सोमवार, 17 सितंबर 2012

raamleelaa

( नेपथ्य  गीत ...,)

" रघुपति राघव राजा राम ,,
पतिति पावन  सीता राम "

            ---आजादी के कर्णधार , देश के परम प्रिय , रास्ट्रपिता , महात्मा  गांधी ने , जब यह भजन गाया था , तब देश अंग्रेजों की गुलामी के १५० वर्ष भोग चुका था ! १८५७ की भग्न क्रान्ति , देशवासियों को असफलता के गहरे दंश दे गयी थी ! आम भारतीय , राजे रजवाड़े , अंग्रेजों के दमन चक्र से आक्रांत हो चुके थे और तब हर भारतीय के मन  में जो आशा और आदर्श की एकमात्र  लो  टिमटिमा रही  थी - वह थे - " राम " ! वे राम जिन्होंने हर विपरीत स्थिति का सामना द्रढ़ता से किया , जिन्होंने मानव जीवन के  विविध संबंधों को नए आयाम दिए ,  वे राम जिन्होंने हाथ उठा कर प्रतिज्ञा की की वे हर हाल में , उन असुरों का बध करेंगे , जो मानव संस्कृति के दुश्मन  हैं !
                   इश्वर के न्याय में आस्था रखने वाला , भारतीय समाज , देश के कोने कोने ,   हर कसबे , , हर गाँव , ,  में  राम की उस मूर्ति को तलाशने लगा , जिसने एक ऐसे आदर्श राज्य के स्वरुप को , भारतीय जनमानस में स्थापित किया था , जहां ना कोई दरिद्र था , ना रोगी , ना अधर्मी , और ना  किसी के द्वारा प्रताड़ित - किसी विपदा का शिकार ! ' देहिक देविक भोतिक तापा - राम राज्य काहू नहीं व्यापा ..., की कल्पना को साकार करने के लिए , लोगों ने  गोस्वामी तुलसी दास जी के ग्रन्थ - रामचरित मानस को अपना मुख्य ग्रन्थ मान कर , घर - घर में स्थापित किया  और राम से  करवद्ध यह प्रार्थना की की वे स्वयं उनके  के बीच आ कर  , भारतीय गृहस्थों , परिवारों , ग्रामों -  नगरों , में बसे   समाज को प्रेम और कर्तव्य भावना से ओतप्रोत करके , एक संस्कारित समाज की स्थापना करदें  , जिससे भारतीय समाज एक जुट होकर आसुरी प्रवत्तियों , संस्कारों से लोहा ले सकें  !
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                सदियाँ गवाह रही है की , कोई भी विदेशी आक्रान्ता , भारतीय समाज की सहिष्णुता , सत्य प्रेम  , भाईचारे , और संतोषी जीवन शेली के गुणों के आगे , अपनी विदेशी संस्कृति के बीज रोपने में , आसानी से सफल नहीं हो सका  ! ऐसी स्थिति में , चतुर अंगरेजी कोम  ने १८ वीं सदी में , अंगरेजी संस्कृति को शिक्षा के माध्यम से  , भारतीय लोगों के दैनिक जीवन  में उतारने  का प्रयत्न शुरू किया , ताकि वे निर्बाध ब्रिटिश शाशन के लिए , ऐसा भारतीय समाज तैयार कर सकें , जिसमें अंगरेजी भाषा प्रेम  , अंगरेजी  संस्कृति के हिमायती , अंगरेजी रंग में रंगे , भारतीय समुदाय पैदा हो सकें , और जो भारतीयों को  पश्चिमी सभ्यता का दास बनाने में उन्हें सहायता कर सकें  ! अंग्रेजों की यह नीति काम कर गयी ..., और आधुनिकता के नाम पर , तेजी से भारतीय युवा , आंग्ल परिधान , आंग्ल खान पान , और आंग्ल विचारधारा  की और आकर्षित होने लगे !

                १८ वीं  और १९ वीं सदी के संधिकाल का  युग ऐसा ही युग था जिसमें भारत का  धनाड्य युवा वर्ग  , राजा रजवाड़ों की नयी पीढी , शिक्षा के नाम पर , विदेशी पढ़ाई करके , देश में एक नई विदेशी संस्कृति के बीज  बो रही थी , जिसमें अंगरेजी रीतियाँ , अंगरेजी खानपान , अंगरेजी संस्कृति का अनुसरण करना  गर्व का विषय हो गया था ! अंग्रजों ने इस नई देशी विलायती कोम के लोगों को , अपने शाशन में बड़े बड़े ओहदे देने शुरू किये , उन्हें पदवियां और रुतबे  बांटे , ताकि  अधिक से अधिक भारतीय , इस चकाचोंध से प्रभावित होकर , भारत में विदेशी संस्कृति के पुरोधा बन जाएँ !

