कुलदीप,,।
स्वप्न दिल में उपजते हैं, आंखों में पनपते हैं और किसी अपने जैसे साथी के हाथों का सहारा पाकर जीवंत हो उठते हैं । पहले बालाघाट , और फिर लखनादौन से अचानक डेरा उखड़ने से फ़िल्म विधा के मेरे स्वप्न धूमिल हो गए ,,किन्तु खंडित नहीं हुए । अपने धूमिल स्वप्नों को हृदय में संजोए जब मैं बालाघाट आया तो मेरा स्वरूप बदल चुका था । अब मैं अधिकारियों को चुनोती देने वाला विभागीय यूनियन का एक जुझारू नेता बन चुका था और कला का रुझान मन के किसी कोने में दब चुका था । अधिकारियों ने मुझे नियंत्रित रखने के लिए सतना का व्यस्ततम औद्योगिक वितरण केंद्र कुलगवां का भार मुझे थमा दिया । यह केंद्र नगर से बाहर, बिरला रॉड पर , पन्नीलाल पावर हाउस के मेरे सरकारी क्वार्टर से करीब 4 किलोमीटर दूर था । अक्सर मैं पैदल ही आफिस चला जाता और रात वापिस घर लौटता ।
सतना नगर का आज का व्यस्ततम सिमरिया चौक उस समय तक विकसित नहीं हुआ था । हाउसिंग बोर्ड ने इस चौराहे पर कुछ दुकानें बना कर , एक मार्केट की संरचना जरूर की थी , किन्तु उनमें अधिकतम खाली थीं । इसी चौराहे पर हाउसिंग बोर्ड द्वारा बने एक लंबे हॉल में , नव निर्मित ' इंडियन कैफे हाउस ' शाम को जब सज जाता तो यह चौराहा जैसे जीवित ही उठता । हाउसिंग बोर्ड की रोड से लगी एक दुकान में विविध विद्युत सामग्री बिकते देख मैं जब वहां ठिठका तो उस दुकान के युवा मालिक के व्यवहार ने मेरा मन मोह लिया । यह दुकान एक आकर्षक युवक ' किशोर वर्मा ' की थी । पिता सतना सीमेंट वर्क्स में उच्च पद पर थे,,किन्तु पढ़ी लिखी इस नई पीढ़ी के युवाओं के पास , नॉकरी के अवसर अब विलुप्त थे । इसलिए किशोर वर्मा ने विद्युत के फानूस , कैसिट्स , बल्ब , और एचएमवी के रिकॉर्ड्स की दुकान खोल ली थी ।
जल्दी ही आफिस आने जाने के मार्ग में यह दुकान मेरा एक अड्डा बन गयी । मेरे खोए हुए कलात्मक रुझान को यह अड्डा फिर से जाग्रत करने लगा । किशोर के पास बहुत ही क्लासिक संगीत के कैसिट्स और पुरानी फिल्मों के गीतों के रिकॉर्ड्स संग्रहित थे । मेरे पहुंचने पर वो कहते ,,आज आपके लिए बहुत खास कैसिट चुन के रखा है ,, इत्मीनान से बैठिए,,और सुनिए ,,। और तब इत्मीनान का अंत जब होता तो पता चलता ,,मैनें बैठे बैठे ही वहां तीन घण्टे बिता दिए हैं ,,और घर में पहुंचने को बहुत लेट हो चुका हूँ ।
इसी दुकान पर एक युवा व्यक्ति से मुलाकात हुई ,, । किशोर ने परिचय करवाते हुए कहा ,,' ये कुल्ली मामा हैं । सार्वजनिक मामा ,,। इनकी भी एक दुकान है ,,इसी हाउसिंग बोर्ड परिसर में ,,मेरी दुकान के पीछे ,,इन्हें भी संगीत का शौक है ,,!' ,,
युवक ने अपने विशिष्ट लहजे में हाथ मिला कर जब अपनी भारी आवाज में मुझे ' हैलो शर्मा जी ' कहा तो मैं चोंक पड़ा । ऐसा लगा जैसे अमीन शायनी ने मुझे पुकारा हो । इस छोटे से कद के , इस युवा व्यक्ति की आवाज इतनी वजनदार होगी ,,इसकी उम्मीद मुझे नहीं थी । फिर भी मैनें तस्दीक करने के लिए जब उनसे पूछा कि वे अमीन शायनी की शैली में क्यों बोल रहे हैं तो वे मुस्कराए । उन्होंने कहा कि यह उनकी ओरिजनल आवाज है ,,वे किसी शैली की नकल नहीं कर रहे । किशोर ने भी हंसते हुए कहा कि हम तो परेशान हैं ,,बिनाका गीतमाला हमारा पीछा ही नहीं छोड़ रही । दिन में कई बार अमीन शायनी की आवाज जब कान में पड़ती है तो हम रेडियो की ओर देखने लगते हैं कि वहः खुला तो नहीं रह गया ।'
