अपनी रचनाएं मैं कहीं भी करीने से संजोकर नहीं रख पाया । कुछ जरूर ब्लॉग में लिखने के कारण दिख जाती हैं किंतु बहुत सी तो यदाकदा शरारती बच्चे की तरह , यहां वहां से कूद फांद कर मेरी गोद में आ कर चढ़ जाती है ,,,। इन्ही में से एक यह रचना है जो वर्ष 2009 की एक स्थानीय पत्रिका ,,' उपनयन ' में छपी थी और अचानक आज पुरानी धूल झाड़ते हुए टपक पड़ी ।
लिखने के बाद , मुझे भी यह रचना अच्छी लगी थी तो आज इसे पुनर्जीवित कर रहा हूँ ,,।
आप भी आनन्द लीजिए ,,,,,,,।
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' किस्सा ए तोता मैना ' ,,!!
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रोज़ की तरह , तोता अपनी प्रिय डाल पर आकर बैठ गया ।
वहां उसकी साहित्यिक प्रतिद्वंदी ,,' मैना ' ,,पहले से ही आकर वहां बैठी थी । दोनों ने एक दूसरे पर निगाह डाली , और फिर एक दूसरे को निगाहों से तौलने लगे ।
तोते ने मैना से पूछा --" आज मर्दों की बेवफाई पर कोई कहानी नहीं कहोगी ,,??"
मैना ने एक निगाह तोते पर निगाह डाली और फिर निर्विकार भाव से बोली ,,,
-" मेरे पास तो आज कुछ कहने को नहीं है ,,मुझे तो ऐसा लगता है कि जो कुछ पहले कहा ,,वहः भी गलत है । "
--" क्यों,,?? ,,तुम तो औरतों की बड़ी हिमायती ,और मर्दों की आला दर्जे की आलोचक रही हो ,,आज ये बदला हुआ अंदाज़ क्यों ,,??
मैना ने एक गहरी निगाह तोते पर डाली । ,,,तोता भी कुछ उदास उदास था ,,लेकिन एक चतुर साहित्यकार की तरह अपनी उदासी छुपाने की कोशिश कर रहा था । मैना ने एक अर्थपूर्ण द्रष्टि उस पर डालते हुए कहा ,,
" हम औरतों के पास ,,' अंदाज़ ' ही तो है ,,जो ' बदलते ' रहना चाहिए ।,,ये कहो कि तुम उदास क्यों हो आज ,,? ,,क्या कुछ सोचते रहे रातभर ,?? "
--" सोचने से हम तोतों का क्या सरोकार ,,! ,,हम तो तोते हैं ,,,रट्टू तोते ,,!!,,दूसरों से लिया ज्ञान ,,यहां वहां ,,बघारने वाले तोते,,!!,," ---तोते ने उंसाँस भरते हुए अपनी आंखें दूसरी ओर घुमा ली ।
मैना ने तोते की उदासी ताड़ ली । थोड़ा अपनत्व भरे स्वर में बोली --" ऐ तोते,,!,,नज़रें न घुमा ,,! ,,सच सच बता क्या हुआ तेरे साथ ,,? ,,क्या औरतों की कोई बहुत बड़ी बेवफाई का हाल तूने खुद देख लिया ,,? "
अपनत्व भरे बोल तोते की कमजोरी थे । मैना को मीठे मीठे बोलते देख वहः पंख फड़फड़ाने लगा । फिर धीरे से पंजा उठा कर बोला ,,," मुझे दक कांट्रेक्ट मिल गया था ,, कुछ दिन उसी के चक्कर में फंस गया था । "
--" कांट्रेक्ट ??,, कैसा कांट्रेक्ट ,,?? -"--मैना ने अपनी बड़ी बड़ी आंखें विस्मय से घुमाई ।
--" कांट्रेक्ट ,,!!,,,स्क्रिप्टिंग का कांट्रेक्ट ,,!! "
-" स्क्रिप्टिंग का कांट्रेक्ट ,,?? ,,,यानि अब तुम कहानी कहने की जगह स्क्रिप्टिंग करने लगे ,,?? ,,अरे वाह,,!,,क्या तुम स्क्रिप्ट लिखोगे ,,??"
--" नहीं ,,!,,मैं लिखना तो जानता नहीं ,, लेकिन जो मैं बोलता हूँ। लोग उसे ही लिखना शुरू कर देते हैं ,,।"
-" तो तुम सरेआम बोलते ही क्यों हो ,,?? "
--" कहा न ,,' कांट्रेक्ट ',,!! ,,मुझे कांट्रेक्ट मिल गया था ,,।। कांट्रेक्ट ईमानदारी से पूरा करना जरूरी होता है ,,!"
-" अच्छा तो किसने दिया यह कांट्रेक्ट ,,??"
-" एक प्रोड्यूसर ने ,,!"
--" प्रोड्यूसर ने ,,?? ,,कौन है यह दिलदार प्रोड्यूसर ,,??"
--" वहः प्रोड्यूसर है ,,,दिलदार नहीं ,,। ,,दिलदारी और प्रोड्यूसरी ,, नदी के दो जुदा जुदा पाटों मि तरह होते है ,,"
-" चलो ठीक है ,, ! ,,मैं भी तो जानूं उस प्रोड्यूसर का नाम ,,!! "
- " नाम में क्या रखा है ,,,हाँ मैं उसके काम के बारे में बता सकता हूँ । "
--" ,चलो यही सही,,! ,,भला क्या करता है तुम्हारा यह प्रोड्यूसर,,?"
--" करता नहीं ,,करती है कहो,,! ,,वह एक औरत है ,,!"
- " तुम एक औरत के लिए काम करने लगे ,,?? ,,अरे तोते,,!,,तुम तो औरतों के धुर विरोधी रहे हो ,, ।,,उसकी बेवफाई की हज़ारों कहानियां ,,इसी डाल पर बैठ कर तूने मुझसे कही ,,! ,,फिरभी औरतों के लिए काम करने पहुंच गये,,??"
- " मैं खुद नहीं गया ,,उसने मुझे खबर भिजवाई थी ,,कि वहः औरतों की बेवफाई पर सीरियल बना रही है ,,पूरे सीरियल में औरतों का करेक्टर ' विलेन ' का ही रहेगा ,,।"
-" छी छी,,!,,एक औरत हो कर औरतों पर ही कीचड़ उछालती है वो,,?,,क्या हमजात औरतों के लिए कोई हमदर्दी नहीं उसके दिल में ,,?"