                लेकिन दूसरी और , इस योजना को भांप कर , भारतीय जन मानस भी अपनी संस्कृति के रक्षार्थ सतर्क होने लगा ! अपनी अस्मिता पर आक्रमण होते देख , भारतीय समाज अन्दर ही अन्दर एक जुट होने लगा , और इस सांस्कृतिक घुसपेठ के विरुद्ध ऐसे मार्ग तलाशने लगा  , जो भारतीय युवाओं को , उनके धर्म , दर्शन , संस्कृति ,  रीत  रिवाज़ से अलग ना होने दे ! घोर अन्धकार में , उन्हें एक ही प्रकाशवान  मूर्ति नज़र आई ..., और वे थे जन जन के नायक - " राम " ! भ्रमित हो रहे भारतीय समाज को , अपनी संस्कृति से एकाकार करने के लिए , तत्कालीन भारतीय समाज ने - " राम कथाओं " को नाट्य माध्यम से , जन जन तक फैलाने का संकल्प लिया  और प्रारंभ हुई  गाँव गाँव में  ' राम लीला " नाट्य मंडलों की दूरगामी यात्राएँ !

                   मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में , छतरपुर जिले की वर्तमान तहसील के रूप में बसा . एक स्थान - " नोगाव "  , सांस्कृतिक उथल  पुथल की  इन दो सदियों का एक जीता जागता  महत्वपूर्ण गवाह रहा ! इस नगर की स्थापना अंग्रेजों द्वारा  सन  १८४३ में तब की गयी , जब बुंदेलखंड के दुरूह - प्रस्तर प्रांत में स्थापित , पन्ना  , छतरपुर , ओरछा , झांसी रियासतों पर उन्हें सैन्य कंट्रोल करना  मुश्किल प्रतीत होने लगा ! इन बड़ी रियासतों के सान्निध्य में आकर क्षेत्र की कई अन्य छोटी रियासतें भी बगावत के रंग में रंगने लगी थी , ऐसी स्थिति में एक बड़ी सैन्य छावनी के रूप में  - नोगाव  - अंगरेजी संस्कृति और अंगरेजी सैन्य शक्ति के  गढ़  के  रूप में उभरा  !
                     अपनी सैन्य छावनी के  रूप में अंग्रेजों ने इस नगर की संरचना  बड़े मनोयोग से की ! ४८ वर्ग किलोमीटर  के  क्षेत्र में फैले , इस सैन्य क्षेत्र में उन्होंने ४० किलोमीटर  लम्बाई की सड़कें  इस तरह फैलाई की प्रत्येक आधे  किलोमीटर पर एक चौराहा , दिशा चयन के लिए उपलब्ध हो जाये ! १३२ चौराहों से सज्जित , इस छावनी का एक भाग , साफ़ सुथरा  नगरीय क्षेत्र  बना , जहाँ चर्च , बाज़ार , सामान्य जनता , के घर बसाये गए ! सैन्य बेरक , सैन्य अधिकारीयों के बंगले  , अंगरेजी  पलटन की ट्रेनिंग और कवायद  के लिए अलग क्षेत्र  रखा गया जिसे आज लोग  एम् इ एस के नाम से पुकारते  है ! हवाई पट्टी, की व्यवस्था  के साथ यहाँ ३६ रियासतों पर द्रष्टि रखने के लिए , एक ब्रिटिश  पालिटिकल एजेंट  रखा गया  जिसके कार्यालय में  प्रत्येक रियासत के राजा आकर अपनी हजारी बजाते थे ! अंग्रेजों द्वारा बसाई  गयी यह छावनी न सिर्फ अंगरेजी हुकूमत का गढ़ थी बल्कि , अपरोक्ष में रजवाड़ों को  अंगरेजी संस्कृति की चकाचोंध में ढालने का एक केंद्र  थी !
                   इसी नोगाव कस्बे  में कानपुर से  सन १८९० में , एक सम्रद्ध खत्री परिवार , अपने व्यवसाय की चतुर्मुखी कल्पनाएँ लेकर,  आकर बसा ,  जो ' महरोत्रा ' परिवार के नाम से जाना गया ! इस परिवार के प्रथम व्यक्ति  श्री गोविन्द प्रसाद  जी महरोत्रा ने नोगाव में एक व्यावसायिक  फर्म की स्थापना की , जिसके तहत , घोड़ा  गाडी के ठेके , रेलवे आउट एजेंसी  , ब्रिटिश कंपनी को राशन सप्लाई का कार्य शुरू किया ! एक भव्य रहवासी बिल्डिंग का निर्माण , नगर के प्रमुख मार्ग के   प्रमुख चोक पर हुआ , जिसे नगर वासियों ने " कोठी " के नाम से उच्चारित किया !