पहले परिचय से ही लगा,, जैसे यह मेरा कोई खोया हुआ अंतरंग साथी है । मेरी ही राह में भटका हुआ एक पथिक । उसने अपना पूरा परिचय देते हुए कहा कि उसका नाम कुलदीप सक्सेना है । किशोर की दुकान के पीछे ही उसकी एक छोटी सी जूतों की दुकान है । उसने मुझे अपनी दुकान में आने को आमंत्रित किया तो मैं अनायास ही उसके साथ खिंचा हुआ उसकी दुकान में चला गया ।
कुलदीप की दुकान अपेक्षाकृत बहुत छोटी दुकान थी । उसमें ,,आगरा से लाये गए जूतों के डिब्बे करीने से सजे हुए थे । कुलदीप ने कहा कि यह व्यवसाय उसके मन का व्यवसाय नहीं है । किन्ही अपरिहार्य कारणों से उसे सतना आना पड़ा और विपरीत परिस्थियों में तत्कालिक रूप से उसे यह व्यवसाय अपनाना पड़ा । सिमरिया चौक का शॉपिंग काम्प्लेक्स वैसे भी व्यवसाय के लिए मुफीद जगह नहीं थी ,,ऊपर से जूतों की दुकान ,, जहां नई ब्रांड के जूते रखना उसके बस से बाहर था । कभी कभार कोई इक्का दुक्का ग्राहक आ भी जाता तो कुलदीप से नहीं पटता,,। क्योंकि कुलदीप सिद्धांत का पक्का था । वहः झुक कर , किसी पैरों के जूते का नाप लेने का काम कभी नहीं कर सकता था और दूसरे वहः प्रिंटिड रेट से एक पैसा भी कम करने को राजी नहीं था । सतना के दूसरे बाजार में ,,दिनों दिन उन्नति करती अन्य दुकानों की स्पर्धा में ,,कुलदीप के सिद्धांत ही उसके व्यवसाय में पहली बाधा थे ।
शीघ्र ही मेरी बैठक , किशोर की दुकान से हट कर कुलदीप की दुकान हो गई । यद्यपि यहां मेरे लिए संगीत का वहः आकर्षण उपलब्ध नहीं था ,, किन्तु मुझे उससे भी बड़ा आकर्षण जो कुलदीप में दिखा ,,वहः था ,,संघर्ष के प्रति उसका जुझारूपन । उसकी आँखों में भी कुछ छूटे हुए स्वप्न थे ,,जिन्हें पूरा करने के लिए वहः कृतसंकल्प था । बातों बातों में उसने बताया कि उसके पास उसका अपना एक गौरवमय अतीत था । उसके पिता देश के एक जाने माने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे और आज़ादी के बाद वे आगरा के मेयर रह चुके थे । पिता की हुई मृत्यु के बाद , पारिवारिक विद्वेष वश , उसके चाचाओं ने उसकी सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया । कुलदीप और उनके बड़े भाई प्रदीप तब बहुत छोटे थे ,,और जब वे कुछ समझने लायक हुए तब तक सब कुछ लुट चुका था । किसी तरह पैतृक घर में रहते हुए उन्होंनेअपने पिता की पेंशन के आधार पर , आगरा में पैर जमाने की कोशिश की ,,तो विधना ने उनके बड़े भाई प्रदीप को अचानक उनसे छीन लिया ।
कुलदीप ने बताया कि उस उम्र में भी वे दिल्ली के एक बड़े आर्केस्ट्रा से जुड़ कर उद्घोषणा संचालन के काम में दक्ष हो चुके थे । उनकी आवाज में जादू था,,अमीनशायनी के अंदाज़ का ,,तो आर्केस्ट्रा वाले उन्हें बुला लेते थे और वे ग्रुप में जा कर , अपनी परफॉर्मेंस से, आर्केस्ट्रा कार्यक्रम में चारचांद लगा देते । मेहनत की एवज में कम आमदनी ने ही उन्हें जिद्दी बना दिया था कि वे अपनी मेहनत के बदले एक पैसे की रियायत भी मंजूर नहीं करेंगें ।