-" दिल,,?,,मैनें पहले ही कहा ,,दिल है ही कहाँ उसके पास ,,? ,,वह तो प्रोड्यूसर है ,,दिलदार नहीं ,,!"
-" बहुत खूब,,! ,,तुम बाज नहीं आये तोते,,!!, औरतों की बेवफाई को दुनिया में दिखाने के लिए अब सीरियलों में घुस गये,,? ,,अभी तक तो डाल से ही टर्राते थे ,,!"
-" मैनें कहा न ,,मैं खुद नहीँ गया था वहां,,--मुझे बुलाया गया था ,,!"
-" क्या फर्क पड़ता है ,,,तुम तोते होते ही ऐसे हो ,,। ,,औरतें जरा सा दाना डाल दें तो जहन्नुम में भी पहुंच जाओगे,,,और फिर तमाचा पड़ जाए तो लौट कर औरतों की बेवफाई पर किस्से गढ़ कर सुनाने लगोगे,,।,,,मैं जानती थी,,,।,,,तुमसे यही उम्मीद थी । ,,"
-" तुम गलत समझ रही हो मैना ,,!,,मैं,, वैसा तोता नहीं हूँ ,,! "
-" ठीक है ,,! ,,तो वहां क्या झखमारते रहे ,,बतलाओ,,!"
-" वहां उन्होंने मुझे एक एसी होटल रूम में रखा । फिर सोने का पिंजरा भी दिया ,,,जिसमें एक खुला हैंगर भी था । उन्होंने कहा ,,' मैं जैसे चाहूं वैसे रहूँ,, उन्हें कोई हर्ज नहीं ,,!"
-" अच्छा तो फिर,,? "
-" फिर पहले मेरी खातिरदारी हुई,,! "
-" खातिरदारी ,,? ,,कैसी खातिरदारी,,??"
-" एक आदमी चांदी की कटोरी में लाल अनार में दाने भर कर लाया ,,मेरा स्वादिष्ट भोजन ,,!,,वर्क लगा अमरूद,,! ,,मीठी मिर्ची ,,,वगैरह,,! "
-" मीठी मिर्ची ,,?? ,,अरे तोते ,,!,,क्या तेरी अक्ल फिर गई है ,,?? ,,मिर्च कहीं मीठी होती है ,,???"
--" पता नहीं,,, उन्होंने कहा ,,मिर्च की नई प्रजाति है,,। ,,शक्कर की तरह मीठी,,,,देखने में पूरी लाल लाल मिर्च ,,विदेशी है ,,!"
-" बहुत खूब ,,! ,,अब तुम कहोगे की अनार के दानों का स्वाद मिर्च की तरह तीखा था ,,,क्यों,,?? "
-" बिल्कुल सही ,,",,-तोता चोंक उठा --,," तुम्हें कैसे पता ,,?? ,,तुम तो अनार खाती नहीं ,,?"
-" तुम्हारी इस अफीमी कहानी से ,,!,,"
-" अरे नहीं ,,! ,,यह कहानी नहीं ,,हकीकत थी ,,,' मैना जी ',,!"-- तोते ने अपनी बात का बज़न बढाने के लिए ,,मैना को आदर का चारा डालते हुए कहा --" आप विश्वास करें ,,!"
- " ये तुम से आप पर कैसे पहुंच गये तोते,,?? ,,-- मैना झल्ला उठी --" अपनी औकात में रहो ,,!,,,,लखनवी नज़ाकत सिर्फ नवाबों के लिए होती है ,, आम लोगों के लिए नहीं ,,!,,याद रखो की तुम एक तोते हो ,,नाचीज़ तोते,,! ,,तुम्हारे कई पुरखों को नवाब अपने पिंजरों में पालते थे ,,और गिफ्ट में अपनी हीराजान को दे आते थे ,,कोठों पर फुदकने के लिए ,,! "
- " गलती हुई मोहतरमा ,,! ,,- तोते ने अपने पंख उठाकर कानों से लगाते हुए कहा - " लेकिन यकीन करें ,,मैं सही बोल रहा हूँ ,,! "
-" चलो ठीक है यही सही ,,कि तुमने मीठी मिर्च और चटपटे अनार खाये ,, और क्या किया ,,??"
-" उस मायानगरी का नज़ारा अजीब था मैना ,,!,,मैनें पानी मांगा ,,तो उन्होंने मेरे सामने चमचमाते पतले कांच के प्याले में लाल लाल शराब रख दी । "
-" शराब ,,??,, - मैना ने अपनी नाक पर पंजा रख लिया । मुंह सिकोड़ कर बोली - " पानी मे बदले शराब ,,?? ,,यह क्या तमाशा था वहां ,,?? "
-" मैनें भी यही कहा ,,-' क्या तमाशा है ,,?? ,,मैं पानी मांग रहा हूँ ,,और आप शराब परोस रहे हैं ,,?? ,,पानी नहीं है क्या आपके पास ,,?? "
-" बिल्कुल सही ,,!,,पहलीबार तुम्हारी अक्ल पर गुरूर करने का जी चाह रहा है ।,,,,तोते,,!,,तुमने सही कहा ,,लेकिन फिर उन्होंने क्या कहा ,,?? "
-" उन्होंने कहा -' पानी,??,,,हमारा पानी तो कब का उत्तर चुका है ,,हम तो बिना पानी के हैं ,,यही शराब है जो आप को नज़र है ,,!"
-" तो फिर,,? ,,फिर क्या कहा तुमने ,,?? "
-" मैनें प्याले की तरफ से नज़रें फेर ली ।,,मैनें कहा की मैं पानी पीता हूँ ,,,शराब नहीं पीता ,,।"
-" तो फिर,,?,,फिर क्या हुआ ,,? ,,"
-वे हंसने लगे । उनमें से एक मशहूर शायर था । मैनें पहचान लिया । उसकी शायरी और तरन्नुम , आज़ादी के पहले हर जुबान पर रहते थे । वह शायर बोला - ' शराब में भी ' आब ' है ।,,आप पी कर देखें ,,,आपकी आब की जरूरत इसी से पूरी हो जाएगी । ',,,!"
दूसरा एक कवि था । वह भी चहकने लगा । बोला ,,-' शब में जब आब घुल जाती है तो शबाब हो जाती है ।,,आब इस तरह वहां भी है ,,समझे तोतेज़ान,,! "
-" हे भगवान,,!! ,,,तुम कहाँ फंस गये थे तोते ,,?? ,,कहां पहुंच गये बेवकूफी में ,,!"
