रविवार, 24 नवंबर 2019

   विंध्य की विरासत
   सोन का अभ्यारण  और सीधी जिला

 दंडवत विंध्याचल  के माथे को , अपनी हथेलियों पर थामे , , मेकल  पर्वत एक और विंध्याचल श्रेणियों  को निहारता है तो दूसरी और , दूर तक फ़ैली सतपुड़ा श्रेणियों को ! इस यशस्वी मेकल पर्वत के आश्रम से ही क्षुब्ध हो कर निकली दो धाराएं , परस्पर विपरीत दिशाओं में कूद गयीं थी ,,! पश्चिमी दिशा की और कूदी , नर्मदा का जितना महत्त्व , भारत के पश्चिमी भाग में प्राकृतिक विरासतें संजोने का है , उतना ही महत्त्व सोन का , भारत के पूर्वी भाग में ! प्रेम विह्वल सोन , अपने बलशाली धाराओं के बाजुओं से मार्ग में आयी हर बाधा को तोड़ता हुआ , अंत में जा कर गंगा की गोद  में विश्राम लेता है , किन्तु इस यात्रा में , उसने जो नैसर्गिक सौन्दर्य , और सांस्कृतिक विरासतों के सोपान रचे हैं , वे मध्यप्रदेश के सीधी और शहडोल जिले में बिखरे पड़े हैं !
     सोन  अपने पुरुषार्थ से पहले विंध्याचल की कैमोर पर्वत श्रेणी को ही तोड़ता है , और फिर वेग पूर्वक , सीधी जिले की धरा  पर , अपने अनुपम सौन्दर्य के साथ बहता है ! सोन कुल ९३२ किलोमीटर की लम्बाई में बहने वाला , भारत की प्रमुख लम्बाई की नदियों में गिना जाता है ! इसमें आकर मिलने वाली घोघर , जोहिला , छोटी महा नदी  , तथा रिहन्द , कन्हार , कोहिला के साथ  उसमें अपना जल उडेड़ने वाली नदियों में  गोपदबनास नदी प्रमुख है !  सोन के बलखाती धारा के साथ , विंध्याचल श्रेणियों के बीच , कैमोर , केनजुहा , रानीमुंडा , पर्वतांचलों  की घाटियां , में  बिखरी वन सुषमा   , सीधी जिले का खजाना है ! इन वनो में सभी प्रकार के बृक्ष हैं , जिन पर विभिन्न पक्षी किलोल करते सहज ही दिख जाते हैं ! सीधी जिले के ग्राम , आज भी आदिवासी जनजातियों , और उनकी संस्कृति के अक्षुण गवाह हैं ! यहाँ के वनो में , महुए के बृक्ष बहुतायत में हैं , जिसकी महक से सारा वन , एक विशेष आनंद से भर जाता है ! जनजातियों  की मधुशाला के यही आधार हैं , जो उनकी गीत संगीत , खान पान का अभिन्न अंग बने हुए हैं !
    यह क्षेत्र वनवासियों की  धरा है  ! यहां की मूल भाषा गोंडी रही है , बाद में हुए राज्यों के विस्तार के  अंतर्गत , यहां हिंदी और बघेली भाषाओं ने लोगों के  जीवन में प्रवेश किया ! इसके पूर्वी भाग में जहां गोंड जन जाती निवास करती हैं , वहीं पश्चिमी भाग में प्रमुख रूप से कॉल जनजाति  ! यहां पहले कालिंजर से आये चंदेल राजाओं ने राज किया , बाद में पश्चिमी भाग , बघेल राजवंशों के आधीन हुआ  ! इस जिले की छह तहसीलों में , फ़ैली वनसम्पदा , पर्यटकों के लिए जहां , विशेष आकर्षण का केंद्र है ,,वहीं यह जिला , ऊर्जा के प्रमुख श्रोत कोयले की पूर्ती भारत के  ऊर्जा संचालन के लिए वर्षों से कर रहा है ! सिंगरौली की कोयले की खदानें यहां का , प्रमुख व्यावसायिक अंग रही हैं , वहीं आधुनिक शक्ति विद्युत् ऊर्जा के विद्युत् ताप गृह , भी इसी क्षेत्र में स्थापित हुए हैं !
         अकबर दरबार के प्रमुख रत्न , बीरबल का जन्म भी इसी धरा  पर हुआ था ! सीधी जिले में जन्मे ,  बीरबल के गावं गोधरा में आज एक बहुत प्राचीन  देवी का  दर्शनीय  मंदिर है ! यह गावं इस क्षेत्र का एक प्रमुख गावं माना जाता है , जो यह दर्शाता है की बुद्धि के धनी , इतिहास प्रसिद्द बीर  बल , इन्ही वनवासियों के बीच बड़े हो कर , दिल्ली  जैसे  राजदरबार के प्रमुख व्यक्ति बने !

    मध्यप्रदेश के पूर्वी द्वार पर , पर्वत श्रेणियों और  सोन की धाराओं के बीच पनपा , यह जिला , आज पुरातन और नवीन सभ्यताओं का  मिश्रित स्वरूप है ! इसका मुख्यालय , सीधी , अब धीरे धीरे , कसबे से एक नगर के रूप में करवट ले रहा है ! यहां के निवासियों में , समीपवर्ती गावों से आये , एवं पहले से बसे  जनजातियों के लोगों की संख्या ज्यादा है   , सड़कें अब धीरे धीरे आधुनिक हो रहीं हैं , और आधुनिक सुविधाओं की राह से आकर  , धीरे धीरे शहरी सभ्यता भी,  अपना पावं  , आदिवासियों के बीच जमा रही है ! कभी यहां , साधारण कच्चे घर बहुत हुआ करते थे , लेकिन अब यहां भी अट्टालिकाएं अपने सर उठा रहीं हैं ! सीधी नगर  अब रीवा कमिश्नरी के मानचित्र पर , विशेष स्थान पा चुका है ! नगर निगम यहां अब , यहां के निवासियों के लिए आकर्षक पार्क विकसित कर रही है , तो नए नए होटल और पर्यटकों के लिए पूर्ण सुविधायुके , रेस्ट हाउस भी यहां बन चुके हैं ! विकसित अस्पताल , शिक्षाकेंद्र , और सांस्कृतिक केंद्र भी स्थापित हैं ,,जो सीधी को आधुनिक विकास की राह पर अग्रसर कर चुके हैं !
    यहाँ पॉलिटेक्निक , आईटीआई , जैसे तकनीकी शिक्षाकेंद्रों के साथ कई अन्य कालेज भी स्थापित हैं , जो शिक्षा के क्षेत्र में अभिनव कार्य कर रहे हैं !