बड़े भाई की अचानक मृत्यु ने उनसे उनकी एंकरिंग की जगमगाती दुनिया छीन ली ।विपरीत परिस्थियों में ,,उनके चाचाओं की लालच ने उनको आगरा छोड़ने को विवश कर दिया तो वे अपनी माताजी के साथ , सतना आकर , अपने बड़े जीजाजी के संरक्षण में , सतना में बस गये । हालफिलहाल कोई काम समझ नहीं आया तो जूतों के लिए प्रसिद्ध आगरा से जूते लाकर उन्होंने यह दुकान यहां खोल ली । कुलदीप के बड़े जीजा जी हाउसिंग बोर्ड में ऑफिस सुपरिन्टेन्डेन्ट के पद पर पदस्थ थे तो उन्हें हाउसिंग बोर्ड की यह दुकान सहज ही मिल गयी ।
सतना आकर उन्होंने अपनी दुनिया फिर ढूंढने की कोशिश की तो सतना के स्थानीय आर्केस्ट्रा ग्रुप में उन्हें एंकरिंग करने का अवसर सहज ही मिलने लगा । किन्तु उनका लक्ष्य तो क्षितिज का सूर्य बनने का था ,,, और सतना का आकाश इसके लिए सीमित था । मैनें देखा कुलदीप में छटपहाट थी ,,कुछ कर गुजरने की ,,किन्तु वे इस काम में लिए अकेले थे । मार्ग भी एकांगी था ,,एंकरिंग का ,,जिसके अवसर के लिए सतना बहुत छोटा शहर था । अपने बालाघाट प्रवास में मैनें नागपुर के बड़े आर्केस्ट्रा ग्रुप ' मेलोडी मेकर्स ' के संचालक और उद्घोषक ओपी शर्मा को देखा था । ओपी शर्मा भी बालाघाट से अपने मन में सपने संजोए नागपुर गये और वहां उन्होंने वहां विभिन्न कलाकारों को जोड़कर एक उच्च स्तरीय म्यूजिकल ग्रुप बनाया जिसकी धूम पूरे विदर्भ में छा गयी थी । मेरे सामने एक और ओपी शर्मा खड़ा था,,किन्तु उसके लिए जिस वितान की जरूरत थी वहः उपलब्ध नहीं था । न जाने मुझे क्यों लगा कि इस वितान को रचने में मुझे उसका साथ देना चाहिए तो मैनें निश्चय किया कि अब मेरे रचनात्मक कार्यों का सारथि होगा ,,कुलदीप ।
किन्तु कुलदीप को अग्रसर करने के लिए जरूरी था कि वहः पहले एक निश्चित आय के साथ , खुद को अपने पैरों पर खड़े होने का काम करे ,,और जूते की दुकान तो वहः काम बिल्कुल नहीं हो सकती थी,,।
इसलिए मैनें एक प्लान बनाया और उसके सामने रखा,,ऐसा प्लान जिसमें कला आधार थी और प्रतिदान निश्चित ।
कुलदीप ने सहर्ष मेरी बात मान ली और हम लोगों ने एक संस्था बनाई,,' कनक एडवर्टाइज़िंगस ',,! यह संयोग ही था कि इसमें कनक शब्द मेरी श्रीमती के नाम से लिया गया ,,और एडवरटाइजिंग उस अधूरे स्वप्न से जिसे पूरा करने की तमन्ना हम दोनों के मन में एक सी थी ।
कहते हैं कि ' एक से पंख के पक्षी आकाश में एक साथ उड़ते हैं ' ,,तो हम भी एक सी आकांक्षाओं के दो पंछी इन नए आकाश में उड़ान भरने चल पड़े ,,,बिना यह जाने कि हमारी हमारी उड़ानें किस ऊंचाई तक पहुंच पाएंगी ,,।
आ,,2,,
,,,,,,2,,,,,,
मेरे सपनों के साथी,,,
कुलदीप,,।