-" मैं भी यही सोच कर खुद को कोसने लगा ,,मुझे लगा ,,ये शायर,,ये कवि,,' आब ' को शराब , शबाब , कबाब में ढूंढ रहे हैं जबकि आब तो नदियों , समुद्र, तालाबों में बिखरा पड़ा है ,,। क्या इनकी सोच इतनी तंग हो गयी है कि आब की पहचान भूल गए हैं ,,? ,,ये क्या लिखेंगें,,?,,क्या करेंगें,,??,,उस दुनिया के लिए ,, जो पूरी दुनिया के लिए कुछ दिखाने लायक चीजें बना रही है ,,?? ,,"
-" बिल्कुल सही,,! ,,तुमने उन्हें फटकारा नहीं,,??"
-" में उन्हें फटकारने जा ही रहा था कि ' वो ' आ गई ,,!"
-" वो कौन ,,,?"
- " वही प्रोड्यूसर,,!,,उसे देखते ही सब उसके पैरों पर बिछ गये । वहः प्रोड्यूसर हाथ में एक ,,' कोड़ा ' लिए थी ,,। कोड़े की ' मूठ ' ,,सोने की थी और रस्सी हज़ार हज़ार के नोटों को बट कर बनाई गई थी । आते ही उसने कोड़ा फटकारा,,। "
-" तो तुम उन्हें फटकार नहीं पाए,,??"
-" अरे मैं क्या फटकारता ,,?? ,,कोड़े की फटकार ही इतनी तेज थी कि उसमें मेरी टॉय टांय कौन सुनता ,,?? "
-" फिर,,?,,फिर,,??
-" उसने आते ही सबसे पहले सबको घूरा,,फिर खिल खिला कर हंसी,,!"
-" हंसने लगी,,,बदजात,,?? " - मैना ने घृणा से मुंह सिकोड़ा ।
-" हां। वो हँसी,, फिर बोली ,,--' अच्छा तो आप ही हैं वो मशहूर हीरामन तोता जी ,,? ,,जिनके सुनाए किस्से ,' किस्सा ए ,तोता मैना ' किताब में दर्ज हैं ,,? "
-" अच्छा,,?,,पहचान गई तुम्हें ,,? ,वैसे तोतों की शक्लें तो एक जैसी ही होती है ,,कितना मुश्किल है किसी तोते को पहचानना ,,? "
-" हाँ,, में भी कहूँ ,,कैसे पहचान गयी ,,जबकि मेरे गले में कोई पट्टा नहीं , मेरे पंख भी कतरे हुए नहीं थे ,,फिर भी पहचान गयी कि मैं ही हीरामन तोता हूँ ,,!"
-" बहुत होशियार थी ,,! "
-" हाँ,, बहुत होशियार थी ,,फिर बोली ,,- ' माया नगरी में आपका स्वागत है ।यहां राइटर्स की कमी है ,,आप हमारी जरूरत पूरी करें ,,हम आपकी करेंगे,!"
- " तुमने क्या कहा ,,?"
-" मैनें कहा कि आप मेरी जरूरतें पूरी नहीं कर सकतीं ,, मुझे एक खुली डाल चाहिए,,।,,लाल तीखी मिर्च,,। ,,और पेड़ पर पके अनार के दानों के साथ मटके का पानी।,,
जो आपके यहाँ नही है ,,,अलबत्ता ,,हुकुम करें,,,।ऐन आपके लिए क्या कर सकता हूँ ,,?
-" फिर,,?,,फिर क्या हुआ ,,??
-" मेरी बात सुन कर उसमें चेहरे पर थोड़ी शिकन आ गयी । फिर सम्हलकर बोली ,,-' हम आपके लिए पेड़ का एक सैट लगवा देंगें,, अनार तो बाज़ार में मिल जाएंगे,,भले ही वे पके हुए नहीं मिलेंगे , इंजेक्शन से पकाए हुए मिलेंगे,,। मेरे यहाँ सैट बनाने वाला एक बूढ़ा कारीगर रोटी के साथ सूखी मिर्च खाता है,,। मिर्च उससे मांग ली जाएगी और पानी डिस्टिल्ड वाटर की बोतलों से मिल जाएगा । कहिए,,कि आप अब हमारे लिए काम करेंगें कि नहीं ,,? ",,,',,,- इतना कह कर आदतन उसने अपना कोड़ा फटकारा । ,,,,कोड़े की आवाज़ इतनी खतरनाक थी कि कान फट जाएं ,,। मैं बेहोश होते होते बचा ।
-" बड़ी मायावी थी ,,,,,बच्चों की कहानियों की डायन की तरह,,,,क्या उसके कुछ दांत बाहर थे,,?? "
-" पूरी तरह बाहर नहीं थे लेकिन ऊपरी दांत कुछ उठे हुए थे ,।"
-" और उम्र ,,?? "
- " मायानगरी में उम्र नहीं पहचानी जा सकती मैना,,! ,,वहां सभी के चेहरे रात में चमकते हैं ,,जवान लगते हैं ,,सुबह वे सभी चेहरे भयावह हो जाते हैं ,,, उमरदार हो जाते हैं । इसलिए वे चेहरे अक्सर बड़े बड़े बंगलों में छुप कर रहते हैं । सिर्फ कैमरे के सामने आते हैं ,,पूरे मेकप के साथ ,,! "
-" हे भगवान ,,!! ,, आगे क्या हुआ,,?? "
-" मैनें कहा - ' मुझे मंजूर है ,,!'
-" क्या कहा तुमने,,?,,,मंजूर है ,,??,,,उन शायरों और कवियों का हश्र देख कर भी तुमने कहा कि तुम्हें मंजूर है ,,???