   पर्यटन की दृष्टि से यह  क्षेत्र बहुत से आकर्षण , अपने  गोद  में समाये बैठा है ! यहां का संजय नेशनल पार्क आज पर्यटकों का प्रमुख आकर्षण केंद्र है ! जहां  वन्य जीव बहुतायत में विचरते हुए , सहज ही दृष्टिगोचर होते हैं ! विश्वप्रसिद्ध , सफ़ेद बाघ , इसी क्षेत्र की देंन  है , जिसे बघेला राजवंशों ने , यहां के जंगलों में ढूंढ  निकाला था ! सोन नदी और बनास नदी के संगम पर ही स्थापित है , घड़ियालों के संरक्षण हेतु ,, घड़ियाल संरक्षण अभ्यारण !  प्रकृति के इस अनमोल खजाने में , बहुत सी पुरातात्विक  विरासतें , सोन नदी के तट  पर , और गहन जंगलों में बिखरीं पडी हैं ,,जिसमें प्रमुख है ,,कादम्बरी के रचियता , बाणभट्ट की  साधनास्थली  , भ्रमरसेन ! कादम्बरी ,, संस्कृत में , बाणभट्ट द्वारा लिखा गया अद्भुत महाकाव्य है ,, जिसकी परिकल्पना ने , इसी सोन और बनास नदी के संगम स्थल पर बने आश्रमों में जन्म लिया ! बनास नदी की धारा जब , सोन की वेगवती धारा से भेंट करती है तो , यहां एक  विशाल  भंवर का जन्म होता है , शायद इसीलिये इसका नाम , स्थानीय भाषा में भंवर सेन पड़ा ! आज भी यह स्थान बहुत रमणीक है ! बनास नदी के किनारे , ऊंचा खड़ा पर्वत , और दूर से बह  कर आती सोन की धारा में मिलती बनास की धारा के संगम को  निहारते खड़े रहने में , कितना समय बीत जाए पता ही  नहीं चलता ! कादम्बरी के प्रमुख पात्र , शुक , यानी तोते , यहां की पर्वत मालाओं पर विहार करते , आकर्षक दृश्य का सृजन करते हैं !
   पर्वतों के बीच , बलखाती नदी की जल धारा , और पर्वतों  के घाट  , आने वाले पर्यटकों का मन मोह लेते हैं ! सोन के किनारे ही , बघेला राजवंशों का बनाया गया , शिकारगंज , रेस्ट हाउस , सोन के सौन्दर्य को निहारने का अद्भुत स्थल है !यह आज न सिर्फ दर्शनीय रेस्ट हाउस है , बल्कि बघेला राजवंशों के , प्रकृति प्रेम का गवाह है !
   सोन नदी के तट पर ही , एक तपस्वी , प्रशांत शिव ने , अपना आश्रम बना कर , यहां के कालजयी , अद्भुत , और शिल्प की धरोहरों को दर्शाने वाले मंदिर की स्थापना की थी , जो आज चन्द्ररेह  के शिव मंदिर के रूप में विख्यात है !इस मंदिर में स्थापित शिव लिंग , उसका आंतरिक  शिल्प  , कंगूरे , भीतिकाएँ , उत्कीर्ण कला ,अचंभित करती है , और भारत के उन उत्कृष्ट शिल्पकारों की गाथा बखानती है , जो इस देश की सांस्कृतिक धारा के प्रवाह को निरंतर रखने में , अपना अपूर्व योगदान दे गए ! किसी युग में यह शिवमंदिर , शिव भक्तों और साधकों के ठहरने का भी स्थान था , जो यहां , मंदिर के चरों और बने मठों में आकर ठहरते थे ! आज यह भारत की राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संरक्षित है , और पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र है !
संजय नेशनल पार्क , परसुली वन अभ्यारण , गुलाब सागर डेम ,  बाण सागर डैम , के केंद्र में आज , वन सुषमा के बीच बना है ,, परसुली  रिसोर्ट  ! यहां पर्यटकों के ठहरने , आहार , और सभी दिशाओं में यात्रा करने हेतु , सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं ! सोन नदी के किनारे पर बना यह  रिसोर्ट  , सोन की धाराओं को निहारने , उसे आत्मसात करने का सुन्दर स्थान है ! यह मध्यप्रदेश टूरिस्म का , शाश्कीय रेस्ट हाउस है , जिसका शिल्प , मध्यप्रदेश के , विधानसभाभवन के शिल्पकार द्वारा , उसी तर्ज़ पर बनाया गया  है !  रिसोर्ट  के अंदर , सपरिवार ठहरने हेतु सुविधायुक्त कमरे हैं !
 परसुली रिसोर्ट से सीधी जिले के सभी दर्शनीय स्थलों तक पहुँचने के मार्ग हैं इसलिए इसे , सीधी जिले के टूरिज्म का केंद्र कहा गया है ! इसी के निकट बना है , बघेला राजाओं द्वारा निर्मित   कठ बंगला ,,,जो किसी समय राजाओं के , वन भ्रमण हेतु , ठहरने के लिए रेस्टहाउस का दायित्व निभाता था ! यह कठ बँगला आज भी दर्शनीय है !
    इस समूचे क्षेत्र की धरोहर है , वनवासी जीवन , उसकी लोक रीति , लोक नृत्य , लोकगीत ,, जो जिले के हर गावं में आज भी अपने मूल स्वरूप में मौजूद है !  यदि समय हो तो , कुछ दिन इन जंगलों के बीच आकर , प्रकृति से खुद को जोड़ने का कार्य हर व्यक्ति को करना चाहिए , क्योंकि सीधी जिला आज भी , अपनी मूल विरासतों से कोई समझौता नहीं किया है ! यहां की जनजातियों में कॉल , बैगाओं के अतरिक्त भारिया , अंगारिया जाती के लोग भी अपनी सांस्कृतिक विरासतों के साथ निवास कर रहे हैं !  भारिया जाती जंगलों की रखवाली करने वाली वह जाती है , जो कभी एक जगह स्थान बना कर नहीं ठहरती ! अंगारिया भी विभिन्न धातुओं को शोधने वाली विभिन्न परम्पराओं के  ज्ञान के धनी हैं ! इनकी प्रमुख खेती ज्वार है ,,जो बिना किसी पानी के अतरिक्त प्रावधान के आसानी से पैदा हो जाती है ! वहीं जो भी इनके लिए प्रमुख धान है ! महुआ की मदिरा , इसके जीवन का अंग है ,, और नृत्य , लोक गीत , लोक केहायें इनकी निधि !

    सीधी नगर में स्थापित कई सांस्कृतिक केंद्र , का संचालन यहां के युवाओं ने अपने कंधे पर उठा रखा है ! वे मिल कर लोक नाट्य का प्रदर्शन विभिन्न स्थलों पर करते है , लोक गीतों , और लोक नृत्यों , लोकवाद्यों , को वे आज की आधुनिक सभ्यता के बीच भी , संरक्षित रखने का संकल्प अपने मन में लिए हुए , किसी भी स्थिति , किसी भी परिस्थिति में , मूर्तवत करने हेतु  , अथक प्रयास कर रहे हैं ! सीधी नगर का रंग कर्म भी आज देश के विभिन्न कोनो में अलग अलख जगा रहा है जिसके सूत्रधार ,,इस नगर के रंगकर्मी युवा हैं !

     विंध्याचल की श्रेणियों में बहते सोन नदी ने , मध्यप्रदेश के जिले के वन भूमिभाग पर , जो सांस्कृतिक विरासतों के चिन्ह छोड़े हैं , उन्हें सीधी आ कर  , स्वयं निहारे बिना , वर्णन करना सहज नहीं , क्यूंकि वे बहु आयामी हैं ! इस भाग में हम सोन से विदा ले कर , विंध्य भूमि के उन अन्य भूमिभागों की चर्चा करेंगे ,,जो  विरासत की दृष्टि से अमूल्य हैं !
,,,सभाजीत


शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

 विंध्य की विरासत

  अमरकण्टक
 ,,,,, , जहाँ पश्चिम की और से आकर दो अलग अलग  , विंध्यांचल और सतपुड़ा पर्वत  की श्रेणियां , एक अन्य पर्वत श्रंखला,  मेकल से भेंट करती हैं , वहीं पर समुद्र तल से करीब १०४८ मीटर ऊँचे ,  चौरस स्थान पर स्थापित है एक आदिकालीन ग्राम  अमरकण्टक ! अमरकंटक  को कभी आम्रकूट नाम से पुकारा जाता था  ,  जिसका अर्थ था  , आम्रवन के ऊँचे ऊँचे पेड़ों से आच्छादित एक पर्वत शिखर ! कहा जाय तो यह शायद पर्वत राज मेखल की कन्या नर्मदा के  विवाह के लिएसजाया गया वह नैसर्गिक आम्र  मंडप था जहां , उसी पर्वत पर जन्मी मेखल की पुत्री , नर्मदा , शोणभद्र के साथ विवाह करने वाली थी ! विधि का संयोग की शोणभद्र , नर्मदा की एक दासी , जोहिला के यौवन के जाल में फंस गया , और जब यह बात जब  नर्मदा को पता चली , तो वह क्षोभ , वेदना , और शोणभद्र के बेवफाई के व्यवहार से चोटिल हो कर पश्चिम दिशा की और दौड़ कर मेखल की ऊंचाइयों से नीची कूद गयी !
  जनश्रुतियों की  यह कथा  भले ही कोई आधार रखती हो या न रखती हो ,  किन्तु तीन नदियों के उद्गम का यह क्षेत्र , तीन नदियों के चरित्र को आज भी बखान कर रहा है ! आज का अमरकंटक , अब नर्मदा की जन्म स्थली का पुण्यधाम बन चुका है ! पुराणों में नर्मदा को शिवपुत्री माना गया है ! यह भारत के पश्चमी भाग के लिए जन कल्याणी, जल दायनी  माता के रूप में पूजी जा रही है ! यद्यपि शोणभद्र भी भारत के पूर्वी भाग के लिए एक वरदान की तरह  प्रमुख जीवन  आधार है , किन्तु इसे इसकी बेवफाई के लिए देवता , या राजपुरुष जैसा सम्मान नहीं मिल पाया ! और तीसरी नदी , जोहिला , जो अमर कंटक से करीब दस किलोमीटर दूर ज्वालेश्वर की पहाड़ियों से निकलती है वह आगे जा कर सोनभद्र को खोज कर उस में समा जाती है ,, किन्तु उसे भी तिरष्कृत और  दूषित नदी माना गया है ! जनश्रुतियों की यह कथा प्रेम के उस मूल्य को स्थापित करती है जिसमें , " आसक्ति " ,  " वासना " और  " कपट " के लिए  कोई जगह नहीं है !