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' एडवरटाइजिंग ' शब्द ही उस खुले वितान का द्योतक था जिसमें रचनाधर्मिता विभिन्न आकर्षक कलाओं के साथ , विहंग रूप में ऊंचाई तक उड़ने में समर्थ थी । मेलोडी मेकर्स ग्रुप के मेरे मित्र ओपी शर्मा ने पत्रिकाओं में फोटोग्राफी के सुंदर दृश्यों के साथ , प्रोडक्ट को जोड़ कर सफल विज्ञापन बनाये थे । सड़कों पर होर्डिंग्स लगा कर , उन पर एक अलग डिजाइन बना कर उन्होंने विज्ञापनों को नया आयाम दिया था । नागपुर की प्रमुख टॉकीजों में ,, इंटरवल के समय में , उन्होंने स्क्रीन के पीछे से , आडियो जिंगल की अभिनव शुरुवात की थी जो खासी लोकप्रिय साबित हुई । जिंगल में उदघोषणा और संगीत कम्पोजीशन ,,दोनों समाविष्ट थे । तो उसी तर्ज पर यह सब काम कनक एडवरटाइजमेंट के अंतर्गत सतना में करने का बीड़ा उठाया कुलदीप ने ।
सतना उस समय तक विज्ञापन एजेंसी के नाम पर शून्य था । विज्ञापन के नाम पर बाहर से कुछ पेंटर लोग आकर , किसी बड़ी बिल्डिंग की बड़ी दीवार पर , चित्र उकेर कर चले जाते थे । होर्डिंग लगाने का रिवाज सतना में था ही नहीं । ट्रांसपेरेंसी की फोटोग्राफी कोई नहीं करता था । टाकीज में दिखाने को जो स्लाइड बनती थी वे कांच पर अक्सर कुछ लिख कर दिखा दी जाती थीं । सर्वथा नए प्रयोगों के साथ , विज्ञापन का यह क्षेत्र कुलदीप को बहुत आकर्षक लगा । तो उन्होंने इस विज्ञापन जगत को पूरी शिद्दत के साथ अपनाने की ठान ली । लिहाजा मेरे प्रस्ताव पर , मेरे छोटे भाई शार्दूल शर्मा के साथ भागीदारी करकेँ इस काम को अंजाम देना शुरू कर दिया ।
कुलदीप ने दुकान के सामान की फुटपाथ सेल लगा कर पूरी सामग्री बेच दी । दुकान की रंगाई कर उसे आफिस का नया रूप दिया । सामने ग्लास डोर लगा कर आफिस को भव्यता दी और एक आफिस टेबिल के साथ कुछ सुंदर चेयर लगा कर आफिस को शानदार बना दिया । अब दृश्य बदल गया था । जो मित्रों की बैठकें कभी किशोर वर्मा की दुकान पर सजती थीं ,,अब वे कुलदीप के भव्य आफिस में सजने लगीं ।
एक सप्ताह के अंदर ही कुलदीप ने अचंभित कर दिया । उसने स्थानीय ब्रेड फेक्ट्री ,' आनन्द ब्रेड ' का विज्ञापन जुगाड़ लिया । शहर में पहली होर्डिंग लगाने में लिए सिमरिया चौक की एक दुकान की छत भी किराए पर ले ली । हमने होर्डिंग डिजाइन की और पेंटर की तलाश शुरू की ।
उस समय सतना के प्रमुख पेंटरों में दिलीप बनर्जी प्रमुख पेंटर थे । वे एक अच्छे पेंटर तो थे ही ,,एक अच्छे संगीतकार और अच्छे बांसुरी वादक भी थे । कुलदीप ने जब उन्हें पेंटिंग के लिए आग्रह किया तो उन्होंने कहा --'बोर्ड दुकान पर छोड़ दो ,, पेंट हो जाने पर ले जाना । कुलदीप ने जब बताया कि वहः बोर्ड नहीं होर्डिंग है ,,और उन्हें वहीं जा कर पेंट करना पड़ेगा तो उन्होंने नाहीं कर दी । कुलदीप ने हार नहीं मानी ,,वे एक दूसरे नवयुवक ' मकसूद ' को ढूंढ लाये और आननफानन में तीन दिनों में ही होर्डिंग तैयार करकेँ छत पर लगवा दी ।
आनन्द ब्रेड की पहली होर्डिंग ने कुलदीप के हौंसले बुलंद कर दिए । अब जो होर्डिंग्स का क्रम शुरू हुआ तो स्थानीय लोगों की दृष्टि इन होर्डिंग्स पर गयी । व्यापारियों को विज्ञापन की महत्ता समझ में आने लगी ।
नागपुर, जबलपुर , जैसे बड़े महानगरों से विज्ञापन की धारा को मोड़ कर हम लोग सतना जैसे उदीयमान शहर में ले आये थे इसका हर्ष हमें था । लेकिन जिंगल बनाना और उन्हें सतना में रिकार्ड करना एक चुनोती ही थी । जिंगल लिखने , और उसकी धुन बनाने का काम तो मैं कर सकता था किंतु उसकी रिकार्डिंग करना टेढ़ी खीर थी । कारण इस कार्य में वाद्य बृन्द युक्त आर्केस्ट्रा , और कुशल गायकों के साथ , जिंगल रिकार्ड करना एक कठिन तकनीकी कार्य था । मल्टी ट्रेक रिकार्डिंग का चलन तब तक निकटवर्ती शहर जबलपुर में भी उपलब्ध न था ।