>>>> इंटरव्यू ....(  श्री विनोद मेहरोत्रा का ..., उनके   पूर्वजो  और व्यवसाय  के  बारे में उनके द्वारा  संछिप्त विवरण )

                     श्री गोविन्द प्रसाद जी के छः पुत्र रत्नों में से ,  श्री बलभद्रदास जी ने प्रथम  यह महसूस किया की नोगाव अंगरेजी रियासत  बनती जा रही है जहाँ अंगरेजी संसकृति  अपना प्रभाव  ,  समाज पर शने:   शने:  जमा रही है ! इसके  प्रतिकार स्वरुप उन्होंने अपने पूज्य पिता  गोविन्द दास जी के  हाथों , नोगाव में सन १९०६ में रामलीला मंचन की नीव  खुद आग्रह करके डलवाई !  नोगाव जन मानस में  सभी सामाजिक कार्यों के अगुवा , और  धर्म ध्वजा के ध्वजारोही के रूप में ' बल्ली बाबू '  यानी बलभद्र दास जी ने  जो ज्योति जगाई वह  प्रकाशित होकर आज १०८ वर्षों तक  निरंतर जल रही है !

>>>>> इंटरव्यू   श्री विनोद महरोत्रा  ( श्री बल्ली बाबू के जीवन काल , उनके कार्यों , और रामलीला प्रेम के  बारेमें ..., उनका रामलीला में सक्रीय योगदान के बारे में संछिप्त विवरण  )

                   यूँ  तो ' रामलीला '  लोक नाट्य के रूप में १६ वी  शताब्दी से ही जन - मन के बीच आ चुकी थी  किन्तु उसमे द्रश्य परिवर्तन और द्रश्य संयोजन  की कला  समाहित ना होने से , वह सीमित दर्शकों के बीच ही अपना स्थान बना पाई !....' लोक नाट्य' - मात्र कुछ गिने चुने दो  तीन कलाकारों द्वारा ही मंदिर परिसरों , नगर के खुले चबूतरो  पर प्रस्तुत किया जाता था  , जिसमे नाट्य सामग्री  भी  मात्र सांकेतिक रूपों में  ही  व्यक्त की जाती थी ! इन नाट्य परम्पराओं में भाव  भंगिमा का स्थान ज्यादा था  और सूत्रधार  स्वयं मुख्य पात्र होता था ! किन्तु यूरोपियन  नाट्य शेली के  भारत में प्रवेश करते ही , भारतीय नाट्य विधा अधिक  रंग धर्मी , और चित्ताकर्षक  हो गयी !  नोगाव रामलीला के जनक वल्ली भैया ने - अपनी रामलीला को अधिक प्रभावी  और चित्ताकर्षक बनाने के लिए , पार्सियन थियेटर  की तकनीक और मंच सज्जा   को अपनाने का  मार्ग , एक प्रयोग धर्मी  युवा भारतीय की तरह चुना !  लेकिन ' राम कथा ' के मूल स्वरुप ,  उसके भक्ति भाव , उसके  चिंतन , और आस्था  के साथ कोई समझौता नहीं किया !   १९०६  में प्रथम मंचन , अस्थाई  मंच बना कर , वर्त्तमान बलभद्र पुस्तकालय की खुली भूमि पर हुआ  , जो कई वर्षों तक उसी प्रकार  चला !  राम लीला की कुछ लीलाएं ,  नगर के अन्य गणमान  लोगों ने  अपने  भवन द्वार  पर करवाई   जिसमे ' नाव नवैया ' , और  भरत  मिलाप  की लीलाएं  , श्री राम चरण बजाज , और सेठ कल्याण दास जी के भवन द्वारों पर की गयी !  बाद में यह लीलाएं भी निर्धारित रंग मंच पर होने लगी !