- " हाँ,,,!,,मैनें यही कहा कि मुझे मंजूर है,,!,,लेकिन मैं काम करने से पहले किसी की इजाजत लेना चाहूंगा । समझ लीजिए,,अगर इजाजत नहीं मिली तो मैं काम नहीं करूंगा । "
-" तब उस प्रोड्यूसर ने क्या कहा तुझसे,,? "
-" उसने कहा - ' यह कैसा इकरार है ,,? ,,इसमें तो इनकार झलकता है ,,! "
-" फिर,,? "
- " मैनें जवाब दिया - ' मेरा इकरार इसी तरह का है ,,,,लेमिन अब पहले यह जान लूं ,,मुझे आप कबसे जानती हैं ,,? "
-" जरूर,,!,,"-- उसने कहा - ' आप महान किस्सागो हीरामन ही हैं ,,और यह बात अब किसी से छुपी नहीं है ,,। आप पेड़ पर बैठ कर जो कहानी कहते थे उसे एक बहेलिए ने सुना ,,जो आपको पकड़ने गया था । लेकिन आपकी कहानियों को सुन कर उसका मन फिर गया ,,,,। उसने वे सभी कहानियां पेड़ के नीचे बैठ कर लिख डाली । "
- " अच्छा ,,,???" -- मुझे इस रहस्योद्घाटन पर आश्चर्य हुआ । मुझे कंपकंपी आ गयी ,,,भगवान ने बचाया ,,।
-" उन कहानियों को लिख कर वहः एक प्रकाशक के पास गया । ,,जो अकबर- बीरबल के चुटकुले छाप कर किताब बना कर बेचता था । ,,'
-" अरे वाह ,,!"
-" वहः प्रकाशक ही मेरे महान पिता थे । उन्होंने आपके किस्सों को छापा ,,,,,' किस्सा ऐ तोतामैना ,,' ,,जो खूब खूब बिकी ,,!"
-" फिर,,",,!
- " फिर उन किस्सों को आधार बना कर मैनें यहां नए नए सीरियल में उन पात्रों को डाला ,,सिर्फ बैकग्राउंड बदल दिया ,,!'
-" जैसे ,,
-" जैसे ,,बेवफा औरत,,कभी बहू, ,,तो कभी सास ,,। ,,कभी बीबी तो कभी प्रेमिका,,। ,,कभी दूसरी बीबी ,,तो,,कभी तीसरी बीबी,,।,,कभी माँ तो कभी बेटी,,,। ,,,कभी ननद तो कभी भाभी,, वगैरह वगैरह,,।लेकिन रही वो वेबफा ही ,,उन किस्सों की तरह ,,। "
-" फिर इससे क्या मिला आपको,,? "
-" बेशुमार दौलत ,,और नाम ,,। ,,उसी दौलत से मैनें ये कोड़ा बनवाया है ,,सुनेंगें इसकी आवाज़ ,,??"
- " नहीं नहीं ,,,रहने दें ,,। "-मैनें डर से घिघियाकर कहा ,,।
- " आपके पास तो बहुत राइटर्स है,,आप उन्ही की कहानियों को बदलकर क्यों नहीं नई कहानी बना लेतीं ,,?
वहः हँसी,,। बोली - ' आप क्या समझते हैं ,,? क्या मैनें ऐसा नहीं किया होगा ,,? ,,मैनें यही किया ,,! ,,और कई सालों से एकछत्र इस इंडस्ट्री पर राज कर रही हूँ ,,लेकिन पिछले दिनों से अब लोग समझने लगे हैं ,,।मेरे सीरियल फ्लॉप हो रहे हैं ,,,। मुझे कुछ नई। कहानियां चाहिए ,,
--" बेवफाई में कुछ नया नहीं होता ,,'-मैनें कहा , ' ,जैसा कि मैनें कहा है कि मैं आपका प्रस्ताव मंजूर करता हूँ ,लेकिन मैनें यह भी कहा है कि मैं किसी की इजाजत लेना चाहूंगा ,,।"
-" भला किसकी इजाजत लेना चाहते हैं ,,आप,,?,,क्या आप कहीं प्रतिबंधित हैं ,,? "
-" नहीं,,!,,में प्रतिबंधित नहीं,,लेकिन ' प्रतिबध्द ' हूँ । मैं कहानी अपनी विदुषी प्रतिद्वंदी मैना को सुनाता था । किसी और को सुनाने से पहले मुझे उसकी इजाजत लेनी पड़ेगी । ,,मुझे जाने दीजिए,,,मैं उससे पूछ कर लौट आऊंगा ,,!"
-" और अगर उसने इजाजत नहीं दी तो ,,? "
-" नहीं ,,,वो आपके जैसी नहीं है । आप होठों को लिपिस्टिक से पोत कर लाल करती हैं ,,,उसकी चोंच ,,प्राकृतिक है । उसके बोल भले ही पुरुषों के लिए आलोचनात्मक रहे हों ,,लेकिन दिल से वहः उदार है । ,,,और फिर अगर उसने मना किया तो फिर मैं किसी भी हालत में आपको कहानी नहीं सुना सकता ,,! ,,फिर मैनें एडवांस भी तो नहीं लिया आपसे,,"
वहः हँसी,,। ,,बोली -" अभी आप औरतों को नहीं जानते ,,जाइये मैना से पूछ आइए ,,मैं आपको छोड़ती हूँ । "
इतना कह कर तोता चुप हो गया । फिर मैना की ओर मुड़ कर बोला --" में वहां से रात भर उड़ कर यहां आ गया ,, अब कहो मैना,,, तुम्हें छोड़ कर मैं वहां जाऊं या नहीं ,,??"
मैना थोड़ी देर चुप रही । फिर उसका गला भर आया ,,आंखें भींगने लगीं । वहः आंसू दबाते हुए बोली ,,-
-" तोते ,,! मेरा तुमसे कोई कॉन्ट्रैक्ट नहीं । हम लोग जो कहानियां कहते थे ,,वे मन बहलाने के लिए थीं । दिखाने के लिए नहीं । तुम अपने मन के राजा हो,,। तुम कहीं भी जा सकते हो । लेकिन हो सके ,,तो साल में एकबार जरूर अपने पुराने पेड़ पर लौटना । यहां में रोज तुम्हारी बाट जोहूँगी ।
रही बात अपनी कहानियों की,,, तो सच कहूँ,,न मर्द बेवफा होता है ,और ,न औरत । वफ़ा एक कीमती रत्न है,,जो कहीं भी देखने को मिल जाएगी । तुम देखो - युधिष्ठर का वफादार कुत्ता ,,युधिष्ठर के साथ साथ पहाड़ के अंतिम छोर तक गया । ,,,सावित्री अपने पति के प्राण यमराज से छीन लाई ,,। ,,मजनू अपनी प्रेमिका के प्रेम में पागल हो गया । ये सब वफ़ा की पराकाष्ठा है । वफ़ा ,,प्यार से उपजती है ।,,प्यार मनुष्यता का अनमोल गहना है । यह सभी पहन भी सकते हैं और नहीं भी । वफ़ा बिकाऊ नहीं है ,,,न कहानियों में ,,न कहीं और ,,। ,,अपनी उस प्रोड्यूसर से कहना ,,,,की अपनी कहानियों में वहः ' प्यार ' दिखाए,,बाकी सब कुछ अपने आप दिख जाएगा ,,! "
इतना कह कर मैना , डबडबाई आंखों में भर आईं बूंदों को तोते से छिपाने के लिए मुंह मोड़ कर दूसरी ओर क्षितिज में देखने लगी ।
तोता अपलक थोड़ी देर मैना को ताकता रहा । फिर उसने उड़ान भरने के लिए खोले अपने पंख चुपचाप वापिस समेट लिए ।
थोड़ी देर चुप रह कर ,,,खिलखिला कर उसने अपनी हँसी बिखेरी,,,और बोला --
-" आ गई न धोखे ने मैना ,,??,,,अच्छा ,,अब यह कह की कैसी रही मेरी आज की यह कहानी,,??"
