रविवार, 11 दिसंबर 2011

द्रष्टि...,!!

भटकाती रही ,

कभी इधर तो कभी उधर ॥,

गली गली , डगर डगर ,

गाँव गाँव , शहर शहर ॥!!


रात आई , ओढ़ कर काला वसन ,

चमचमाते, झिलमिलाते ,

चांदी के बटन टंके जैसे ,

चन्दा सितारे,

पार दर्शी गाउन में , द्रष्टि ने ढूंडा बहुत ,

न दिखा पर

'रजनी' का तन...!!


गोल चाँद पीला सा ,

शर्मा कर घूँघट हटा ।!,

ब्योम के आंगन में ,

खुद को , निरापद - सूना पा ,

लाज हया छोड़ .. ,

खूब इठलाया - इतराया ,

द्रष्टि ने ढूंडा मगर ,

नहीं थी मादक गर्मी ॥,

रूप में था ..केवल ,

बर्फ सा धवल धवल ...,

ठंडापन॥!


इधर उधर आवारा घूमते ,

कलियों के मुख को ,

बल पूर्वक चूमते ,

प्रणय के प्रतीक भौरों में ॥,

द्रष्टि ने खोजा बहुत

पर ,

न दिखा ॥,

जीवन का आजीवन ,

मधुर 'गट्ठ - बंधन' ।!!!


खुद को समर्पित कर ,

सब कुछ अर्पित कर ,

ड्योढ़ी पर मंदिर के ,

पूजी कई मूर्तियाँ,

छवि निहार बार बार ,

अपना यह ह्रदय हार ,

छुआ जब उन्हें मेने ,

था कठोर पत्थर ही वह ,

न था उसमें

जीवन का स्पंदन ॥!!


----- ' सभाजीत '

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