   नर्मदा , पहाड़ों से रिस कर निकली एक अनवरत जल धार है , जो इस पर्वत पर आच्छादित वृक्षों की जड़ों में समायी है ! पर्वत और वृक्षों का यह मिला जुला स्वरूप ही शिव है , जिसे महादेव के स्वेद के रूप में , उसे नर्मदा की उत्पत्ति का कारण बताया गया है ! आज इस स्थान पर एक मंदिर स्थापित  है , और अब उद्गम का वह बिंदु , भक्तिभावना के पीछे छिप  सा गया है !भारत के कोने कोने से , विशेष कर पश्चिमी मध्य भाग से , निरंतर लोग इस उद्गमस्थान के दर्शन करने पहुँचते हैं , और मंदिर पहुँच कर अपनी यात्रा को धन्य मानते  हैं ! इस उद्गम स्थान के चारों और २४  मंदिरों की श्रंखलाबद्ध कतार स्थापित  है , जो विभिन्न राजाओं , अथवा श्रद्धालु भक्तों ने बनवाये हैं !यहाँ मराठा साम्राज्य के भोंसले राजवंशों ने , केशवनारायण मंदिर का निर्माण करवाया , एवं इन मंदिरों के और कुंड के जीर्णोद्धार कार्य के  लिए इंदौर की रानी अहिल्या बाई का नाम भी आदर के साथ लिया जाता  है ! किन्तु इस उद्गम क्षेत्र के विकास लिए , रीवा रजवाड़े का विशेष योगदान माना गया है !जिन्होंने १९३९ में इस मंदिर के पुनर्निर्माण हेतु अपना विशेष योगदान दिया !  उद्गम स्थान पर एक प्राचीन कुंड है , जिससे जल ले कर लोग पूजा अर्चना करते हैं , और माता से अपने सुखद भविष्य की कामना करते हैं !यह  नर्मदा कुंड  कहलाता है !आदिगुरु शंकाराचार्य ने यहां आकर नर्मदा की पूजा अर्चना कर एक स्तुति गान लिखा था जो नर्मदा स्त्रोत्र के रूप में आज नर्मदा के सभी मंदिरों में गुंजायमान होता है ! उन्ही के द्वारा यहाँ बंशेश्वर महादेव की स्थापना की गयी थी , और कुंड की आधारशिला भी उन्हें के द्वारा रखी गयी !
         मंदिर परिसर में एक हाथी प्रतिमा है , जिसके नीची से लेट कर लोग बाहर निकलते हैं ! इस क्रिया में भक्त अपनी शाष्टांग मुद्रा में लेट कर नर्मदा को प्रणाम करते हैं !
        इस कुंड से आगे निकली जलधार परएक कुछ दूर जाकर , एक अन्य कुंड है , जो पुष्कर सरोवर के नाम से जाना जाता है ! यहां  सीढ़ियां बना कर , उसमें स्नान करने की सुविधा भी  बना दी गयी है !, इससे उद्गम स्थान के मूल कुंड  की पवित्रता स्थापित रह सके !यहां से नर्मदा उत्तर  मुखी हो कर , सरपट भागती हुई , एक पतली जलधार के रूप में आगे बढ़ जाती है ,,, ! यह उसका बाल्य रूप है ,, मन को लुभाता , स्नेह भरा भाव लिए , उस आम्रकुंज की और जाता ,हुआ  जहाँ उसे विश्वाश था की उसका प्रेमी , शोणभद्र उससे भेंट करेगा !वह आम्र कुञ्ज  इस धारा के तट  पर  आज भी  स्थापित है !
     आगे जाकर यह जलधार कबीर सरोवर जो एक कुंड के स्वरूप में है ,  पर कुछ देर  ठहर कर  जैसे   उंसासें भरती  है और शोणभद्र के चरित्र को भांप कर क्रोधित हो कर टेढ़े मेढ़े डग  भर्ती हुई , मेकल के एक छोर पर पहुँच कर नीचे कूदती फांदती , एक झरने के रूप में पहाड़ से नीची उतर कर पश्चिम दिशा में बढ़ जाती है !८-१० किलोमीटर की इस दौड़ लगाती  हुई यात्रा में , नर्मदा हजारों बार अपनी दिशा बदलती है , बौखलाई हुई , क्रोधित युवती की तरह ,,,जिसकी मनः स्थिति असंतप्त  दिखती   है !
        नर्मदा  कुंड से ले कर कपिलधारा तक ,, आज इस नदी के पूर्वी और पश्चिमी तट पर कई आश्रम , मंदिर , संस्थान स्थापित हो चुके हैं !जिसमें पूर्वी तट पर बर्फानी आश्रम , मृत्युंजय आश्रम , कल्याण सेवा आश्रम , शिवगोपाल आश्रम , रामकृष्ण कुटीर  के साथ साथ , सर्वोदयी विश्रामगृह , और गुरुद्वारा गुरुसिंघ सभा प्रमुख हैं ! पूर्वी तट पर ही जैन मंदिर और शिव मंदिर स्थापित हैं !
 जबकि पश्चिमी तट पर , चंडिका आश्रम , कलचुरी काल के पुरातन मंदिर , कर्ण  मंदिर , तपनिष्ठ धूना  , कोटितीर्थ कुंड , और गीता स्वाध्याय मंदिर स्थापित हैं !  निर्माणाधीन  श्रीयंत्र मंदिर आने वाले समय के लिए , एक भ्रमणीय स्थल साबित होगा ,,!
      विभिन्न औषधियों , वाटिका , और कुंजों के सम्मलित स्वरूप में  , माई की बगिया भी इस नर्मदा के तट पर उसके उद्गम से लगभग एक किलोमीटर दूरी पर  स्थित है !किंवदंतियों में यह स्थान राजा मेकल की पुत्री नर्मदा की वह वाटिका थी जहाँ आज भी गुलबकावली के फूल खिलते हैं ! यह औषधीय दिव्य पुष्प , शोणभद्र द्वारा घने जंगल से  खोज कर गया वह  पुष्प था जिसके  लिए , मेकल राजा ने अपनी पुत्री के विवाह की शर्त निर्धारित की थी ! गुलबकावली का फूल ,  नेत्र रोग की वह  आयुर्वैदिक  औषधि है , जिससे सभी प्रकार के नेत्र रोगों का उपचार होता है ! इस उपवन में आम के वृक्षों के साथ साथ , कटहल , सरई  और जामुन के वृक्ष हैं !
   
नर्मदा धारा के उद्गम से  दक्षिण पश्चिम दिशा में स्थापित हैं कलचुरी काल के प्राचीन मंदिर ! इनका निर्माण काल 1041  से 1073  ईस्वी के समय का है , जब इस क्षेत्र में कलचुरियों का शाशन था ! कलचुरी राजा , कर्णदेव ने इन मंदिरों का निर्माण करवाया था ! कलचुरी शिव भक्त थे , और उन्होंने अमरकोट क्षेत्र से ले कर रीवा तक कई शिवमंदिरों का निर्माण किया था ! इन मंदिरों की स्थापित्य शैली , एक जैसी ही है ! बड़े से चबूतरे पर तोरण द्वार , मंडप और गर्भगृह ! मंदिर में चारों और कईछोटी  मूर्तियों के माध्यम से , मनुष्य के भोग और योग की स्थितियों को उत्कीर्ण किया जाता रहा ! कर्ण  मंदिर पुरातत्व की दृष्टि से  एक दर्शनीय स्थान है !यहीं पर स्थापित है विष्णु मंदिर और आदि गुरु द्वारा स्थापित पातालेश्वर मंदिर और सूर्य कुंड ! जो आज श्रद्धा का केंद्र है !