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-'सभाजीत'
55 वर्ष पूर्व का नौगावँ
,,,और
आज की सोच ,,।
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बड़े मंदिर की ओर मुड़ते ही , कार्नर पर एक चर्च था । लोग उसे छोटा चर्च कहते थे । बड़ा चर्च शायद नौगावँ के बाहरी बस्ती में ,, एमईएस क्षेत्र में था जो शायद ब्रिटिश काल में अंग्रेजों के प्रार्थना हेतु बनाया गया होगा ।
इतवार को जब हम लोग , बैट बल्ला खेलने पोस्ट आफिस के खुले मैदान में जाते तो चर्च में अंदर लंबी बेंचों पर बैठे 5 - 10 लोग , कुछ प्रवचन सुनते दिखते । कभी वे सामूहिक स्वर में प्रार्थना करते दिखते । अंदर पीछे की दीवार पर एक लकड़ी का क्रॉस , ( क्रूस ) लगा दिखता जिसे देख हम समझते कि यह कोई शुभ चिन्ह है ।
चर्च के ही परिसर में एक घर था जिसमें पादरी रहते थे ,,हम लोग उनके घर के बाहर लगे बड़े पोस्टर भी देखते जिसमें लिखा रहता था कि ईश्वर ने दुनिया के भले के लिए अपना पुत्र ही भेज दिया । हम उस उम्र में नहीं जानते थे कि ईश्वर का पुत्र कौन था और उसने आकर दुनिया का क्या भला किया । लेकिन इतना जरूर जानते थे कि यह ईसाइयों का मंदिर है जिसमें आ कर वे पूजा करते हैं । यह भी कौतूहल रहता था कि आखिर अपने धार्मिक मंदिर में बैठ कर वे एक आदमी का क्या भाषण सुनते हैं ,,?
ईसाई क्या है , यह मुझे तब बिल्कुल नहीं मालूम था । कहीं पोस्टरों में लिखा देखा था ,,' हिन्दू मुस्लिम , सिख , ईसाई ,,हम सब हैं भाई भाई ,,' ,,,,' तो यह समझ आता कि ये चारों बिल्कुल अलग लोग हैं जिन्हें भाई समझने , मानने की बात प्रचारित की जा रही है ,,। दूसरे,,यह सवाल भी मन में उठता ,,की अगर ये भाई भाई हैं तो बताने की क्या जरूरत,,?? ,,वे तो भाई भाई जैसे रहते हुए दिखने चाहिए ।
संयोग से मेरी कक्षा में कोई इसे लड़का नहीं था जो दोस्त बनता और में उससे अपनी जिज्ञासाएं दूर करता । किन्तु एक व्यक्ति को मैं जरूर जानता था जिनका नाम मसीह था । मसीह शब्द ईसा मसीह से ही जुड़ा होने के कारण , में सोचता कि यह धर्मात्मा होगा ,, किन्तु अधिकतर लोगों के झगड़ों में ही उसका नाम उछलते देखता तो समझ गया था कि नाम से काम का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं ।
कुछ दिनों बाद जब एक युवक मेरा मित्र बना ,,' प्रदीप राव ' तो बहुत दिनों तक तो मैं यह जान ही नहीं पाया कि वो ईसाई है । कारण की न तो उसका नाम ब्रेंग्रेजा था , न थॉमस , न मसीह ।
उल्टे जब मुझे यह पता चला कि वे ईसाई हैं तो उन्होंने मुझे लोगों को यह बताने को मना किया कि लोग यह बात जानें । उन्होंने कहा कि मैं भारतीय हूँ , पूर्वज हिंदू परिवार से थे तो जो मेरी असली पहचान है , भारतीय उपनामों की , वही मेंटेन रहने दें । में कोई विदेशी नहीं ,, न विदेशियों की संतान हूँ ,,तो भले ही धर्म से ईसाई हूँ पर पहचान से भारतीय नाम से ही पुकारा जाना पसंद करूंगा ।
वे मुझे अपने घर ले जाने से परहेज करते थे । लेकिन एक बार जब उन्हें भीषण बुखार चढ़ा तो मैं उन्हें देखने उनके घर पहुंच ही गया । उनके घर ज्ञे पर पता चला कि वे एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो भारतीय हिन्दू नाम से पुकारा जाना पसंद करते थे जबकि उनके सभी सगे सम्बन्धी अपने क्रिश्चियन नाम रख चुके थे ।
प्रदीप राव चर्च नहीं जाते थे यह बात भी उन्होंने मुझे बताई ।
ऐसा नहीं था कि वे धर्म नहीं मानते थे , लेकिन वे कहते कि ईश्वर सब जगह है । वे संगीत को अपना लक्ष्य मानते और हर इतवार ,,सुबह साइकिल लिए मेरे घर आजाते ,, संगीत की कोई नई कम्पोजीशन सुनने और उस पर गीत रचने । होली पर वे जरूर गले मिलते , गुजिया पपडिया खाते , टीका लगवाते ।
अच्छे मित्र होने के बावजूद उन्होंने मुझे कभी चर्च आने के लिए आमंत्रित नहीं किया । एक बार मैनें आग्रह किया तो वे बोले कि उन्हें ही वे व्याख्यान समझ नहीं आते तो मैं वहां जा कर क्या समझूंगा ।
उनदिनों बड़े दिन का मतलब मुझे मेरी माताजी ने यूँ समझाया था कि आज से दिन थोड़ा थोड़ा करकेँ बड़े होने लगेंगे । उन दिनों न कोई लिख कर , न बोल कर , किसी त्योहार की शुभकामनाएं व्यक्त करते , बल्कि एक दूसरे के यहां जा कर खा पी आते । केक में अंडा होने के कारण , प्रदीप मुझे कभी केक ऑफर नहीं करते थे ।
बाद में ,, बालाघाट में एक मित्र बने ,, विजय थॉमस । वे भी बहुत मधुर बांसुरी बजाते थे और टीचर थे । नाम से विजय और उपनाम से थॉमस । तो मैं सहज ही जान गया कि वे क्रिश्चियन हैं । उनके घर ज्ञे पर वे अपनी पत्नी से कहते कि इन्हें वहः नाश्ता देना जिसमें अंडा न हो । यह ब्राह्मण हैं ,,इनका धर्म न बिगड़े इसका ध्यान रखना ।
