शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

" ज्ञात ....अज्ञात.."


























जल में , थल में या फिर नभ में ,
तुम में , मुझ में या फिर सब में ...,
कस्तूरी के मृग जैसे क्या सब ढूंढ़ रहे हैं...,
दिखताहै जो रोज़, क्योँ उससे आँखें मूंद रहे हैं...!!

एकाकी है ? , सन्यासी है ?, या विरक्त है ?
पूजित है ? या फिर वो खुद ही एक भक्त है॥?
व्यक्त हर जगह होकर भी क्यों वह अव्यक्त है ?
एक पहेली हम कबसे यह बूझ रहे हैं ...?



 'प्रेम ' है या फिर खुद ' प्रेमी ' ही है वह ..
' ओघड ' है या नियमबद्ध एक ' नेमी ' है वह ..
' सूक्ष्म' है या फिर है विराट वह ,,
'आयत ' है या की है ' गीता का पाठ ' वह .....?
उलझे प्रश्नों के उत्तर न हमको सूझ रहे हैं ..!

' नूर ' में बसता है या फिर ' बेनूरी ' में वह ..,
'दान ' में है या की ' भूख की मजबूरी ' में है वह ..,
' ठंडा जल ' है या की ' सूर्य ' की दग्ध ' आग ' वह
' कर्म ' है या फिर विधि के हाथों लिखा ' भाग्य ' वह ,
ज्ञानी पंडित क्यों शाश्त्रों में जूझ रहे हैं ..!!

...रे मन !! चल इस ' दुनिया ' को भूलें ..,
डूब के अंतस - अंतर्मन में , 'खुद ' को छूलें ..,
निश्छल , निर्मल , निर्मोही ' मन ' उसका घर है ,
नहीं कोई इश्वर ..अरे तू खुद ही इश्वर है ,,, ,


'शब्द ' जनम से यही ह्रदय में ' गूंज ' रहे हैं ..!!
---'सभाजीत'

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