   उद्गमस्थल से करीब एक किलोमीटर आगे ही बन रहा है " श्रीयंत्र " मंदिर जिसकी आधार शिला स्वामी सुखदेवा  जी महाराज ने अट्ठाइस वर्ष पूर्व रखी थी !यह तांत्रिक विद्याओं की साधना हेतु बनाया जा रहा , चौंसठ योगनी मंदिर की शैली का ही है !इसके गर्भ गृह में मा त्रिपुरा की मूर्ती की स्थापना होगी ! इसका शिल्प अद्वितीय है और यह अभी से पर्यटकों के लिए कोतुहल का केंद्र बन रहा है !
नर्मदाधरा के पूर्वोत्तरी तट पर निर्माणाधीन जैन मंदिर,कलात्मक मंदिरों की बानगी है !   जिनमें महावीर स्वामी की२४ टन  वाली , १० फ़ीट ऊंची एक विशाल प्रतिमा स्थापित है और प्राणप्रतिष्ठा की बाट  जोह रही है ! ! !नर्मदा ने भारत के मध्य भाग की गहन घाटी में बहते हुए हर धर्म , हर सम्प्रदाय के लोगों को अपने स्नेहयुक्त जल से अभिसिक्त कर ,  पल्ल्वित किया है , इसलिए उसके जन्म स्थली  में हर धर्म की झांकियां , भारत के एकात्मक , बहुमुखी स्वरूप को प्रदर्शित करती है !


   नर्मदा की धरा के दोनों तट पर स्थापित कई आश्रमों में बर्फानी आश्रम एक  चर्चित आश्रम है ! यह महात्माओं की साधना स्थली है और कई सिद्ध पुरुष यहां आश्रम में अपनी साधना करते हैं ! वहीं मृत्युंजय आश्रम , रामकृष्ण्कुटीर जैसे कई आश्रमों के अलावा , कल्याण सेवा आश्रम प्रमुख है! बाबा कल्याणदास जी द्वारा स्थापित यह आश्रम अद्भुत है !  जहाँ , पर्यटकों और यात्रियों के रात्रि विश्राम की  भी पूर्ण सुविधा उपलब्ध है !

       रुष्ट  , पीड़ित , अपमान से क्षुब्ध नर्मदा की ,  कपिलधारा  स्थल तक की यात्रा , टेढ़े मेढ़े पग रखती , बल खाती उस युवती की यात्रा जैसी यात्रा  है ,  जिसकी  अपने तन मन की सुध बुध खो गयी हो ! इस यात्रा में वह कभी कभी तो घूम कर एक बार फिर अपने  विवाह  स्थल की और भी निहारती है ,, और फिर मुड़  कर विह्वलभाव से फिरअपने पथ पर  आगे बढ़ जाती है ! वह जिस और निहारती है वह है सोनभद्र का वःह स्थान जहाँ सोनभद्र जन्मा था ! वही सोनभद्र जिसे शायद वह जन्म जन्मांतर से जानती थी ! वही सोनभद्र जो जौहला के प्यार में आसक्त हो कर उसे भूल बैठा था ! वही सोनभद्र जो उसके लिए जंगलों से गुलबकावली के फूल चुन कर लाया था !  कपिलधारा स्थल पर पहुँच कर वह मेकल पर्वत को छोड़कर चुपचाप छलांग लगाती हुई नीचे उतर कर घने जंगल में विलीन हो  जाती है ! यह स्थान आज पर्यटकों के भ्रमण का स्थल है ,,! यहां आज मेला सा लगता है !

    नर्मदा ने ठिठक कर जिस सोनभद्र की और क्रुद्ध भाव से देखा था , वही सोनभद्र सोनमुंडा स्थल पर पहाडों को तोड़ कर बाहर निकल कर , जल धार बन कर पूर्व दिशा की और बह निकला है ! यहां भी एक गोमुख है , जिससे निरंतर जल बाहर निकल कर बाहर आता रहता है ! किन्तु यह जल धार ज्यादा दूर तक नहीं बहती , ! इसे भान हो जाता है की उसके कारण ही देवी नर्मदा , अमरकंटक छोड़ कर , विह्वल हो कर सर्वथा विपरीत दिशा में दौड़ती चली गयी है ,,! उसे अपनी भूल का अहसास होता है , ग्लानि होती है , पश्चाताप होता है , और वह भी अमरकंटक के उच्चतम शिखर से एकाएक नीचे कूद कर छार छार हो जाता है ! सोनमुंडा के जिस स्थान पर सोनभद्र नीचे कूदता है वह धरातल से करीब १०० फ़ीट ऊंचा है ! सोन नीचे कूद  कर छार छार  हो कर भूमिगत हो जाता है और करीब दस किलोमीटर दूर जाकर फिर उथली जलधार के रूप में अवतरित होता है ,,!
 सोनमुंडा पर पर्यटकों का मेला लगा रहता है ! यहां आज लंगूर और बंदरों का साम्राज्य है ! ये बंदर इतने चतुर होते हैं की अगर कार की खिड़की खुली रह जाए तो कार के अंदर का सारा सामान पार करने में देर नहीं लगाते ! इस स्थल पर कई प्रकार की दुकाने सजी मिल जाएंगी जहां विभिन्न सामान मिलता है ! सोन के इस अवतरण स्थल पर अब मंदिर भी स्थापित हो गए हैं और ब्रम्हा से संबंधित कई धार्मिक कथाएं जन्म ले चुकी हैं ! नर्मदा उद्गम पर जहां भक्ति भाव है , समर्पण है , वहीं इस स्थान पर आमोद प्रमोद है ! सुदूर दीखते पर्वतों की श्रेणियां , अपलक निहारने को और मन्त्र मुग्ध हो जाने को बाध्य करती हैं !
  अमर कंटक जहाँ  श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए भक्ति स्थल है , वहीं  आयुर्वेद के ज्ञाताओं के लिए जड़ी बूटियों का विशाल खजाना ! गुलबकावली के फूल की अद्भुत क्षमता तो हम देख ही चुके हैं , लेकिन कंद  मूल , जड़ों , पत्तियों , वृक्ष की छालों , में छिपी औषधियां यहां प्रचुर मात्रा में मिलती है ! जबसे देश में आयुर्वेद चिकित्सा ने नए पंख पसारे हैं , तब से यह स्थल पूरे भारत में औषधियों के संकलन  का प्रमुख केंद्र बन चुका है !


अमरकंटक उन नर्मदा परिक्रमा वासियों के लिए यात्रा प्रारम्भ करने का स्थल है ,जो अमरकंटक से खम्बात की खाड़ी  तक की १३४२ किलो मीटर की  यात्रा , उसके दोनों तटों पर करके जीवन की साध पूरी करते हैं ! नर्मदा परिक्रमा , एक कठिन वृत्त की तरह है , जिसमें  जगह जगह अनजान जगहों पर पड़ाव करने होते हैं और खुद अपने हाथों से साधुओं की तरह टिक्कड़ सेक कर खाने होते हैं ! कुछ लोग पैदल यात्राएं करते हैं तो कुछ वाहनों पर ,,! यात्राओं के लक्ष्य और अनुभव इनकी थाती है ! परिक्रमाओं के अनुभवी , श्री अमृतलाल वेगड़ ने , इस परिक्रमाओं के सुख  दुःख , कष्ट और शान्ति की अनुभूति पर बड़ी पुस्तकें लिखी हैं  जो साहित्य जगत में अलग ही स्थान रखती है !

    अमर कंटक शहडोल जिले के अंतर्गत आने वाला एक धार्मिक पर्यटन स्थल है ! यहाँ आकर जिस आत्मिक शान्ति की अनुभूति होती है ,,वह अद्भुत है ! विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत यहाँ आकर मेकल के कन्धों पर जैसे अपने सर टिका देते हैं वहीं पर्यटक अपने जीवन की अशांति से ऊब कर यहां आकर श्रांत होकर अपना सर इस पुण्य धरा  के आश्रमों में शान्ति हेतु  धरा पर  टिका देते हैं !! नर्मदा यहीं से इन दो पर्वत श्रेणियों की गहन घाटी के बीच , जैसे दो भाइयों की सुरक्षित बाहुओं के बीच निःशंक हो कर  पश्चिम की और बहती है ! शोक संतृप्त , शॉन भद्र यहीं से जौहला को साथ ले कर , कैमूर पर्वत की श्रेणियों का सहारा ले कर पूर्व की और बह कर , मोक्षदायनी गंगा में मिल जाता है ! और कहना न होगा की विंध्य की साझा विरासत में , दक्षिण और उत्तर की  संस्कृतियां धूप   छावं की तरह सहेलियां बन कर यहीं पर  खेल रही हैं ! अमरकंटक विंध्यांचल की ऊंचाइयों से , उसकी श्रेणियों पर फैले , विंध्य की धरा के अवलोकन का वह विहंग बिंदु है , जिसमें विंध्य की विरासत समग्रता से एक ही दृष्टि से दृष्टिगोचर होती है !