नॉकरी में कोई साथी ऐसा नहीं मिला जिसके बीच रह कर मैं क्रिश्चियन धर्म को समझ सकता,, किन्तु सरकारी काम से जब में केरल गया तो मुझे वहां पग पग पर चर्च मील । इन चर्चों में हिन्दू धर्म की पूजा की तरह मूर्तियां लगीं देखी , चर्च के गुम्बद भी मंदिरों के शिल्प में देखे , जो बाहर से मंदिर होने का भृम पैदा करते थे । अंदर तो मूर्तियों की लंबी दीर्घा देखी ,,जिसमें यीशु की जीवन कथा की झांकी थी । ये झांकी उससे ज्यादा सुंदर थी जो हम लोग कभी जन्माष्टमी पर हर घर में बनी देखते थे । मुझे यह समझ में आया कि यहां लोगों ने हिन्दू मंदिरों का शिल्प , मूर्तियां , और उपासना पद्धति अपना ली है सिर्फ हिन्दू देवता को छोड़ कर , फलतः मेरल का 70 प्रतिशत से अधिक समाज क्रिश्चियन धर्म अपना चुका है ।
कालांतर में कॉलेज में पढ़ने गईं मेरी बेटियों ने क्रिसमिस दिवस पर चर्च जाने की इच्छा जाहिर की तो मुझे आश्चर्य हुआ । ये बच्चे मंदिर जाने से सकुचाते थे तो चर्च में उन्हें ऐसा क्या आनन्द आ रहा था कि वे वहां ज्ञे की इच्छा व्यक्त कर रहे थे । बच्चों ने बताया कि वहां बहुत अच्छी सजावट है ,लोग भी आधुनिक वस्त्र पहन कर आते हैं । वहां का वातावरण प्रसन्नता का और व्यावहारिक है ।
कल मेरी बहू , पुत्र , बेटी , मेरे पौत्र को ले कर फिर चर्च गये । ऐसा लगा कि वहां उन्हें पिकनिक जैसा कोई आकर्षण दिख रहा है इसलिए गये हैं ।
बाद में लौट कर पुत्र ने बताया कि वहां भारी भीड़ थी । चर्च में क्रिश्चियन्स के अलावा अधिकतम हिन्दू लोग दिखे जो आनन्द मनाने आये । वहां की रौनक आकर्षक थी । ऐसी तो अपने त्योहारों में भी देखने को नहीं मिलती ।
मुझे पुत्र की इस बात ने सोचने को मजबूर कर दिया कि विगत वर्षों में हमने क्या खोया है और क्या पाया है । अब होली में वहः उल्लास , रक्षा बंधन में वह आत्मिक अनुभूति, जन्माष्टमी की वे आकर्षक झांकिया , दीपावली की देर रात की वहः गूंज , दशहरे का रावण दहन का आकर्षण , संक्रांति का वहः नदियों पर लगने वाला मेला,,कहां खो गया ,,जिसमें हमारे बच्चों को आकर्षण नहीं दिखता ।
क्या एक संस्कृति,,दूसरी संस्कृति का रूप ले रही है ,,? और यदि हां ,,तो एक समाज अपना बहुत कुछ खो नहीं रहा है ,,??
--' सभाजीत '
-",,,1,,,
टॉयलिट:एक प्रेमकथा भुक्तभोगी ।
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कल एक टीवी चैनल पर , अक्षयकुमार और भूमि पेडनेकर द्वारा अभिनीति , सिद्धार्थ सिंह द्वारा लिखित , और श्री नारायण सिंह द्वारा निर्देशित फिल्म ' टॉयलिट : एक प्रेम कथा " देखने को मिली । इस फ़िल्म को देख कर लगा कि कुछ लोग अभी भी हैं जो " सार्थक सिनेमा " की लीक पर डटे हुए हैं और समाज की तथा देश की स्वाभाविक सामयिक ज्वलंत समस्याओं को फिल्मों की विषयवस्तु बना कर , दर्शकों को समस्याओं के हल ढूंढने के लिए जाग्रत कर रहे हैं । फ़िल्म देख कर मुझे स्वयम पर भी क्षोभ हुआ कि इस फ़िल्म को पूर्व में देखने से में कैसे वंचित रह गया ।
फ़िल्म की कथा और पटकथा ने मुझे अनायास ही 65 वर्ष पूर्व उत्तरप्रदेश के अपने ही गावँ " चिरगावँ ' की यादों में पहुंचा दिया जहां मेरा बालमन बहुत से दृश्य अपनी नन्ही आंखों में सँजोता रहता था । यह गावँ गलियों में बसा गावँ है और देश की साहित्यिक गरिमा के लिए विख्यात है । गावँ के ठीक बीचों बीच , पहाड़ी पर बना एक ध्वस्त किला था जिस पर झाड़ झंखाडों ने अपना साम्राज्य जमा रखा था । किले की पहाड़ी पर चढ़ने के रास्ते में , अंतिम घर हमारा था ,,जिस के चबूतरे पर आकर हम लोग सुबह सुबह मुंह धोते ।
चिरगावँ में जिस भी साधारण घर में धूम धाम से शादी होती , उसकी नई नवेली बहु दूसरी सुबह , घूंघट डाले अपनी ननदों के साथ लोटा लिए हमारे घर के सामने से जरूर गुजरती । कारण ,,कि,, गावँ में कुछ बड़े घरों को छोड़ कर किसी भी घर में शौचालय नहीं होता था और पूरा गावँ शौच के लिए , किसी युग के ठाट बाट के लिए बने किले के खंडहरों में , झाड़ियों के बीच शौच करने के लिए इसी मार्ग से पहाड़ी पर चढ़ते थे । कई बार हमारे घर की बड़ी बूढ़ी दादी चबूतरे पर खड़ी हो कर पूछ लेती की नई नवेली बहू किस घर की , किस लड़के की व्याहता है और घर बैठे ही उन्हें न सिर्फ उसका पूरा परिचय की वहः किस गावँ से आई है , मिल जाता बल्कि नई बहू का प्रणाम भी मिल जाता और वे उसे आषीश देतीं ।
घरों में शौचालय न होने का कारण भी यही था कि छुआछूत के कारण मेहतर को घर में प्रवेश वर्जित था और वहः पीछे बने शौचालय में सफाई हेतु जा नहीं सकता था और घर के दरवाजे , चबूतरे पर शौचालय बनाना ,,शुद्धि और धर्म परम्परा के विरुद्ध था । दूसरे,,बस्ती के मकान भी छोटे होते थे,,जहां रहने के लिए कुछ गिने चुने कमरे ही लोग बनवाना , प्राथमिक आवश्यकता समझते थे । नगर के राजा का खंडहर हुआ किला जब जनता का सार्वजनिक शौचालय बन चुका था तो कोई अपने घर में भिष्टा को जगह क्यों दे ,,??