 >>>>>>>> इंटरव्यू  ( किसी पुराने सम्मानित नागरिक का  इतिहास बताते हुए )

                    ज्यो ज्यो समय बीता , नोगाव रामलीला और अधिक आकर्षक और अधिक पवित्र होती गयी !  नोगाव  नगर में रामलीला  सिर्फ नाट्य  की विषय वस्तु नहीं थी .., बल्कि वह हिन्दू उपासकों की गहन आस्था का प्रतीक थी ! इसलिए इस लीला   में   चयनित किये गए राम , लक्ष्मण , भारत , शत्रुघ्न , सीता के पात्र , अवयस्क ,ब्राम्हण  पुत्रों को सोंपे जाते रहे  ताकि आम जन,  इश्वर स्वरूपों में ही उन्हें नमन करे !  ...१३  दिनों की लीला के लिए चुने गए  बाल  ब्राम्हणों  के समूह को  , लीला के एक माह पूर्व से  ही आम जनता के सान्निध्य  में जाने से वर्जित कर दिया जाता था !  इन बालकों का अपने परिवार में रहना भी वर्जित था ! इनके खाने पीने की व्यवस्था , राजसी स्वरूप में , बलभद्र धर्मशाला  के विशेष कक्षों में रहती थी , जहां वे अपना पाठ याद करते , समायानुसार दैनिक दिनचर्या करते  !  ,   उनके स्वरुप को निखारने  के लिए उनका उबटन किया जाता ! दशरथ नंदन चारो भाइयों , और  सीता मां  के पात्र स्त्युत्य  होते थे   अतः  बालकों को यह आभाष करवाया जाता था की , जिन मर्यादा स्वरूपों का वे अभिनय कर रहे हैं , लीला के इन १३ दिनों में वस्तुतः वे खुद भी  उस इश्वर के   अंश  के स्वरुप की तरह ही  हैं    !
              १३ दिनों की राम लीला  के मंचन में , मुख्य स्वरुप पात्रों को मिला कर कम से कम ५०  अभिनेताओं की जरुरत  रामलीला मंडल को होती है  जिसकी पूर्ति नगर वासी स्वयं अभिनय करके करते हैं ! इन पात्रों में - ' विश्वा मित्र ' , 'दशरथ, कोशिल्या , केकियी , सुमित्रा , जनक , परशुराम , सुमंत , केवट , सूर्पनखा ,  रावण , मंदोदरी ,  मेघनाद , कुम्भकरण , बाली , सुग्रीव , एवं हनुमान के पात्र विशिष्ट हैं  ! इन सभी पात्रों के अभिनय का दायित्व , नगर के सभी वर्गों के विशिष्ट लोग  उठाते हैं !  विशिष्ट पात्रों में - ' रावण ' , मेघनाद , हनुमान , दशरथ , विश्वामित्र , परशुराम , और जनक के पात्र , आचारंयुक्त , संस्कारी , ब्राम्हण समुदाय के लोगों को ही आबंटित किये जाते हैं !


 >>>>>> इंटर व्यू .......( पात्रों की  विशेषता ,,, चयन .... रिहर्सल,,, आदि के बारे में - धर्मशाला के  बाहरी द्रश्य ) )
               नोगाव रामलीला में - परम्परागत मेकअप  पर बहुत पेनी द्रष्टि राखी गयी है  ! स्वरूपों के श्रृंगार में , अनुभवी  श्रन्गारियों की  टोली , मंच के पाछे जुड़े श्रृंगार कक्ष में सायं ६ बजे ही प्रवेश कर जाती है   ! श्रृंगार में , स्वरूपों के मुख पर पहले ' मुर्दाशंख ' नामक पत्थर को घिस कर लगाया जाता है  और फिर उसे समरूप किया जाता है ! भोहों को  काली स्याही से धनुषाकार  करके , कपोलों पर लाली लगाईं जाती है वा , तत्पश्चात ललाट पर  वैष्णव  तिलक की सुन्दर आकृति , लाल और सफ़ेद रंग से चित्रित करके , भोहों के ऊपर से लेकर गालों तक  लाल सफ़ेद तिपकियां   चित्रित की जाती है ! देखते ही देखते  ' स्वरुप ' सोंदर्य मय हो जाते हैं  और चेहरा देदीप्यमान  हो जाता  है ! ! शेष  शोभा - मुकुट , कुंडल , नाक की बुलाक , गले की मालाओं , विशेष राजकीय  वस्त्रों को पहना कर पूर्ण कर दी जाती है ! नोगाव की लीला में स्वरुप के चरण , मोज़े पहना कर आवृत किये जाते हैं ! स्वरुप में ईश्वरीय आव्हान  तब पूर्ण होता है , जब उनके मुकुटों पर किरीट लगाये जाते हैं और उनकी पूजा अर्चना एवं आरती संपन्न की जाती है !
  अन्य विशिस्ट पात्र जहाँ मुख पर मुर्दाशंख के   लेप  का प्रयोग करते हैं , वहीँ  साधारण पात्र  सिर्फ दाढी मूंछ लगाकर , साधारण सिरस्त्रान या मुकुट  पहन कर  पात्र के अनुरूप यथोचित वस्त्र धारण कर अपना श्रृंगार पूर्ण कर लेते हैं !
 श्रृंगार कक्ष दो भागों में बंटा रहता है ! जहाँ एक और स्वरुप का श्रृंगार पूर्ण होता है , और दूसरी और अन्य पात्रो का ! श्रृंगार कक्ष , रंगमंच के पार्श्व  के जुड़े हुए भवन में रहता है ! श्रृंगार कक्ष में  अनुशाशन बहुत कडा होता है , और किसी भी अपरचित का प्रवेश पुर्णतः वर्जित रहता है !