---सभाजीत 
   

सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

विंध्य की विरासत
शहडोल सोहागपुर  नगर

 चारों और गहन वन , पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा , मेकल पर्वत  और विंध्याचल की  तलहटी में बसा , शहडोल नगर , कभी सोहागपुर नामक प्राचीन नगरी के नाम से विख्यात था ! जिस तरह अमर कंटक तीन नदियों का उद्गम  है , तीन पर्वतों का संधिस्थल है , उसी तरह सोहागपुर  तीन  प्राचीन राजवंशों ,रतनपुर के  कलचुरियों,  ,गढ़ा  के  गोंडों , और बघेल राजाओं के राज्यों की   सीमान्त     भूमि रहा है ! सोहागपुर उत्तर से दक्षिण दिशा जाने आने का वह  द्वार रहा है , जिससे हो कर कभी राम अपने वनवास काल की अंतिम शर्त निबाहने भारत के दक्षिण भाग में  दंडकारण्य गए थे ! किम्वदंतियां  है की सोहागपुर द्वापर युग का वह विराट नगर था , जहां पांडवों ने अपने वनवास के अंतिमवर्ष का अज्ञात काल , यहां के राजा विराट के महल में गुजारा था  और यहीं द्रोपदी पर गलत नज़र डालने वाले विराट के साले  कीचक का महाबली भीम ने वध किया था !

   गुप्तकाल के अवसान के बाद , नर्मदा तट के कलचुरियों ने,  नौवीं  से ग्यारहवीं सदी  तक , त्रिपुरी में राजधानी बना कर जब राज्य का विस्तार किया तो सोहागपुर उनके अधिकार में आया ! कलचुरियों ने कई दुर्ग , गढ़ियों   , जलाशयों  ,और भव्य मंदिरों का   निर्माण करवाया , जिसके अवशेष आज चंद्रेह  , गोर्गी , सोहागपुर , अमरकंटक , आदि  में देखने को मिलते हैं ! दक्षिण से उत्तरी राज्यों के विजय अभियान में सबसे पहले जो  महत्वपूर्ण  दुर्ग राह में आते थे , उनमें से , पहला सुहागपुर , दुसरा बांधवगढ़ , और तीसरा कालिंजर माना गया है !१५वीं सदी में गुजरात से आये बघेलों ने पहले कालिंजर , फिर गोहरा दुर्ग पर अधिकार जमाया किन्तु मुगलों के विरोध के कारण उन्हें जब कालिंजर और गोहरा छोड़ना पड़ा तो वे तब , बांधवगढ़ आये ! उस समय सोहागपुर गोंडों के आधीन था ! १८५७ की पहली क्रान्ति में अंग्रेजों ने बघेल शासकों का साथ लिया  , और बदले में उन्हें मिला सोहाग पुर का राज , जो  स्वतंत्रता प्राप्ति तक उनके आधीन रहा !

          सोहागपुर में आज भी प्राचीन काल की गढ़ियाँ उपस्थित है ! इन गढ़ियों में बनी बावड़ियां , उस काल की अनवरत जल प्रदाय की  द्योतक हैं ! वर्तमान में यहां , बघेल राजवंशों के रियासतदारों का निवास है ! सोहागपुर कल्चुरीकाल की मूर्तियों  खजाना है , और आज भी पग पग पर खोदने पर कई मूर्तियां निकलती रहती हैं !
               लेकिन समय काल  ने , सोहागपुर को पीछे छोड़  दिया ! कभी सोहागपुर से बाहर निकल कर  , करीब ढाई किलोमीटर दूर , १६वीं सदी में , शहडोलवा अहीर के द्वारा ,बसाया गया एक  छोटा सा गावं , आज चमक दमक  से युक्त शहडोल जिले का सुन्दर  नगर बन गया है ! शहडोल को सहारा मिला कटनी बिलासपुर रेलवे लाइन पर बने उस रेलवे स्टेशन से , जहां से वनोपज को  देश के अन्य भागों तक ढो कर  ले जाने के लिए अंग्रेजों ने उसे  बनवाया था ! शहडोल का  रेलवे  स्टेशन ,आज बहुत विकसित स्टेशन है , और पर्यटकों के आवागमन को  भारत के हर कोने से  जोड़ता है ! स्टेशन के निकट का क्षेत्र अब होटल , रेस्टुरेंट , से सजा हुआ वह विकसित स्थान है जहां सभी प्रकार की भोजन और   ठहरने की उत्तम व्यवस्था है !

      रेलवे स्टेशन से बाहर निकलने पर , शहडोल की आधुनिकता के रंग में रंग में रंगी हुई , आदिवासी और विकसित आर्य सभ्यता का समवेत रूप ,  एक सार हुआ दिखता है ! चौराहे  भव्य हैं , आवागमन के लिए सभी प्रकार के वाहन मार्गों पर दौड़ते दीखते हैं ! बाज़ार समृद्ध है , और कुछ अट्टालिकाएं , शहडोल के क्रमश उत्थान की   गाथा बखान रही हैं !

        यहां ,  लोगों में यह  मान्यता है की महाभारतकाल में , जिस बृक्ष पर , अर्जुन ने अज्ञातवास के दौरान , अपने हथियार पोटली में बाँध कर एक पेड़ पर सुरक्षित रखे थे , वह  शमी वृक्ष आज भी वहीं  विदवमान है ! इस बृक्ष को आज  लोग शीश नवा कर  प्रणाम करते हुए , उससे  अपनी मनोकामना पूर्ण होने की कामना करते हैं ! महाभारत काल के राजा विराट के महलों के  कोई अवशेष तो अब यहां नहीं है , किन्तु कीचक वध का स्थान  आज भी  लोगों में चर्चित है !पथरीले क्षेत्र में भोज्य शाला के  कई अवशेष आज उस काल के अवशेषों के रूप में जन श्रुतियों में व्याप्त हैं जहां स्त्री वेश में भीम ने कीचक का वध किया था  !
       एक  पुराने उद्यान में स्थित बावड़ी  को यहां के निवासी , राजा विराट के समय उद्यान में  राजा  रानी के आवागमन का मार्ग बताते हैं  ! इस उद्यान में बहुत उम्र दार वट बृक्ष  युक्त ,एक विस्तृत  बगीचा है ,~ यह रमणीक है , और पुरातन काल के अवशेषों में से एक माना  जाता है !,
   यहीं पर स्थित है , एक सिद्ध पुरुष की धूनी !,,,फट्टी  बाबा की धूनी ! कहते हैं की कभी एक रेलवे कर्मचारी को यहां की सिद्धदेवी , कंकाली देवी ने स्वप्न में दर्शन देकरआदेश दिया  की वह शहडोल आकर उनकी पूजा अर्चना करे ! उस कर्मचारी ने अपनी नौकरी छोड़ दी और शहडोल आकर माँ  कंकाली देवी की अनवरत पूजा में ,  लींन हो गया !यहां आश्रम बना कर , धूनी जला कर , यहीं  रम गया !  इस धूनी पर आज लोग आकर मत्था टेक  कर मंगल कामना करते हैं , औरअपने  दुःख निवारण की  प्रार्थना   करते हैं  !

   जिन कंकाली देवी की पूजा अर्चना में , सिद्ध परुष ने अपना सारा जीवन , खुले आसमान के नीचे बिता दिया , उसका भव्य मंदिर शहडोल में ,आज भी  गहन आस्था का केंद्र बना हुआ है ! यह एक विशाल मंदिर है ,,और  क्षेत्र के चारों और से आकर ,  लोग  माता के दर्शन हेतु यहां पंहुचते हैं !  धार्मिक मान्यताओं के अनुसार , दक्ष के यज्ञ को विन्ध्वन्श करने के बाद भी , जब भगवान् शिव का मोह , देवी सती की काया से नहीं टूटा , तो विष्णु ने उस काया को अपने चक्र से  खंड खंड कर दिया , फिर भी कंकाल शेष रह गया , जिसे कंधे पर लादे शिव  यहां जब आये तो इस सिद्ध क्षेत्र में उनकी मोह की  तंद्रा जागी , और उन्होंने  माँ सती का वह  कंकाल यहां फेंक दिया और तपस्या हेतु पर्वत शिखर पर चले गए ! वही अठारह भुजाओं युक्त ,  कंकाली देवी  यहां विराजमान है ! यह आदिवासियों , और उत्तरी सभ्यता के आर्यों की सम्मलित भक्ति की विरासत है ! इनकी पूजा का प्रथम अधिकार , गोंड जाती के पुजारियों को है , और उनके बिना पूजा सम्भव नहीं !