हमारे घर की बगल में एक बड़ी बगिया थी ,,जिसके पिछले भाग में हमारे ताऊजी ने बड़ा शौचालय बनवा दिया था । मेहतरानी आकर सुबह पुकार लगाती और हम लोग बगिया की फटकिया इस तरह बचकर खोल देते की कहीं मेहतरानी की छाया भी हम पर न पड़ जाए । वहः शौचालय साफ करके बगिया के रास्ते ही बाहर चली जाती । यद्यपि हमारे घर में शौचालय था किंतु फिर भी हम बच्चे गावँ की परंपरा निभाने कभी कभी किले पर चढ़ जाते जहां झाड़ियां ही आड़ होती थी और खांसी वर्जना ।
पता नहीं क्यों ,,,तब हमारे मन में इस परंपरा के विरुद्ध कोई खयाल क्यों नहीं उठा ,,जबकि वास्तव में यह नगर के मध्य में पनपती बहुत बड़ी गंदगी ही थी जिसकी सफाई कभी नहीं होती थी और जिसे किले पर ही घूमते सुअर ही अंजाम देते थे ।
बाद में नौगावँ आने पर हमने देखा कि हर घर में शौचालय थे और सफाई की व्यवस्था भी म्युनिस्पिल कारपोरेशन की थी । नौगावँ चूंकि अंग्रेजों द्वारा बसाई गई बस्ती थी इसलिए एक अंतर जरूर समझ ने आया कि आज़ादी के बाद भी भारत के अविकसित गावों में सफाई और शौच व्यवस्था पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था । ,,अलबत्ता ,,गरीब अमीर , मजदूर पूंजीपति , हिन्दू मुस्लिम , ही वे मुद्दे थे जिसका छोर पकड़ कर राजनैतिक पार्टियां समाज सेवा कर सकती थी ।
नॉकरी के दौरान ,,मेरी पोस्टिंग अधिकतम नगरीय क्षेत्र में रही । किन्तु बालाघाट प्रवास के अंतिम दौर में मेरी पोस्टिंग , दो वर्षों के कार्यकाल में , एमपी महाराष्ट्र बॉर्डर स्थित वितरण केंद्र ,,' रजेगावँ ' में हो गई । यह निपट छोटा सा गावँ था जहां के घरों में शौचालय थे ही नहीं । गावँ से सट कर एक नदी ' बाघ नदी ' थी जो शौच का साधन थी । पूरे गावँ में तीन घर ही ऐसे थे जिसमें शौचालय थे । जिनमें एक बीड़ी का कारखाना था , एक डॉक्टर का घर था , और एक शिक्षक का घर । मैनें किसी तरह बीड़ी के कारखाने वालों को पटाया और अपनी व्यवस्था कर ली ।
किन्तु मात्र छह माह के बाद ही मेरा विवाह हो गया ।
आम मुझे शौचालय की महत्ता पता चली । जब तक ऐसा घर न मिले जिसमें शौचालय हो ,,में पत्नी को साथ रखने में असमर्थ था । गावँ के शिक्षक के घर का एक हिस्सा वे किराए पर देते थे किंतु उस समय वहः खाली नहीं था । बीड़ी के कारखाने में रोज शौचालय हेतु मेरी नई नवेली पत्नी वहां जाए यह मैं स्वीकार नहीं कर सकता था । यद्यपि बालाघाट नगर का एक फ्लैट जो मैनें किराए पर लिया हुआ था मेरे पास था किंतु वहां से प्रतिदिन 20 किलोमीटर का अप डाउन भी सम्भव नहीं था ।
तो मन मसोस कर , अपनी नियति मांन कर , मैनें पत्नी से तब तक दूर रहने का निर्णय लिया जब तक कि शिक्षक वाला किराए का मकान खाली न हो ,,।
और जीवन के शुरू में ही मैनें शौचालय के कारण विरह में काट लिए ।
--'सभाजीत '
( क्रमशः )
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टॉयलेट,,एक प्रेमकथा ,,भुक्त भोगी ।
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आज के युग की बड़ी कशमकश है ,,विवाहोत्तर पति पत्नी में उपजने वाली प्रीति के लिए वांछित वातावरण का अभाव । वस्तुतः वियोग ही गाढ़ी प्रीति का आधार है ,,ऐसा शास्त्रों में वर्णित घटनाओं से सिद्ध होता है । किन्तु आधुनिक समाज में वियोग को श्राप मांन लिया जाता है ,,और आधुनिक पीढी विवाह के बाद तो क्या ,,विवाह से पूर्व भी एक साथ रह कर अपने अंतरंग क्षण साथ साथ बिताने को ही प्रीति की गहनता का आधार मानते हैं । ऐसे में पति के बिना , परम्परागत संयुक्त परिवार में पत्नी बहुत दिनों तक आ कर रह पाए यह सम्भव नहीं होता और परिवार के विघटन की नीवं भी यहीं से पड़ती है ।
फिल्मों से 'पिया के घर' की परिभाषा पढ़ी अधिकांश लड़कियां यह जानती ही नहीं थीं कि वस्तुतः पिया का कोई घर होता ही नहीं ,,बल्कि जिस घर में वे राज करने का सपना अपनी आंखों में संजो कर आईं हैं वहः उनके पिया का घर न हो कर , उनके पिया के पिता का , यानी ससुर का घर होता है जहां परम्परागत रीति रिवाज , नियमकायदे , मुंह बाए उसकी बाट जोह रहे होते हैं । एक कच्चे घड़े को , ससुराल के अलाव में तपा कर पक्का बनाने का प्रयास पहले कठोरता से होता है ।
इस क्रिया में घटों में जल भरने की अपेक्षा अक्सर उनमें रिसाव होना स्वभावतः शुरू हो जाता है और फिर आजीवन , पिया कितना भी चाहे , उस घट में अपने ज्ञान का जल भर ही नहीं पाता ।