 >>>>>> इंटरव्यू ( श्रृंगार पर , सामान के स्टाक पर , वस्त्रों के स्टाक पर , प्रकाश डालता हुआ !  तथा पुराने श्रन्गारियों की याद ताज़ा करता हुआ ! ) "

               नोगाव रामलीला का सबसे आकर्षक और उत्कृष्ट अंग रहा -  उसका  रामलीला  मंच ! , जो थियेटर  की तरह एक सम्पूर्ण हाल रहा ! इस मंच एवं  हाल का निर्माण वल्ली बाबू ने वर्ष  १९३५ में करवाया !  २००  फीट गहरा , ७५ फीट चोडा, और प्रेक्षक स्तर से  ६ फीट उंचा  , एक चोकोर चबूतरा , जो बीच में विशेष प्रभावों को  दिखाने के लिए  खोखला रखा गया ! इसी चबूतरे पर ,  बाहरी भाग में , २५ फीट ऊँचे  स्थायी विंग लगाये गए  , जिनके पीछे लगाया गया प्रथम पर्दा - राम सीता , लक्षमण के भव्य स्वरुप को दर्शाता था ! इस परदे के पीछे , १०० फीट तक की गहराई तक , पांच पांच फीट के अंतराल में कई चित्ताकर्षक परदे होते थे , जो अयोध्या नगरी , महल , वाटिका , जंगल ,  और मायावी द्रश्यों का सजीव चित्रण  मंच पर उपस्थित कर देते थे ! इन पर्दों पर हुए चित्रों के अनुरूप ही बगल में दोनों और , तथा ऊपर , विंग लगाये जाते , जिन्हें द्रश्या अनुसार  धकेल कर आगे पीछे किया जाता था ! कुछ परदे स्क्रीन की तरह बीच से , दो भागों में बाँट जाते थे , जिसका प्रयोग चलते हुए द्रश्य के मध्य में ही किया जाता था !
 द्रश्य की प्रभावोत्पादकता  के लिए , प्रसंग के अनुसार पर्दों का उपयोग किया जाता था एवं उनसे सम्बंधित विंगो को खिसका कर आगे कर दिया जाता था ! पर्दा खुलते ही - दर्शक पहले .. द्रश्य के वातावरण में ही डूब जाता था ,  !
 इस मंच का दूसरा आकर्षण था . प्रसंग के अनुसार सेट्स बनाने का ! दशरथ दरबार में   दशरथ का ' सिंहासन ' . नदी के द्रश्य में लहरों का प्रभाव दरसाती , चलायमान पट्टिकाएं , हवन बेदी में लाल , पीली , पन्नियाँ लगा कर , उसे कम्पित करके अग्नि का स्वरुप देना  , सामान्य सेट्स की श्रेणी में आते थे , किन्तु  क्षीर  सागर में शयन करते , विष्णु को अचानक दर्शकों के सामने प्रगट करने के लिए , रिवाल्विंग सेट का प्रयोग , दशरथ को हवि सोपने  , और जनक के हल   चलाने  पर  धरती से बाहर अचानक  निकल कर आने वाले  अग्नि और सीता के पत्रों के लिए   अन्दर ग्राउंड लिफ्ट का प्रयोग , चलायमान रथ  पर सवार होकर वन गमन करते राम सीता के द्रश्य , अद्भुत प्रभाव उत्पन्न करते थे , जिसकी कल्पना आज से ७० वर्ष पूर्व  मंच पर करना भी  शयद असंभव थी !
            निसंदेह  इस मंच की उत्कृष्टता , भव्यता  का  श्रेय , नोगाव रामलीला के पुरोधा - बलभद्र दास जी को ही जाता है -- जिन्होंने स्वयं अपना धन व्यय करके , नोगाव रामलीला को एसा  भव्य द्रश्यावली युक्त मंच प्रदान किया  ,


