने की कोई बात नहीं वे ठीक हो जाएंगे । मुझे धक्का लगा किन्तु आशा  भी बंधी के वे ठीक हो ही जाएंगे । अब हम लोगों के बीच बातचीत की फ्रीक्वेंसी बढ़ गई । में बीच बीच में उनकी खोज खबर लेने लगा । उन्होंने कहा कि डॉक्टर के कहने पर उन्होंने अपना गिटार झाड़ पोंछ कर निकाल लिया है । वे अब प्रफुल्लित रहने के लिए निरन्तर गिटार बजाएँगें तो मुझे  प्रसन्नता हुई और भय भी  जागा  कि डॉक्टर  ने ऐसा क्यों कहा ।


          अब जब भी वे फेसबुक में कोई संगीत की अथवा अपने बजाए गिटार की पोस्ट डालते  ,,तुरत फोन करके कहते कि सभाजीत इसे सुनो ,,और अपनी टिप्पणी दो । यदि मुझे एकाध दिन विलम्ब हो जाता तो वे इस बीच मुझे दो तीन बार याद दिलाते की मुझे तुम्हारी टिप्पणी का इंतज़ार है । बदलेमें में भी उन्हें अपने लिखे लेख भेजने लगा । देश की सामाजिक स्थिति से भी वे बहुत विचलित  होते तो फोन करके उन मुद्दों पर बात करते । 


             कैंसर उन्हें दिनों दिन ग्रस रहा था लेकिन अपने दर्द को वे किसी पर उजागर  नहीं होने दिए । वे मौका ढूंढते की अपने संचित ज्ञान विज्ञान को वे किस से शेयर करें  और वे किसे सौंपें । मेरे लेखों पर वे दिल खोल कर टिप्पणी करते । आडम्बरी देवी भक्तों पर लिखा ,," सिंहवाहिनी " लेख उन्हें बहुत पसंद आया । 


               एक बार मैनें उन्हें नारी विमर्श पर लिखा एक  लेख " सीता वनवास " भेजा । जब प्रतिक्रिया जानने को फोन लगाया तो मैनें देखा वे फोन पर सुबक रहे थे । रुंधे गले से वे बोले --' सभाजीत । में  इसे पढ़ते हुए  रो रहा हूँ । तुम कुछ देर बाद बात करना ।  

           

               में हतप्रभ रह गया । मुझे आश्चर्य लगा कि जो व्यक्ति कुछ वर्षों से कैंसर के भीषण दर्द को भीतर ही भीतर  झेल रहा है वहः मानवीय संवेदनाओं को झेलने में कितना असमर्थ है ,,??  


               पाँच वर्षों तक कैंसर झेलते हुए भी उन्होंने संगीत को अपनी श्रेष्ठ भेंट,,, गिटार वादन के रूप में  सौंपी । उनके पास  खुद का अच्छा गिटार नहीं था । उन्हें दूसरों के गिटार से संतोष करना पड़ा । किन्तु उन संकरी गलियों से गुजरते हुए भी भटके नहीं । उन्होंने संचित ज्ञान , विज्ञान , और कला को अविरल बहने दिया ,,दूसरों की प्यास बुझाने हेतु ।


                    सबको मालूम था कि उनका जाना निश्चित है किंतु सब चाहते थे कि वे न जाएं ।  उन्होंने भले ही कुछ कमाया नहीं किन्तु वे मुक्त हस्त से वहः सब बांट देना चाहते थे जो उन्होंने संचित किया था । दैव योग से में अपने कुटुंब का सबसे बड़ा पुत्र हूँ । लेकिन मैं फिर भी अपने से बड़े एक भाई को सदा ढूंढता रहा ताकि उससे कुछ ले सकूं ।  

                

                     अमर भाईसाहब मेरे अचेतन मन में भी सदा स्थित रहे ,,उसी बड़े भाई की तरह जो शायद मुझ  जैसा  ही था ।

         आज भी लगता है फोन आएगा ,,,और वे कहेंगें ,

  ,,,.  जल्दी से एक निवेदन सुन लो सभाजीत ,,! और फिर घण्टो बतियाएंगे , निर्देश की शैली में  अपनी बात कहते हुए  ,,!! " 


*********


            मध्यमवर्गीय परिवार में प्रतिभाएं जन्मती हैं  किंतु प्रारब्ध में अपने कंधों पर हजारों दायित्व लिए ।  उस पर भी घर के बड़े होने के नाते उनके हिस्से में  तथाकथित ' बड़प्पन ' हाथ आता है । वे इस बड़प्पन को निबाहते हुए अपने दर्द भी अपने से छोटों से शेयर करने से परहेज केरते हैं ।  विडम्बना यह भी है की  परिवार के बुजुर्गों और माता पिता को भी इन बड़ों से ही  उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति की आशा रहती है ।

             बड़े होने के नाते पुरुष को विवाहोपरांत कुछ वर्षों तक द्वंद में रहते हुए , एक हाथ में शेष परिवार का स्नेह , और एक हाथ में नवागत पत्नी का प्रेम , आकांक्षाएं सम्हाल कर , संतुलन के साथ एक पतली रस्सी पर चलना पड़ता है । यह रस्सी आर्थिक आधार की होती है जिस पर संतुलन रखे चलना सम्भव है । 

              लेकिन इस कठिन परीक्षा के दौर से गुजरना बहुत बड़ी चुनोती है ।  इस परीक्षा में अक्सर खुद की आकांक्षाएं बलि भी चढ़ जाती हैं ।


               यह परिणीति दुखद है ,,किन्तु स्वाभाविक भी । मेरे मित्र शरद श्रीवास्तव ने लिखा है ,,


" ,,कैसा लगता न जाने ,,?? 

           किसी मे कंधे पर लद कर बड़े हुए ,

                  फिर हम पैरों पर खड़े हुए ,,!

                     अपने कंधे पर नया बोझ लदवाने,,।।


                   नयन की परिधि से बड़ा ,,

                             प्रश्नचिन्ह सम्मुख खड़ा ,,

                                  क्या जीने के नाम जिएंगे ,,

                                       बीता  क्रम दोहराने ,,??


                              

         और उत्तर खुद कवि ही देता है --


                       दिन रात धरा भी दोहराती,,

                                पर परिक्रिमा भी कर जाती,

                     काश धुरी पर मैं भी घूमूं ,

                           नया पृष्ठ जुड़वाने ,,।।


   और शायद यही जीवन है और यही नियति भी ।।


 - " सभाजीत " 


   !! इति !!