तो फिर जिंगल सतना में कैसे रिकार्ड हों ,, यह प्रश्न हमारे समक्ष था । सतना में स्थानीय कलाकार तो थे ,,किन्तु वे किसी ग्रुप में एकजुट नहीं थे । इसी तरह रिकार्डिंग का तकनीकी ज्ञान किसी को नहीं था ,,यद्यपि अलग अलग साउंड सर्विसिज की कई दुकानें सतना में मौजूद थी । मल्टी ट्रेक रिकार्डिंग तो बहुत दूर की बात थी ,,सिंगल ट्रेक रिकार्डिंग भी सतना में सम्भव नहीं थी । किन्तु स्वप्नों को साकार करने के लिए कृतसंकल्प कुलदीप ने व्यवस्था ढूंढ ली ।
बुंदेलखंड के निकटवर्ती शहर छतरपुर में एक समृद्ध आर्केस्ट्रा मौजूद था । इसे नौगावँ और छतरपुर के प्रतिभाशाली लोग मिल कर चला रहे थे । यह नौगावँ के प्रतिभावान संगीतकार श्री अमर सिंह सक्सेना के निर्देशन और छतरपुर के बहुमुखी कलाकार मनोहर सिंह के सान्निध्य से स्थापित हुआ था । मनोहर सिंह आर्केस्ट्रा के लिए वांछित साउंड सिस्टम और वाद्य यंत्र खरीद लाये थे ,,जिनमें आडियो फेडर भी सम्मलित था ।
कुलदीप ने छतरपुर जा कर मनोहर सिंह को राजी किया और वे मेरी बनाई धुनों के जिंगल रिकार्ड करने को तैयार हो गये । दो तीन साजिंदों में साथ , गायक गायिकाओं ने मिलकर जिंगल गाये और मनोहर सिंह ने काफी मशक्कत के साथ , सिंगल ट्रेक टेप रिकॉर्डर पर , वन गो शैली में जिंगल रिकार्ड किये ।
जब ये जिंगल , सतना की प्रमुख टॉकीजों में , इंटरवल के समय , स्क्रीन के पीछे , बड़े स्पीकर्स पर बजे तो सतना जैसे शहर में आश्चर्य की लहर दौड़ गयी । जो काम अभी तक मुम्बई में होता था वहः हम लोगों ने सतना में करकेँ दिखा दिया था ।
अब विज्ञापन की कोई कमी नहीं थी,,न होर्डिंग्स में न आडियो जिंगल्स में । हम लोगों की जोड़ी ने वहः कर दिखाया था जो अब तक सिर्फ एक स्वप्न था ।
इस बीच मेरे जीवन में एक और धूमकेतु का उदय हुआ ,,उदय प्रताप सिंह के रूप में जो नगर में यूपी सिंह के नाम से विख्यात थे । इस धूमकेतु ने मुझे मुम्बई के विख्यात फ़िल्म निर्देशक मनमोहन देसाई के चीफ असिस्टेंट श्री बिंदु शुक्ला से मिलवा दिया जो खुद भी एक सफल फीचर फिल्म ' मेरा जीवन ' का निर्देशन कर चुके थे । वे मूलतः सतना के ही थे और बाल अवस्था में ही मुम्बई चले गये थे । बिंदु शुक्ला के साथ एक नए ग्रुप की रचना हुई जिसमें तय किया गया कि फ़िल्म निर्माण भी अब हम लोग सतना ही से शुरू करेंगे ।
किन्तु कुछ निजी कारणों से , बिंदु शुक्ला ने तीन सदस्यों से ज्यादा चौथे सदस्य को प्रारंभिक चरण में जोड़ना अस्वीकार कर दिया । मूलतः यूपी सिंह , बिंदु शुक्ला और मेरा ग्रुप में होना अपरिहार्य माना गया ,तो चौथे सदस्य के रूप में कुलदीप को कुछ समय तक इंतजार करने को कहा गया ।
कुलदीप के स्वाभिमान ने समझौता करने से अस्वीकार कर दिया ,,नतीजन हमारे पहले उद्देश्य के लक्ष्य में दरार आना स्वाभाविक थी ,,और वहः दरार आ भी गई ।
