द्रष्टि...,!!
भटकाती रही ,
कभी इधर तो कभी उधर ॥,
गली गली , डगर डगर ,
गाँव गाँव , शहर शहर ॥!!
रात आई , ओढ़ कर काला वसन ,
चमचमाते, झिलमिलाते ,
चांदी के बटन टंके जैसे ,
चन्दा सितारे,
पार दर्शी गाउन में , द्रष्टि ने ढूंडा बहुत ,
न दिखा पर
'रजनी' का तन...!!
गोल चाँद पीला सा ,
शर्मा कर घूँघट हटा ।!,
ब्योम के आंगन में ,
खुद को , निरापद - सूना पा ,
लाज हया छोड़ .. ,
खूब इठलाया - इतराया ,
द्रष्टि ने ढूंडा मगर ,
नहीं थी मादक गर्मी ॥,
रूप में था ..केवल ,
बर्फ सा धवल धवल ...,
ठंडापन॥!
इधर उधर आवारा घूमते ,
कलियों के मुख को ,
बल पूर्वक चूमते ,
प्रणय के प्रतीक भौरों में ॥,
द्रष्टि ने खोजा बहुत
पर ,
न दिखा ॥,
जीवन का आजीवन ,
मधुर 'गट्ठ - बंधन' ।!!!
खुद को समर्पित कर ,
सब कुछ अर्पित कर ,
ड्योढ़ी पर मंदिर के ,
पूजी कई मूर्तियाँ,
छवि निहार बार बार ,
अपना यह ह्रदय हार ,
छुआ जब उन्हें मेने ,
था कठोर पत्थर ही वह ,
न था उसमें
जीवन का स्पंदन ॥!!
----- ' सभाजीत '
रविवार, 11 दिसंबर 2011
शनिवार, 3 दिसंबर 2011
एक 'पहचान ' की ' भूख',
करती रही 'आमंत्रित 'मुझे..,
की मै रूप धरु ,,
एक 'नदी ' का ...,!!
अपने उदगम ' से आगे..
जिधर भी दिखे 'निचला- 'तल'..,
'रुख 'मोड़ लू वहां ..,
अपने स्तर 'से नीचे ..,
छितरी -सूखी बेजान धरती से ..,
गले मिलने.. !!
'सांप' की तरह - लहराकर ,
निकल भांगू ..,
खेतों की 'मेढों 'पर..,
और घुस जाऊं -
'सरकंडों ' के जंगल में..,
'दुधमुही ' कौपलों ' ' के
गाल 'थपथपाने'..., !!
'अनंत- नभ 'के नीचे..,
अनंत 'सभ्यताओं' के 'शिला लेख '..,
डूबे- उतरायें ,
मेरी गहन 'धाराओं 'के बीच ..,
और में चूम कर, ...पुचकार कर..,
बच्चों की तरह उन्हें 'दुलारकर,'
बढ़ जाऊ 'आगे..',
एक 'निर्लिप्त योगी ' की तरह...!!
चांदनी रात में..,
ओढ़कर झीनी चादर..,
में बनू 'दर्पण.'.,
'रूप गर्वित' चाँद को ,
उसका 'प्रतिबिम्ब 'देने..,
की वह देख सके..,
'इठलाये सोंदर्य ' में ..,
'छितराया दाग.'.,
एक 'शास्वत सत्य' की तरह..!!
में बनू 'संबल' ..,
किसी बांसुरी की धुन का..,
रंभाती गायों और -
ग्वालों की 'टेर 'से ..,
कर लू 'गठजोड़.'.,
इतिहास दर इतिहास ,
' निश्छल प्रेम' को दुहराने..!!
'गंदे -बदरंग ' पानी भरे, अनगिनित 'नाले.'.,
आएं 'किलोल 'करते , 'घुटनो' के बल..,
और समां जाये मेरे 'आँचल 'में..,
धुल धुसरित 'शिशु 'की तरह..,
की में 'पोंछ 'लू उनके 'कलुष'..,
अपने स्वच्छ ' ,धवल आँचल से..,
और चूम लू उनके मुह..,
एक ' आल्हादित ' 'माँ ' की तरह..!!