>>>> इंटर व्यू ...( कथन की सन १९२५ में रामलीला के मंचन को बंद करने के प्रकरण पर , झांसी राम लीला का आयोजन , और बाद में नोगाव में आनन् फानन में  सामग्री , चरखारी के थियेटर से खरीद कर , फिर से लीला करना )

                        लेकिन इससे भी अधिक उत्कृष्टता रही लीला के मंचन में ! , जहाँ भव्य सेट्स की प्रष्ठभूमि में , जो लीला खेली गई वह नितांत पारंपरिक शेली की थी !   १९०६ में , प्रथम मंचन के समय  से ही , लीला का मुख्य आधार ' रामचरित मानस ' को ही चुना गया ! वाचक परम्परा का निर्वाह करते हुए , मंच पर रामायण वाचक , दो व्यक्तियों के दल में , चोपाइयों का पाठ , उच्च स्वर में करते , और ' स्वरुप 'अथवा अन्य पात्र उन चोपाइयों के अर्थ को संवाद की तरह मंच पर बोलते ! वस्तुतः ये वाचक  लोग लीला के संवाहक के रूप में , लीला को आगे बढ़ने के लिए सूत्रधार की तरह काम करते !
            लीला के नाट्य अंग के उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए , एक सहायक नाट्य ग्रन्थ - " राम यश दर्पण ' का चयन किया गया ! , यही नाटक आज भी लीला के नाट्य अंग का आधार है !
          भारतीय नाट्य परम्परा  में , ' संगीत ' पक्ष नाट्य का शसक्त अंग माना  गया है ! नोगाव रामलीला में , यही संगीत पक्ष , लीला का अत्यंत उज्जवल और मधुर  पक्ष है ! लीला के लिए निर्धारित  किये गए  सभी गीत और उनका संगीत  पुरी तरह  पारंपरिक है  , और उनकी धुनें अत्यंत मधुर एवं  पारंपरिक हैं !  अधिकतम गीत , राम , लक्षमण , सीता , के स्वरूपों द्वारा  गेय  हैं , जो  धनुष  यग्य , राम वनवास , लक्षमण शक्ति , एवं  जनकपुरी  की  पुष्प वाटिका  में गाये गए हैं !

>>>> इंटरव्यू ( गीतों की परम्परा , उनकी धुनों ,  , एवं प्रभाव के बारे में ) ( वाचक परम्परा में ... वल्ली बाबु , कृष्णदत्त पंडित ,घिस्सू बाबु का जिक्र ) * संगीत परम्परा में  मोनी बाबु , लखीराम जी , नारायण मास्टर , वगेरह का जिक्र   हारमोनियम  पर गीतों की रहर्सल , गाते हुए फ्लेश )

              अतीत  के झरोखे से , नोगाव  रामलीला  की यात्रा बहुत गौरव मयी  है ! इसके सञ्चालन में , तीन पीढ़ियों  के सदस्यों की भूमिका यादगार है ! १९०६ से लेकर आज तक , मंचित की गयी लीला में कई नाम ऐसे हैं , जो उनके कृत्यों के कारण अविस्मर्णीय है ! ७५ वर्ष तक , अपने वैभव का प्रतीक बना रामलीला भवन , जब एक उम्र के बाद , जीर्ण शीर्ण होने लगा , और हाल की केपेसिटी , दर्शकों की संख्या के लिए कम पड़ने लगी , तब हाल के ठीक बगल में , एक खुली ज़मीन पर , एक अन्य मंच बनवाने की योजना , रामलीला कमिटी द्वारा प्रस्तावित की गयी ! इसके व्यय का भर उठाया  महरोत्रा परिवार की तीसरी पीढ़ी के युवा सदस्य श्री विनोद मेहरोत्रा ने , जिसमे ग्राम वासियों के साथ मार्ग दर्शन मिला कमल महरोत्रा का ! एक वर्ष के अल्प काल में ही यह नया मंच १९८० में बन कर तैयार हुआ , और इसे कमिटी के अध्यक्ष श्री कमल महरोत्रा ने लोकार्पित करते हुए , राम लीला के भविष्य को  1980 में नए हाथो में सोंप दिया  !
             वर्ष १९८०, नोगाव रामलीला का हीरक जयंती का वर्ष था ! इस  वर्ष नगर के लोगों ने अपने पूर्वजों के योगदान को याद किया , उलास से हीरक जयन्ती मनाई !
              १९८० से लेकर . अब तक रामलीला , अब बाहरी मंच पर ही खेली जा रही  है ! पुराने रामलीला मंच का रूप इस मंच स्थानांतरण के कारण  क्षरित हो गया ! मंच की द्रश्यावली प्रभावित हुई , किन्तु लीला अपने स्वरुप में निरंतर रही !