कुलदीप ने हमारी संयुक्त संस्था कनक एडवरटाइजिंग तोड़ दी और स्वतंत्र कार्य करने का निश्चय ले लिया । यद्यपि मैनें उन्हें बहुत समझाया कि यह समस्या अल्पकालिक है ,,और बाद में तुम्हें इसमें जोड़ ही लिया जायेगा ,,किन्तु कुलदीप निश्चय के दृढी थे । उन्होंने कहा ,,की अगर अभी नहीं तो कभी नहीं ।
तो हम बीच मार्ग में ही विलग हो गये,, लेकिन जो अंतरंगता कायम हुई थी वहः हमें विलग न कर सकी । कुछ वर्षों के बाद हम लोग फिर मिले और तब हमने मिल कर जो किया वहः ,, उस अतीत के वर्तमान से बहुत आगे था ,,।
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मेरे सपनों के साथी,,
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कुलदीप
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आज से 40 वर्ष पूर्व , सतना में , एक एडवरटाइजिंग एजेंसी स्थापित करने का विचार वस्तुतःमेरे लिए , मेरी प्रयोगधर्मिता को आधार देने से बढ़ कर और अधिक कुछ भी न था । एडवरटाइजिंग शब्द तो मात्र एक मंच था , जिस पर खड़े हो कर हम उन रचनात्मक कार्यों को जामा पहनाने की चेष्टा करने वाले थे जो महानगरों की थाती बन कर रह गया था । जब हमारी प्रतिभा हमें जिंगल रचने की क्षमता देती है तो उसे मूर्तवत करने के लिए हम मुम्बई महानगरी के मोहताज क्यों रहें ,,? यह भावना सदा मुझे कुरेदती थी । कुलदीप के पास अपनी एक अलग आवाज़ थी । किन्तु उस आवाज़ के लिए क्या अमीन शायनी की तरह रेडियो सीलोन ही एकमात्र अनिवार्य मंच था ,,जिस पर जा कर जब वहः गूंजती तभी लोग उसे पहचानते ,,?? कुलदीप के पास मंच संचालन , और प्रबंधन का अद्भुत गुण था ,,किन्तु छोटे शहर में वहः गुण उपयुक्त साधन न होने के कारण दम तोड़ रहा था , तो मुझे लगा कि इस गुण के उपयोग के लिए क्यों न इस छोटे शहर को ही माध्यम बनाया जाए ,,??
और मेरी प्रयोगधर्मिता कुलदीप का साथ पा कर बहुत हद तक सफल हुई । कुलदीप ने अपने प्रबंधन के गुण से , महानगरों में लगने वाली होर्डिंग्स की धारा को स्थानीय स्तर पर ला कर सुलभ बना दिया । यही नहीं ,,उन्होंने जिंगल रिकार्डिंग के लिए विकासशील छोटे नगर छतरपुर को उस समय माध्यम बनाया जब कि रिकार्डिंग का कार्य आसपास के किसी भी नगर में सम्भव नहीं था । उन्होंने अपने परिश्रम से जिंगल्स के प्रस्तुतिकरण के लिए , फ़िल्म टाकीज को एक सुलभ मंच बना दिया । इन प्रयोगों से अपरोक्ष में उन सब रचनाकारों , कलाकारों को एक नया सम्बल मिला जो अभी तक संगीत को मात्र आर्केस्ट्रा का मंच मानते थे ।
कुलदीप के विलग होने से एक प्रवाह अचानक बाधित हो गया क्योंकि अगले चरण में मेरा लक्ष्य अपने प्रयासों से फ़िल्म विधा को छोटे नगरों तक लाने का था । कुलदीप के ही बनाये आफिस से इस चरण को प्रारम्भ करने का कार्य शुरू हुआ था ,,एक नई संस्था के गठन के साथ ' ,,सुलभ आर्ट्स ' के रूप में । नामाकरण करते समय सुलभ शब्द का चयन भी इसी लिए हम लोगों ने किया कि हम क्षेत्रीय कला प्रतिभा को , फ़िल्म के सशक्त माध्यम से , मंच दिलाने का प्रयास करेंगे । किन्तु क्या यह कार्य इतना आसान था ,,?? सिवा एक दिवा स्वप्न के ,,?? जो मरुभूमि में नहर खोदने जैसा था ,,??