             शिव के विराटस्वरूप का द्योतक यहां का विराटेश्वर मंदिर , कलचुरी काल के स्थापित्य का उत्कृष्ट नमूना है ! यद्यपि शिवलिंग , खजुराहो के मंदिरों की तरह विराट नहीं है ,,किन्तु मंदिर पर उत्कीर्ण , शिल्प , कलचुरियों की श्रेष्ठ कला की अभिव्यक्ति का नमूना है ! मंदिर का अग्रिम भाग , जीर्ण होने के कारण पुनः निर्मित किया गया है , किन्तु मंडप और गर्भ गृह , उसी स्थिति में है ! कलचुरी मूलतः  शिव भक्त थे  इसलिए उनके समय में शिव मंदिर की स्थापना यत्र तत्र देखने को मिल जाती है !

      शहडोल का बाणगंगा कुंड , कभी अनवरत जल का श्रोत रहा होगा ! गहराई तक खुदे कुंड का तल , पृथ्वी  की  परतों से जुड़ा रहता है , इसलिए इसमें , भू गर्भीय जल निरंतर भरते रहने के कारण यह कभी सूखता नहीं  ! ऐसे जल श्रोत को पुरातन काल में बाण गंगा , या पाताल गंगा शब्द से जोड़ कर इसकी अनवरतता को चरितार्थ करने के लिए , इसे दिव्य  बाण  द्वारा उतपन्न किया गया  जल कुंड कहा जाता रहा है !  जनश्रुतियों में ,लोग इसे  महाभारत काल के राजा विराट की राजधानी से  जोड़ कर भी  देखते हैं !
 अब  यहां पर एक विकसित उद्यान , नगरपालिका द्वारा बना दिया गया है , जो आधुनिक शहडोल के निवासियों का भृमण  केंद्र बन गया है ! संध्या होते ही यह उद्यान यहां के युवाओं , और वयस्कों की उपस्थिति से भर जाता है ! रंग विरंगे पुष्प , मनोरम छटा बिखेरते हुए यहां आने वाले पर्यटकों के मन को मोह लेते हैं !

  शहडोल  , आदिवासी , और आर्यों  की  मिली जुली संस्कृति का केंद्र रहा है !शहडोल जिले के घने जंगलों के मध्य बसे  , आदिवासियों में  , गोंड , कमर , अहीर , गड़रिया , अगरिया , कॉल , भूमिया , जन जातियां निवास करती हैं ! इनमें अधिकतम , वनोपज पर आधारित हैं , और खान पान में मोटा चावल , जवां का बना पेज और साधारण सब्जियां प्रयोग में लाती हैं ! कभी जंगलों के बने रहने तक आखेट करके वन्य  जीवों  का मांस भी इनके भोजन में शामिल रहता था , किन्तु अब जंगली मुर्गे पाल कर उसका उपयोग ये लोग करने लगे हैं ! इनके देवी देवताओं में देवी और ब्रह्म का विशेष स्थान है ! बड़े बब्बा , और चौत्रों चबूतरों को भी ये शृद्धा पूर्वक नमन  करते  हैं ! वनोपज से प्राप्त बांस से कई प्रकार के सामान बनाने में ये निष्णात  हैं !
     विंध्य की विरासत के  इनके लोक नृत्य ,अब तक  देश भर में धूम मचा चुके हैं ! ढोलक , टिमकी , मादल , की थाप पर चांदनी रात में जब ये समूह बना कर नाचते हैं तो वह  उमंग देखते ही बनती है !

    शहडोल का शाब्दिक अर्थ कुछ भी रहा  हो , उसका अधिस्थापा कोई भी हो , किन्तु अनुभूति में शहडोल , मीठे शहद से भरा वह  छत्ता है , जो वनांचल में , उन पर्वतों , वृक्षों की  शाखाओं पर लगता है ,, जहां  प्रकृति का रस कूट कूट कर  भरा होता है ! वृक्षों से झरते महुए की जो सुगंध , आदिकाल से मनुष्यों को  मदमस्त करती रही , और मीठी शहद की मिठास ,  औषधीय गुणों से   , जो मनुष्यों को चिर जीवी बनाती रही , उसका उपवन  है ,,शहडोल !  विंध्य की विरासत का  यह भू भाग धर्म , आस्था , प्राकृतिक सौंदर्य  ,सरल  जनजीवन से युक्त वह भू भाग है , जिसे देख कर न सिर्फ आँखें तृप्त होती हैं , बल्कि इसकी गोद  में कुछ पल बिताने से  मन को  भी  अपूर्व शान्ति मिलती   है !

---सभाजीत   

मंगलवार, 28 जनवरी 2020

#गढ़कुंडार

गढ कुंडार का दुर्ग और उसके भग्नावशेष गढ़-कुंडार मध्य प्रदेश के निवाङी जिले में स्थित एक गाँव है। इस गाँव का नाम यहां स्थित प्रसिद्ध दुर्ग(या गढ़) के नाम पर पढ़ा है। यह किला उस काल की न केवल बेजोड़ शिल्पकला का नमूना है

गढ़ कुङार का इतिहास

गढ़ कुङार का इतिहास बहुत ही गौरवशाली है । जूनागढ़ के राजा रूढ देव जू खंगार के पुत्र खेत सिंह खंगार क्षत्रिय दिल्ली सम्राट पृथ्वी राज चौहान के साथ बुदेलखंड में आए । जो की पृथ्वी राज चौहान के सामंत थे महाराजा खेत सिंह खंगार क्षत्रिय जी ने गढ कुङार पर खंगार राज्य की स्थापना की और 1182 से लेकर 1347 तक खंगार क्षत्रिय शासन रहा जिसमें खूब सिंह खंगार राजा मानसिंह खंगार

राजा हुमात सिंह खंगार क्षत्रिय नाग देव खंगार वरदायी खंगार क्षत्रिय राजवंश साथ ही गढ़ कुङार की विरांगना केशर दे

गढ़ कुङार का जौहर

बुदेलखंड जिसे जिझौतिखंङ के नाम जाना जाता है था बुदेलखंड का पहला जौहर गढ़ कुङार में हुआ तुगलक ने जब गढ़ कुङार पर आक्रमण किया तब खंगार क्षत्रिणीयो ने अपने स्वाभिमान की रक्षा हेतु किले में बने अग्नी कुङं में हजारों खंगार क्षत्रिणीयो के साथ मिलकर जौहर किया था परन्तु कभी स्वाभिमान को नहीं झुकाया जो गर्भवती रानी थी वह गुप्त रास्ते खंगार क्षत्रिय राजवंश को जीवित रखने के जंगलों का सहारा लिया । इसमें गढ़ कुङार की विरांगना केशर दे ने तलवार से भीषण युद्ध किया और अंत में जौहर किया जिसका स्मारक आज भी गढ़ कुङार पर बना हुआ है

गढ़ कुङार की कुल देवी माँ गजानन

गजानन माँ जो हाथी और शेर पर विराजमान है । जो खंगारो की कुल देवी माँ गजानन जिनका प्रचीन मंदिर बना हुआ जिनका प्रसिद्ध जल कुङ आज भी हजारों सालों से पहाड़ पर बना हुआ है । गढ़ कुङार के राजा खेत सिंह जू की वरदानी थे उनकी चमत्कारी तलवार जो पत्थर को भी चीर देती थी वह माँ का वरदान स्वरुप है

क्षत्रियों में सिंह शब्द का प्रयोग

सिंह शब्द एक उपाधि है जो खंगार राजाओं की देन हैं जब पृथ्वी राज चौहान बुदेलखंड की ओर कूच कर रहे थे तभी भिन्ङ मार्ग पर रात्रि ठहरे तभी कुछ षडयंत्रकारी ने उन्हें उकसाया की खेत सिंह जू की वीरता का परिचय लिआ जाए सुबह आयोजन हुआ जिसमें बब्बर शेर और खेत सिंह का भीषण युद्ध हुआ जिसमें खेत सिंह खंगार क्षत्रिय जी ने शेर को चीर दिया चारो तरफ आवाज आयी शेर चीरा शेर चीरा तभी पृथ्वी राज चौहान ने कहा सिंह पर विजय प्राप्त करने वाले सिंह होते हैं 11 वी सदी के बाद सभी राजा अपने नाम के साथ सिंह जोड़ ने लगे

वर्ष 2006 में मध्य प्रदेश मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं भारत के गृहमंत्री मा राजनाथ सिंह ने महाराजा खेत सिंह जू की जयंती समारोह के उपलक्ष्य में भव्य गढ़ कुङार महोत्सव की घोषणा की जो मध्य प्रदेश के संस्कृति मंत्रालय द्वारा तीन दिवसीय संचालित किया जाता है जिसमें सम्पूर्ण भारत वर्ष से लाखों खंगार क्षत्रिय समाज आते भव्य मेले का आयोजन होता । गढ़कुंडर 27 दिसंबर को महाराजा खेतसिंह खंगार की जयंती मनाई जाती है।