>>>>>> इंटर व्यू ( १९८० के हीरक जयंती का वर्णन , मंच निर्माण का वर्णन )   !

              आज नोगाव रामलीला शतायु होकर - १०८ वर्षों का सफ़र पूरा कर चुकी है ! इन १०८ वर्षों की यात्रा में उसने कई परिवर्तन देखे हैं - लोगों के विचारों में - संस्कृति में, आस्था में !भारतीय समाज आज सजीव लीला को छोड़कर , मूर्तिपूजा के भव्य आयोजनों की और मुड  गया है ! एक और जहाँ मंच पर आकर्षक द्रश्यावली के कम होने से दर्शकों की संख्या घटी ,  वहीँ दूसरी और आधुनिकता की दौड़ में आँखे बंद कर के दौड़ती युवा पीढ़ी , टी वी , फिल्म , एवं झांकियों के आकर्षण में सिमट कर रह गयी  !
            आज ,,, १०८ वर्ष पूर्व ,जिन पूर्वजों ने , संस्कृति के क्षय से भयग्रस्त होकर , रामलीला के आयोजनों की परिकल्पनाएं की थी - उनके स्वप्न,  आज की युवा पीढ़ी के पश्चिमी संसकारों के आचरण को अपनाते  देख कर , ध्वस्त हो गए होंगे   !  एसा सिर्फ हमारे सामजिक कर्णधारों के साथ ही नहीं हुआ - हमारे स्वतन्त्रता संग्रामी  ,  देश पर प्राण  न्योछावर करने  वाले सभी रन बांकुरों , और हमारे प्रिय रास्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ भी हुआ है ,जिन्होंने भारत में रामराज्य का स्वप्न देखने के लिए  - जन मानस में राम का नाम उचारा था !
           लेकिन क्या यह अंत है ..? , शायद नहीं ! क्योंकि  राम तो अविनाशी  हैं , घट घट  में व्याप्त  .., और उनकी लीलाएं  मनुष्य का ..जीवन आधार ! तो रामलीला की आभा कभी  क्षीण नहीं होगी ! वह गंगा की तरह निरंतर है ..., वह सागर की तरह अटल है .., आकाश की तरह अनंत है ..., नोगाव की रामलीला इस निरंतरता को आज भी बनाये हुए है  और शायद कल भी बनाये रहेगी ! !


>>>>>> ( वर्तमान रामलीला के धनुष  यग्य के द्रश्य .., रावण  बध  ..., लोगों के गले मिलना ..., राज गद्दी ...) 