मेरे इन सपनों को दिशा देने के लिए जिस एक और धूमकेतु का उदय मेरे जीवन में हुआ था वहः था उदय प्रताप सिंह । उदयप्रताप को सतना के लोग यूपी सिंह कह कर पुकारते थे । कैमिस्ट्री विषय से स्नातक हुए यूपी सिंह सतना में पीवीसी शूज़ की फैक्ट्री डालने जा रहे थे । निस्संदेह यह कार्य भी बाटा जैसी बड़ी कम्पनियों के विरुद्ध छोटे नगर में छेड़ा गया बिगुल ही था ,,क्योंकि पीवीसी शूज , चमड़े के जूतों की अपेक्षा बहुत सस्ते में कामगारों को उपलब्ध हो सकते थे । तो वैचारिक रूप से , बड़े नगरों से तकनीक ले कर , छोटे नगरों को उद्यमी बनाने के सिद्धांत में हम एक्मतेंन थे ।
कुलदीप मेरी कलात्मक रचनाओं के वाहक थे तो यूपी सिंह तकनीक स्थापना के । मेरे लिए तो दोनों ही मेरी भुजाएं थे । किंतु संयोग ऐसा बना की दोनों एक साथ न बंध सके ।
कुलदीप ने विलग होकर अपना अलग मार्ग चुन लिया । उन्होंने अपनी एक नई संस्था बनाई और विज्ञापन के मार्ग पर वे अग्रसर हो लिए । सुलभ आर्ट्स का आफिस , कुलदीप के ऑफिस से हटकर मनोरमा प्रेस आ गया । सुलभ आर्ट्स ने अपने सपने साकार किये । वहः दूरदर्शन से अनुबंधित हो गई और पूरे मध्यप्रदेश में होने वाली विभिन्न सांस्कृतिक , क्रीड़ा जगत , और समाचार की गतिविधियों के कवरेज के लिए अधिकृत हो गई । सुलभ आर्ट्स ने वर्ष 1987 में , क्षेत्रीय कलाकारों को ले कर , बुंदेलखंड के कुंडेश्वर ग्राम में , औपचारिकेटर शिक्षा को ले कर 28 मिनट की एक सार्थक फ़िल्म ,,'गोरेलाल ' बनाई , जो जयपुर दूरदर्शन से जब प्रसारित हुई ,तो संस्था के उस स्वप्न को साकार कर गयी , जो मैनें कभी बालाघाट , लखनादौन , रहते देखा था ।
इन 6 वर्षों के अंतराल की अपनी एक अलग कहानी है ,,जिसमें फ़िल्मविधा ने सतना को फिल्मांकन के पटल पर अंकित कर दिया । निश्चित ही इसका श्रेय यूपी सिंह और मुम्बई निवासी फ़िल्म निर्देशक श्री बिंदु शुक्ला को जाता है ,,जिन्होंने इस कार्य में उल्लेखनीय रोल निभाया । समय मिला तो अपने सपनों के साथी यूपी सिंह पर अलग वृहत संस्मरण लिखूंगा , फिलहाल तो मेरा केंद्र बिंदु मेरे पहले साथी कुलदीप ही हैं ।
विलग हो कर कुलदीप , विज्ञापन के कार्य में ज्यादा दिन स्थिर नहीं रह पाए । जिन महानुभाव को पेंटर बतौर उन्होंने अवसर दिया , उन्होंने ही कुछ दिनों बाद अपनी एक अलग एडवरटाइजमेंट की संस्था खोल ली । शहर ने विज्ञापन का महत्व समझा तो कई लोग इसे व्यवसाय मान कर इसमें कूद गये । उधर जैसे ही टेलीविजन का पदार्पण हुआ तो टाकीज का आकर्षण लोगों के मन से जाता रहा । जिन जिंगल्स को टाकीज का मंच मिला था वे टाकीज ही क्षीण हो गईं । नतीजन कुलदीप ने विज्ञापन की दुनिया छोड़ दी । इसबीच 1985 में आई भीषण आंधी ने भी होर्डिंग्स को बहुत क्षति पहुंचाई । कुलदीप ने अलग दिशा में व्यवसाय का मार्ग पकड़ा । उन्होंने मसालों की फैक्ट्री लगाई किन्तु वहः स्पर्धा का व्यवसाय था । उसमें स्थिर होना उनके लिए सम्भव नहीं हो पाया ।
तब उन्होंने विरासत में मिले राजनैतिक गुण को आजमाया । उन दिनों वी पी सिंह ने कांग्रेस से विलग हो कर अलग पार्टी बना ली थी । वीपी सिंह राजनीति में शुचिता का सिंबल बन कर उभरे थे । बहुमत से जीते , और प्रधानमंत्री बने ,,श्री राजीव गांधी को वीपी सिंह ने अपनी निर्मल छवि बना कर पटखनी दे दी थी । कुलदीप श्री वीपी सिंह से जुड़ गये । कुलदीप की राजनैतिक विरासत शुचिता और ईमानदारी के साथ , राष्ट्र भक्ति पर आधारित थी तो जल्दी ही। उनके लिए राजनीति के बड़े द्वार खुल गए । वीपी सिंह के निकटस्थ परिचितों में उनका नाम शुमार हो गया । राजनीति के क्षेत्र में वे जल्दी ही मेनका गांधी और विद्याचरण शुक्ल के अंतरंग हो गए ।