★रहस्य★

देश भर में अनेक ऐसे किला हैं, जिन्हें हम जैसा देखते है, वैसा ही पाते हैं। लेकिन यह कहानी है उस रहस्यमयी किला की, जिसके बारे में हम आपको बताने जा रहे है। जिसकी विशेषता ही इतनी डरावनी है कि अनेक लोग इसे सुनकर ही यहां जाने के बारे में सोचते हैं। बावजूद इसके यहां सैलानियों की भीड़ लगी रहती है। इस किला का विशेषता यह है कि १२ किलोमीटर दूर से किला की आकृति को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, लेकिन जैसे ही हम किला के नजदीक जाते है किला वैसे-वैसे गायब होने लगता है। नजदीक पहुंचने के बाद तो जैसे कुछ समझ पाना ही मुश्किल होता है कि जो दूर देखा था, क्या हम वहीं हैं। इतना ही इस किले की कहानियां भी डरावनी हैं।

हम बात कर रहे है बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले में स्थित गढ़ कुंडर किला की। यह किला मध्य भारत में मध्य भारत राज्य के उत्तर में स्थित एक छोटे से गांव में स्थित उच्च पहाड़ी पर स्थित है। ओरछा से सिर्फ 70 किमी दूर है। यह मध्यप्रदेश में विरासत के किले में से एक है और प्रेम, प्रेम लालच और भयानक तोडफ़ोड़ का एक महान इतिहास है। गढ़ कुंडर इतिहास में प्रमुख व्यक्तित्व नागदेव और रूपकुन्वर हैं। उनकी प्रेमिका की कहानियां अभी भी बुंदेलखंड के लोक गीतों में हैं। यह इस तरह से स्थित है कि 12 किमी से यह नग्न आंखों से दिखाई देता है, लेकिन आप इसे करीब पहुंचते हैं, यह विहीन दिखाई देता है और उसे ढूंढना मुश्किल हो जाता है। यह 1539 ईसवी तक राज्य की राजधानी का इस्तेमाल किया गया था। बाद में राजधानी को बेतवा नदी के तट पर ओरछा स्थानांतरित कर दिया गया था।.

यह है डरावनी कहानी, पूरी बरात हो गई थी गायब
स्थानीय निवासी इस किले के बारे में जो बताते है, उसे कुछ डरावनी कहानियां भी है। स्थानीय वृद्ध डोमन सिंग बताते है कि अनेक वर्षों पूर्व इस किले मे घूमने के लिए आई पूरी की पूरी बारात गायब हो गई थी। जिसके बारे में अब तक कोई सुराग नहीं मिल सका है। यह बारात अब भी रहस्य बनी हुई है। डोमन सिंग के अनुसार काफी समय पहले यहां एक गांव में एक बारात आई थी, जिसमें करीब ७० लोगों के शामिल होना बताते है। जो कि सभी गढ़ कुंडर के किला घूमने के लिए गए थे। बताया जाता है कि बाराती किला में घूमते-घूमते वहां चले गए थे, जहां कोई नहीं पहुंच सकता था। यह किला का जमीनी के भीतर का हिस्सा बताया जाता है। इसके बाद बाराती वापस ऊपर नहीं आ सके। इस तरह पूरी की पूरी यहां गायब हो गई थी। बताया यह भी जाता है कि इस घटना के बाद जमीन से जुड़े दरबाजों को बंद कर दिया गया था। गढ़कुंडार के रहस्यों के बारे में ग्रामीणों द्वारा और अधिक तो बताया गया, लेकिन इशारों ही इशारों में इतना जरूर कह दिया कि किला रहस्य से भरा हुआ है। किले की एक और विशेषता है कि भूलभुलैया और अंधेरा रहने के कारण दिन में भी यह किला डरावना लगता है।

जिनागढ़ के महल के नाम से था प्रचलित
खेत सिंह न केवल पृथ्वीराज चौहान के प्रमुख हैं बल्कि एक करीबी दोस्त भी हैं। वह मूल रूप से गुजरात से थे उन्होंने युद्ध में परमल शासक शिव को पराजित किया और किले पर कब्जा कर लिया और खंगर वंश की नींव रखी। उस समय तक, यह जिनागढ़ के महल के नाम से जाना जाता था। यह खेत सिंह खंजर था जिसने नींव रखी और जिजाक भुक्ति क्षेत्र में खंगर के शासन के शासन को मजबूत किया। वह वर्ष 1212 ई। में मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद, खांगर की पांच पीढ़ी ने यहां शासन किया। बाद में खेत सिंह के पोते महाराजा खुब सिंह खंगर ने जिनागढ़ पैलेस को दृढ़ कर दिया और इसे 'कुंडर किले' के नाम से रखा। कुंडर शासक, इस किले से लेकर 1347 ईस्वी तक शासन करते थे, जब मोहम्मद तुगलक ने इसे कब्जा कर लिया था जो बुंदेल शासकों के लिए प्रभारी सौंपे थे। नागदेव आखिरी खंगेर शासक थे, जिन्हें कई अन्य खांगर सेना के जनरल के साथ हत्या कर दी गई थी, जिसमें एक बुर्जे शासकों ने हिस्सा लिया था। उस समय में बुंदेल शासकों ने मुगलों की जिम्मेदारता की थी बुन्देला राजा बीर सिंह देव ने इसके लिए आवश्यक नवीकरण का काम किया और इसके वर्तमान स्वरूप को प्रदान किया।

किले की विशेषताएं भी दंग करने वाली
गढ़ कुंडर किले में 150 फीट की ऊंचाई है और 400 फीट की चौड़ाई फोर्ट में प्रवेश द्वार है जिसकी ऊंचाई 20 फीट है। किले परिसर की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बाहरी दीवार में गेज्बो / टॉवर की संख्या हैब्रिटिस्टर बिलोचमन ने इस किले के बारे में प्रसिद्ध किताब अकबरनामा के बारे में बताया। उनका कहना है कि किले 01 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले हुए हैं। यह इस तरह से डिजाइन किया गया है कि यह नए आगंतुकों के लिए एक पहेली बनी रहे। किले एक खुला विशाल आंगन के आसपास बनाया गया है किले रेत पत्थर से बना है जो स्थानीय क्षेत्र में आसानी से उपलब्ध है। यह इस तरह से डिज़ाइन किया गया है कि अंदर के कमरे आसानी से बाहरी लोगों को देख सकें लेकिन बाहरी व्यक्ति अंदरूनी नहीं देख सकते हैं। आप किले में कुछ चट्टानों और खंभे पर शिलालेख पा सकते हैं। एक बार जब आप गढ़ कुंडर किले में प्रवेश करते हैं, तो बाईं तरफ, एक छोटा सैनिक बैरक होता है। यह दक्षिणी सेना में है किले के मुख्य पहाड़ टॉवर परिसर के दक्षिण-पूर्व पर स्थित है कुल किले स्तंभों पर खड़े हैं और बहु-मंजिल किले परिसर है। प्रत्येक मंजिल के निर्माण में प्राकृतिक प्रकाश, जल आपूर्ति, घास का भंडारण, शौचालय आदि के लिए विशेष ध्यान दिया गया है।