संयोग से मुझे ईश्वर ने बुद्धि कुछ ज्यादा ही दे रखी थी तो मैं वियोग के लाभ हानि के दोनों पक्षों से परिचित था । बचपन से , द्रष्टि के माध्यम से , अनुभव बटोरने की कला मुझे आ चुकी थी तो मैं भविष्य के आगत भय के प्रति पहले ही सतर्क होने की कोशिश करने लगा ।
दिसम्बर 1977 में हुए विवाह के बाद , 10 -12 दिन साथ रह कर में वापिस अकेला रजेगावँ लौट आया । समस्या ज्यों की त्यों थी ,,शौचालय मेरे लिए विलेन का रूप धारण किये खड़ा था । गनीमत यह थी कि पत्नी प्रथम विदा के अंतर्गत एक दो माह के लिए अपने मायके लौट गईं थी और मुझे समय मिल गया था कि मैं उचित व्यवस्था वाला घर ले लूं ।
किन्तु उस गावँ में एक मात्र तीन शौचालयों वाले घरों में एकमात्र शिक्षक का ही घर था जहां में सपत्नीक रह सकता था । इसलिए मैनें शिक्षक को मनाने का प्रयास किया । शिक्षक उसूलों वाले थे । उन्होंने कहा कि जब तक पहला किरायेदार खाली न करे ,,वो मकान नहीं दे सकते ।
इस उहापोह में पूरे दस माह बीत गये । न मकान मिला ,,न पत्नी आई । अलबत्ता वे अपने ससुराल में आ कर सास ससुर , ननदों , देवर के भरे पूरे घर में रहने लगीं । चिट्ठियां हमारी प्रीत का सेतु थीं । ये चिट्ठियां भी 10 दिनों में आ जा पातीं थीं । में अपने पत्रों में उन्हें ,,गुरु पितु मातु की सेवा और उनके महत्व का उपदेश देता और वे सीता का हवाला दे कर वन में भी , किन्हीं भी परिस्थितियों में पति का साथ निभाने का धर्म समझातीं । इन पत्रों में शिकायत भी होती और मनुहार भी ।
विवाह से पूर्व , मेरी पत्नी की बड़ी बहिन , यानि बड़ी साली ने मेरा इंटरव्यू लेते हुए पूछा था कि आप जहां रहते हैं ,,वहां बिजली तो है न ,,?? तो मैनें गर्व से बताया कि मैं विद्युत इंजीनियर हूँ ,,जहां में रहूंगा तो बिजली तो रहेगी ही ,,!' फिर उन्होंने पूछा - और पानी का नल,,?? ' तो मैनें बताया कि बालाघाट जिले का मुख्यालय है ,, विकसित शहर है ,,नगर निगम के नल आते हैं ,,!! " उन्होंने आश्वस्त होते हुए फिर कोई अगला सवाल नहीं पूछा था ! उन्होंने कहा ,,' अन्यथा मत लीजिएगा ,,,मेरी लाडली छोटी बहिन शहर में पली बढ़ी है ,,वहः कुएं से पानी नहीं खींच पाती,,और न ही लालटेन में रहने की उसे कोई आदत है । ,,,इसलिए ये सवाल पूछ लिए ,,!"
लेकिन उन्हें शायद यह पता नहीं था कि देश में ऐसी जगहें भी हैं ,,जहां बिजली तो है ,,और पानी भी ,,लेकिन शौचालय नहीं हैं । और दुर्भाग्य से अब मेरी पोस्टिंग ऐसी ही जगह हो चुकी थी । अब सोच रहा था कि अगर मेरी पत्नी की बड़ी बहिनजी को यह मालूम हुआ तो किस मुंह से जवाब दूंगा ,,?? उनकी लाडली बहिन इन विषम परिस्थितियों में कैसे रहेंगीं ,,??
स्थिति अनुसार , मेरे पिताजी ने उन्हें आगे की पढ़ाई हेतु फॉर्म भरा दिया ताकि वे अपना मन उस ओर लगा लें और रजेगावँ भूल जाएं । वे अनमने मन से उसमें जुट गईं लेकिन रजेगावँ के अदभुत स्वप्निल संसार का आकर्षण उनके मन से नहीं छूटा । वे पत्रों में रजेगावँ देखने की मनुहार करने लगी ,,और मैं था कि रजेगावँ में ऐसा घर तलाश रहा था जहां उन्हें ला कर रख सकूं ।
ऐसी ही स्थितियों में एक पत्र में उनके द्वारा लिखी दो पंक्तियों से मैं विचलित हो गया । पूरे पत्र के अंत में उन्होंने लिखा --' यहां वातावरण ठीक है किंतु कुछ बातें पत्र में नहीं लिख सकती । थोड़ा लिखा ,,ज्यादा समझना ,,! "
में सोचने लगा ,,ऐसा क्या है जो नहीं लिखा जा सका ?? और वहः थोड़ा क्या है जिसे मुझे ज्यादा समझना चाहिए ,,??
लिहाजा मैनें अपने सीनियर विवाहित मित्रों से सलाह ली । उन्होंने कहा तुम बहुत दिनों से घर नहीं गये । तुम्हें अविलम्ब घर जाना चाहिए और उनकी मन की बात समझना चाहिए । रजेगावँ की परिस्थितियों को उन्हें मिल कर बताओ ,,,। सन्देशन खेती ठीक नहीं ।
तो मैनें आननफानन दो दिन की छुट्टी ली और एक दोस्त की बुलेट मोटर साइकिल लेकर , एक मित्र को सहयात्री बना कर रात के बारह बजे ही चल पड़ा 500 किलोमीटर की नौगावँ यात्रा पर ,,।
यह यात्रा तो एडवेंचर ही थी क्योंकि इस यात्रा में भीषण दुर्घटना होते बची और दमोह के आगे रात 2 बजे ,,बटियागढ़ के पास डाकुओं के चक्कर में आते आते बचे ।
--' सभाजीत '
( क्रमशः )