किन्तु सिद्धांतों के पक्के कुलदीप को कितने दिन राजनीति रास आती ,,?? खद्दर पहन कर सिद्धांतों पर अडिग हो कर राजनैतिक संत तो बना जा सकता है किंतु राजनैतिक सत्ता का सफल नेता नहीं । जल्दी ही एक बार राजनीति से कुलदीप का मोह भंग हो गया । उधर वीपी सिंह की तथाकथित राजनैतिक शुचिता की राजनीति क्षीण हुई , मेनका गांधी और विद्याचरण क्षीण हुए ,,,इधर कुलदीप के लिए भी राजनीति के द्वार क्षीण होगये ,, तो कुलदीप ने राजनीति छोड़ दी ।
यद्यपि कुलदीप मुझसे विलग हुए थे किंतु में आत्मिक रूप से उनसे विलग नहीं हुआ था । मैं उनकी क्षमताओं को जानता था और आश्वस्त था कि एक दिन फिर वे रचनात्मक कार्यों की ओर मुड़ेंगें । राजनीति छोड़ने के बाद वे सचमुच फिर रचनात्मक कार्यों की ओर मुद्दे ,,। विलग हो कर भी हमारे बीच , एक दूसरे के हालचाल लेने हेतु संवाद बने रहे । में अक्सर उनके घर पहुंच जाता और उनकी माता जी मुझे अपने हाथ से बने व्यंजन प्रेम से खिलातीं । माताजी के साथ हुए हमारे संवादों के बीच कुलदीप का विवाह प्रमुख मुद्दा रहता । वे क्षीण हो रही थीं और अब जल्दी ही अपनी बहू को देखने को व्यग्र थीं । में भी जब अपने किसी अन्य कायस्थ मित्र से मिलता तो कुलदीप के लिए एक बहु की तलाश करता । इसी बीच कुलदीप की बहू की तलाश पूरी हुई और उसका विवाह महोबा में हो गया । कुलदीप जैसे स्वच्छंद विचरते गजराज को अंकुश लगते देख मुझे भी बहुत खुशी हुई । सौभाग्य से कुलदीप को सुषमा के रूप में , बहुत सुघड़ , सरल हृदय , और अनुगामी जीवनसाथी मिली ।
इसबीच मुझे भी कई स्थानांतरण झेलने पड़े । कुलगवां से पहले सतना शहर, फिर जैतवारा होते हुए जब मैं नागौद पदस्थ हुआ तो मुझे एक भीषण घातक हमला झेलना पड़ा । हमले के बाद कुछ दिनों मैं मैहर रहा और वहां से प्रमोशन पर नौगावँ चला गया । मेरे नौगावँ स्थानांतरित होते ही सुलभ आर्ट संस्था बन्द हो गई ।
बदला हुआ नौगावँ भी मुझे रास नहीं आया तो 1991 में मैनें रीवा जिले के गहन वन प्रांतीय क्षेत्र त्योंथर में अपने अनुरोध पर स्थानांतरण ले लिया । इस समय तक फिल्मांकन विधा सेल्युलाइड से हट कर वीडियो का रूप धारण कर चुकी थी । इस तकनीक से जुड़ कर मैंने भी एक वीएच एस कैमरा 1989 में खरीद लिया था और उसे अपने छोटे भाई शार्दूल को सौंप दिया था । सतना में बहुत से वीएचएस कैमरे आ चुके थे और कई स्टूडियो मालिक , शादी विवाह के छायांकन का काम शुरू कर चुके थे । इन लोगों में स्टूडियो मालिक भल्लन और विनोद यादव शीर्षस्थ थे । सीमेंट फेक्ट्री में कार्यरत एक और व्यक्ति ,,अग्रवाल जी एक वीएचएस कैमरा बहुत पहले ले आये थे । कुलदीप जब फिर से रचनात्मक कार्यों की ओर मुड़े तो उन्होंने अग्रवाल जी का सान्निध्य लिया । कुलदीप ने जिंगल की तर्ज पर वीडियो शूट करने का प्रयास किया । किन्तु उन्हें आशातीत सफलता नहीं मिली । जब मुझे पता चला कि कुलदीप पुनः उस रचनात्मक दिशा की ओर मुड़ रहे हैं तो मुझे बेहद खुशी हुई । आखिर तो मैनें उन्हें बहुत पहले ही चुना था ,,अपने रचनात्मक स्वप्नों को साकार करने के लिए ,,तो एक दिन में जब सतना आया तो सीधे कुलदीप के पास गया और उन्हें एक प्लान दिया ,,इस दिशा में कुछ मिलकर अनोखा करने के लिए ।
कुलदीप ने थोड़ा सोचा विचारा और अंततः सहर्ष राजी हो गए ।
और अब हम फिर कई वर्षों के अंतराल के बाद फिर एकजुट हो गये ,रचनात्मक कार्यों के आकाश में नई उड़ान भरने के लिए ।
और सचमुच यह उड़ान एक अलग ही उपलब्धि दे गई हम लोगों को ,,।
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