खंडहर में बदल रहा स्वरूप, लेकिन पहचान कम नहीं
गढ़ कुंडर का किला देखरेख के अभाव में दिन प्रतिदिन खंडहर में बदलता जा रहा हैं। धर के लालच में लोगों द्वारा इसमें जगह-जगह खुदाई भी कर दी हैं, लेकिन इसकी पहचान पर अब तक कोई फर्क नहीं पड़ा है। गढ़ कुंडार का किला अब भी अपनी पहचान देश में बनाए हुए है। जैसा कि सभी ने इतिहास में पढ़ा है, वहीं शान आज भी इसकी है। गढ़ कुंडर किला चंडला, बुंदेला और खंगर जैसे बुंदेलखंड शासकों के अधीन रहा। यह प्रकाश में आया जब 1180 में राजा पृथ्वी राज चौहान के प्रमुख खेत सिंह खंगार ने अपनी राजधानी यहां बनाने की योजना बनाई। गढ़ कुंडर किले के महत्वपूर्ण पर्यटक आकर्षण हैं। मुरली मनोहर मंदिर, रानी का महल, अन्धाकोप, स्टोरेज हाउस, राज महल, नरसिंह मंदिर, सिद्ध बाबा स्थान, रिसाला, दीवान-ए-अमा, दीवान-ए-ख़स, घोड़ा अस्तबल, जेल घर, मोती सागर, राव सिया हाउस आदि। इसी तरह हम भी पास के पर्यटन बिंदुओं पर जा सकते हैं जैसे निमा शहर, गढ़ी हाथीया किला आदि। उनके स्थानीय देवी महा माया ग्रीड वासनी का एक महत्वपूर्ण मंदिर है, जिसे स्थानीय लोगों के बीच बेहद माना जाता है। यहां एक पानी की टंकी भी मंदिर के करीब, सिंह सागर टैंक में मौजूद है। किले के उत्तर-पश्चिम में, बेतवा नदी 3 मील की दूरी पर बहती है। हर सोमवार एक स्थानीय बाज़ार दिन होता है जिस पर स्थानीय लोग खरीदारी करने के लिए इक_ा होते हैं, जो उनके रिवाज, अनुष्ठान, स्वाद आदि को समझने के लिए एक अच्छा दिन है। अक्टूबर से जनवरी तक यहां अधिकांश लोगों की भीड़ पहुंचती है।
          --महेबा-सहानिया  मऊ 
ओरछा के  राजा रुद्रप्रताप सिंह  के तीसरे पुत्र उदयप्रताप सिंह को बंटवारे में महेबा की जागीदारी मिली !! ओरछा के बुंदेलों ने कभी मुगलों से प्रकट में बैर नहीं की ,इसलिए ओरछा पर तो मुगलों ने  कभी  कोई आक्रमण नहीं किया !   , किन्तु  उदय प्रताप के वंश में जन्मे चम्पतराय को मुगलों की आधीनता कभी  रास आई  ! उन्होंने स्वयं को स्वतन्त्र राजा  घोषित करते हुए मुगलों को कर देने से मना कर दिया ,,! बदले में शाहजहां के काल में , मुगलों ने कई   बार महेबा पर चढ़ाई की ! इसी छुटपुट लड़ाइयों में एक बार चम्पतराय को अपनी रक्षा हेतु यहां की मोर पहाड़ियों में , अपनी गर्भवती पत्नी के साथ शरण लेनी पडी  , और इसी युद्ध के वातावरण में जो उनके यहां पुत्र रत्न पैदा हुए  ,,उन्होंने बुंदेलों की कीर्ति दक्षिण में मराठा साम्राज्य तक फैला दी ! यह यशश्वी पुत्र  थे ,महाराज चम्पतराय के पुत्र ,महाराजा छत्रसाल ,,जिन्होंने बाद में ओरंजेब की सेना को नाकों चने चबवा दिए !
      छतरपुर से १९ किलोमीटर दूर , नागावं मार्ग पर स्थित , महेबा के ध्वस्त महल , चम्पत राय की वीर गाथाओं  को  बखानते  हैं !


अयोध्या के राजकुमार , युग पुरुष राम के परिवेश में ढलने वाले 
तपस्वी राम की तपस्या का गवाह है , ,,चित्रकूट !  मत्गयेन्द्र  मंदिर से लेकर , मंदाकिनी के विभिन्न घाटों  पर , कामद गिरी के  शिखर पर , गुप्त गोदावरी की गहन कंदराओं में , गृहस्थ जीवन के आदर्श , सती  अनुसुइया के पवित्र आश्रम पर , भार्या सीता के के साथ , रमणीक स्फटिक शिला पर , एकांत वास करते राम के पद चिन्ह , यहां आने वाले हर रामभक्त के लिए , मनोकामनाओं के पूरक हैं ! किन्तु राम किसी विशेष भूमिभाग , किसी विशेष विचारधारा के परिचायक नहीं है ! वे तो गरीब केवट के हठ  को सहजता से  स्वीकारने वाले , आदिवासी निषाद राज के अभिन्न मित्र , ज्ञानी तपस्वियों के आदर्श , शबरी के झूठे बेर  प्रेम पूर्वक खाने वाले , जलचर , नभचर ,  , गरुड़ , काकभुशण्ड , जटायु , सम्पत , के आराध्य , किष्किंधा के वानरों के ह्रिदय सम्राट , रावण और विशाल सागर के अभिमान का हनन करने वाले , वे महापुरुष हैं , जिनकी कीर्ति , भारत में ही नहीं , विश्व के अनेक देशों में आज भी सूर्य की तरह  दमक रही है !
     राम कथाएं , नेपाल , श्रीलंका , और वर्मा देश की प्राणवायु हैं !येडागास्कर द्वीप से ले कर , आस्ट्रेलिया तक , राम की यश पताका आज भी फहरा रही हैं !मलेशिया , थाईलैंड , कम्बोडिया , जावा , सुमात्रा , बाली द्वीप , में राम के जीवन प्रसंग आज भी जन जन  में चर्चित हैं !  वहां  के भू भाग में , राम के युग की , आर्य संस्कृति के अवशेष आज भी विदवमान हैं !यहाँ तक की , फिलीपींस , चीन , जापान , और प्राचीन अमेरिका में भी राम की छाप आज भी देखने को मिलती है ! पेरू के राजा खुद को सूर्यवंशी ही नहीं , कौशल्या सुत  राम के वंशज मानते हैं !
    विश्वव्यापी  राम के इस विराट  स्वरूप को  लोगों के ह्रदय में स्थापित करने के लिए , आधुनिक महर्षि , नानाजी देशमुख ने चित्रकूट की भूमि सर्वथा उपयुक्त माना ! चित्रकूट आने वाले सभी राम भक्तों , साधकों , पर्यटकों , और भारतीय दर्शन के शोधकर्ताओं को राम के उस विश्व्यापी विराट छवि के दर्शन होते हैं ,  , नानाजी देश मुख द्वारा स्थापित किये गए रामदर्शन मंदिर में ! इस भव्य स्थान पर , राम से साक्षात्कार होता है , दीर्धाओं में उत्कीर्ण , राम के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं के चित्रण से , जो बड़े यत्न से , विभिन्न देशों की , विभिन्न  सांस्कृतिक  शैलियों में उत्कीर्ण की गयी हैं ! अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्रयेष्ठि यज्ञ से ले कर , वशिष्ठ और विश्वामित्र के सान्निध्य में , धनुर्धर राम की श्रष्टि के चित्रों के साथ , सीता स्वयंबर , राम वनवास ,केवट संवाद ,निषाद मित्रता , सीताहरण , जतायुवध , हनुमान मिलन , बाली वध , अशोकवाटिका , रामरावण युद्ध और राम के राजतिलक की गाथा  विशिष्ट शैलियों , और उत्कृष्ट कला के साथ उकेरी गईं है , जो विश्व के हर देश में बसे राम से से साक्षात करवाती है , और चित्रकूट पर्यटन पर आया हर व्यक्ति , इस वीथिका से निकल कर ,  राम से एकात्म हो कर , राम मय हो जाता है ।
      
         राम यदि चित्रकूट न आये होते तो वे प्रकृति की उस अलौकिक शक्ति , उसकी ऊर्जा , और अमोघ औषधियों से परिचित न हुए होते , जो प्राकृतिक कन्द मूल , वनस्पतियों , और प्रकृति के नियमों में समाहित हैं । इसी प्राकृतिक शक्तियों को संचित कर , वे उस बल के स्वामी बने , जिससे निशाचरों का विनाश हुआ , और नाभि कुंड में अमृत सँजोये , रावण का विनाश  भी सहजता पूर्वक हो सका । भारत के उस प्राकृतिक ज्ञान , ऊर्जा , औषधियों की जनक , आयुर्वेद की उस महाशक्ति की, विभिन्न जड़ी बूटियों को पुनः युवाओं से जोड़ने , उन्हें शिक्षित करने हेतु , औषधियों की खेती का कार्य आज , नानाजी देशमुख के प्रयत्नों से साकार हो गया है । आज के चित्रकूट में आधुनिक शिक्षा के साथ , विलुप्त होते पुरातन ज्ञान विज्ञान को भी संरक्षित करने का काम , नानाजी देशमुख द्वारा स्थापित संस्था द्वारा अबाध गति से किया जा रहा है ।

       आज का चित्रकूट , सिर्फ आस्था , से शीश नवाने का तीर्थस्थल  ही नहीं है , बल्कि भारतीय परंपराओं , सेवा , शिक्षा ,और संस्कृति का अभिनव केंद्र है । कहना न होगा कि आस्था का चित्रकूट अगर राम पर केंद्रित है तो सांस्कृतिक ज्ञान का चित्रकूट , युगपुरुष नानाजी देशमुख पर , जिन्होंने तत्व सार से ,  राम  को  चित्रकूट के जनजीवन से संजो दिया ।

 --- सभाजीत