राह में रोकें अगर..,
हजारो हज़ार 'सहस्त्र्बाहुओं' के
हजारो हाथ..,
तो,
'उफ्फान 'कर,
सीना तान कर..,
उन्हें बरज कर,
सिंह सी गरज कर..,
कूद पडू घोर 'प्रवाह 'से..,
कि 'गूंज 'जाएँ सारी 'दिशाएं'..,
मेरे पदघातों ' से 'विदीर्ण' होती ॥ ....
चट्टानों की 'आह' से..!!
'नदी 'सा होकर..,
सभी को' जलधार 'में 'पिरोकर.'.,
सपने दर सपने 'संजो 'कर..,
जब में पहुचू 'छोर' पर...,
सागर की ' हिलोर' पर ..,
तो,
खो दू अपना 'नाम'..,
डुबो दू अपनी 'पहचान'..,
शेष न बचे कोई राह,
न 'प्रवाह ' न कोई ' चाह.'.,
में बनू बस एक 'बूंद 'उस 'सागर 'की..,
... अनंत नभ में..,
जगमगाते ..,
'सुधाकर' सी..!!
.......... सभाजीत
करती रही 'आमंत्रित 'मुझे..,
की मै रूप धरु ,,
एक 'नदी ' का ...,!!
अपने उदगम ' से आगे..
जिधर भी दिखे 'निचला- 'तल'..,
'रुख 'मोड़ लू वहां ..,
अपने स्तर 'से नीचे ..,
छितरी -सूखी बेजान धरती से ..,
गले मिलने.. !!
'सांप' की तरह - लहराकर ,
निकल भांगू ..,
खेतों की 'मेढों 'पर..,
और घुस जाऊं -
'सरकंडों ' के जंगल में..,
'दुधमुही ' कौपलों ' ' के
गाल 'थपथपाने'..., !!
'अनंत- नभ 'के नीचे..,
अनंत 'सभ्यताओं' के 'शिला लेख '..,
डूबे- उतरायें ,
मेरी गहन 'धाराओं 'के बीच ..,
और में चूम कर, ...पुचकार कर..,
बच्चों की तरह उन्हें 'दुलारकर,'
बढ़ जाऊ 'आगे..',
एक 'निर्लिप्त योगी ' की तरह...!!
चांदनी रात में..,
ओढ़कर झीनी चादर..,
में बनू 'दर्पण.'.,
'रूप गर्वित' चाँद को ,
उसका 'प्रतिबिम्ब 'देने..,
की वह देख सके..,
'इठलाये सोंदर्य ' में ..,
'छितराया दाग.'.,
एक 'शास्वत सत्य' की तरह..!!
में बनू 'संबल' ..,
किसी बांसुरी की धुन का..,
रंभाती गायों और -
ग्वालों की 'टेर 'से ..,
कर लू 'गठजोड़.'.,
इतिहास दर इतिहास ,
' निश्छल प्रेम' को दुहराने..!!
'गंदे -बदरंग ' पानी भरे, अनगिनित 'नाले.'.,
आएं 'किलोल 'करते , 'घुटनो' के बल..,
और समां जाये मेरे 'आँचल 'में..,
धुल धुसरित 'शिशु 'की तरह..,
की में 'पोंछ 'लू उनके 'कलुष'..,
अपने स्वच्छ ' ,धवल आँचल से..,
और चूम लू उनके मुह..,
एक ' आल्हादित ' 'माँ ' की तरह..!!
राह में रोकें अगर..,
हजारो हज़ार 'सहस्त्र्बाहुओं' के
हजारो हाथ..,
तो,
'उफ्फान 'कर,
सीना तान कर..,
उन्हें बरज कर,
सिंह सी गरज कर..,
कूद पडू घोर 'प्रवाह 'से..,
कि 'गूंज 'जाएँ सारी 'दिशाएं'..,
मेरे पदघातों ' से 'विदीर्ण' होती ॥ ....
चट्टानों की 'आह' से..!!
'नदी 'सा होकर..,
सभी को' जलधार 'में 'पिरोकर.'.,
सपने दर सपने 'संजो 'कर..,
जब में पहुचू 'छोर' पर...,
सागर की ' हिलोर' पर ..,
तो,
खो दू अपना 'नाम'..,
डुबो दू अपनी 'पहचान'..,
शेष न बचे कोई राह,
न 'प्रवाह ' न कोई ' चाह.'.,
में बनू बस एक 'बूंद 'उस 'सागर 'की..,
... अनंत नभ में..,
जगमगाते ..,
'सुधाकर' सी..!!
.......... सभाजीत
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