नामावली स्क्रोल ...!   !  ,

सोमवार, 10 सितंबर 2012

भगवान् " राम " सदेव  हिन्दू धर्म  के उद्धारक ' के रूप में  , हिन्दुओं केकाम आते रहे हैं ! जब १६ वीं सदी में ओरंगजेब ने , हिन्दुओं का जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करवाया ,  और हिन्दू आक्रांत हुए , तो " राम " ने गोएवामी तुलसीदास को प्रेरणा दी , और उनके ग्रन्थ  रामचरित मानस  के माध्यम से हिन्दू ना सिर्फ एक हुए बल्कि उन्होंने अपने चारित्रिक उत्थान के लिए ' राम कथा ' का अनुगमन किया !
 बाद में जब  अंगरेजी राज्य में ,  अंग्रेजों के वायसराय लार्ड मेकाले ने सांस्कृतिक युद्ध छेड़ते हुए , अंगरेजी संसकारों , अंगरेजी भाषा के लिए , अपने पिट्ठू भारतीयों को प्रेरित किया , तो भारत के हिन्दू समुदाय फिर जागे !   हिन्दुओं ने प्रत्येक नगरों में , संसकारों की रक्षा के  लिए , " रामलीला " खेलने का आयोजन किया , जिसमें न सिर्फ आम जनता सामने आई , बल्कि तत्कालीन धनाड्य वर्ग ने भी , ' राम ' कथा को ' रामलीला ' के माध्यम से जन जन में उतारने के लिए पूरा सहयोग दिया ! यह राम लीला विदेशी संस्कृति के विरुद्ध , हिन्दू संसकृति को अक्षुण रखने के लिए , निरंतर आजादी के बाद भी खेली जाती रहीं !
नीतियों , भारतीय मूल्यों , को साहित्य में  , सुरक्षित रखने के लिए हमारे रास्त्र्री स्तर के कवियों ने भी " राम " का सहारा लिया और मैथिली  शरण गुप्त ने " साकेत " की रचना की ! राम कथा का अनुवाद हर भाषा में हर प्रान्त में हुआ ! जन जन जैसे " राम माय " हो गया !
भारतीय राजनीती में , महात्मा गांधी ने जन जन से जुड़ने के लिए " राम " का सहारा लिया , और खुले  मन से गाया - " रघुपति राघव रजा राम " ! वे राम प्रेम और राम अनुयायी के रूप में ही आम हिन्दू जनता में महात्मा के रूप में , स्थान बनाये !  कहा गया की उन के अंतिम उदगार भी यही थे .." हे राम " ..!
भारतीय जनता पार्टी को जब अपने अस्तित्व के बचाव के लिए कोई मार्ग नहीं मिला तो उन्होंने भी " राम " का सहारा लिया ! 'राम मंदिर " के नाम पर ही भा जा पा की डूबती नैया को  नई दिशा मिली और वे फिर सत्ता में अस्तित्व में आये ! बजरंग दल , विश्व हिन्दू परिषद् , धर्म के कई ध्वजा रोही भी " जय श्री राम " कह कर ही आम हिन्दू जनता के बीच अपनी पैठ बनाये !
प्रसिद्द गायक " मुकेश " कई भावपूर्ण गीत गए , किन्तु उन्होंने जब " रामायण  " गाई तो जैसे  वे जन जन में पहुँच गए ! लता ने भी " ठुमुक चलत " और  " पायोजी मैंने रामरतन " गाया तो  ये गीत कई गानों से अलग , रत्नों की तरह सराहे गए !  ' राम कथा " पर जब जब फ़िल्मी दुनिया में " रामायण " फिल्म बनी तो सदेव सफल हुई  !
छोटे परदे पर  कई अन्य कथाएं लेकर , कई निर्माता आये , लेकिन जो प्रसद्धि " रामानद  सागर ' को " रामायण " बनाने के लिए मिली , वह अद्वित्तेय है ! इस सीरियल में काम करने वाले पात्रों में " अरुण गोयल " और दीपिका " के कलेंदरों को  ग्रामीण लोगों ने राम सीता के रूप में अपने अपने घरों में जगह दी ! अन्य पात्रों में " रावण " तक को संसद में सांसद बनाने का मौका मिला !  अभिनेता " दारा सिंह " तो हनुमान बनकर सदेव के लिए अपना नाम अमर कर गए !
इसका स्पस्ट अर्थ है भारत राममय है !   लोग भी भले ही हास्य में  भले ही यह कहें की यह देश " राम भरोसे " चल रहा है .., किन्तु यह  बात अक्षराह्साह  सही है !
ऐसे भारतीय आत्मा में बसे " राम " को आज हम फिर भूल रहे हैं ! जरुरत है की हम राम कथाओं का मंचन , पुरी तकनीक , पुरी आस्था के साथ फिर से गाँव गाँव करें , ताकि स्टेज पर " नाट्य " में आकर्षण पैदा हो ! , ध्वनी , संगीत , और प्रकाश के प्रभाव से युक्त इन नए प्रयोगों के जरिये , लोगों में स्टेज के प्रति आकर्षण तो  बढेगा  ही  और " राम कथा " पाकर आम भारतीय मानस फिर से हिंदुत्व को पहचानेगा फिरसे जीवित होगा , ,  फिरसे धर्म सेजुड़ेगा !
ग्रामीण लोग कहते हैं   " राम नाम की लूट है   , लूटत बने तो लूट , अंत काल पछतायेगा जब प्राण जायेंगे छूट ..!! .... तो इससे पहले की पछताना पड़े  आइये फिर से राम से जुड़ जाइये ... " राम लीलाएं " पुनर्जाग्रत कीजिये ..  और हिन्दू धर्म की रक्षा कीजिये !
---- सभाजीत










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