"पिता...,"
अब जब कोई नहीं है मुझसे बड़ा ..,
............तो तुम याद आते हो .., !!
वैसे सर पर आसमान ,
और पैरों की ज़मीन ही ,
शायद बोध है ,पिता और माता का ,
जो साथ रहते हैं , जन्म से मृत्यु तक .....,!
वो कल भी थे ,
और आज भी है मेरे साथ ..!!
जन्म तो था प्रकृति का खेल ,
जिसे होना ही था , मेरे लिए ,...सबके लिए ..,
मृत्यु ही होती है , सिर्फ खुद के लिए ,
की आँखें बंद ,
और सब कुछ अद्रश्य , ..!!
..तुम..!!,
जब बंद करने लगे आँखें ..,
तो भरपूर नज़रों से देखा मुझे ..,
जैसे समेट कर खोद लेना चाहते थे मेरा अक्स ..,
अपनी धुंधली आँखों के दर्पण में .., !
क्या ढूंढ़ रहे थे तुम मुझमें ..?
जो तुम में नहीं था ..??
जबकि में तो वही था ,
जो तुम थे ..!
जो में नहीं जान सका तब..,
अब जान पाया हूँ ..,
की चुक रहे थे तुम.. तिल तिल ,
और सोंप रहे थे मुझे ,
छोटे से बड़े होने का नुस्खा ...!!
बड़ा होना कोई ' गर्व ' की बात नहीं ,
बड़ा होना नहीं है कोई ' सम्मान ' का सिंहासन ' ..,
बड़ा होना नहीं है - 'आधिपत्य ' का पर्याय ..,
तुमसे ज्यादा भला कौन जनता था इस सत्य को उस वक्त ..?
बद्दप्पन के जिस बोझ से ,
धीरे धीरे झुक जाता है सर ,
दोहरी हो जाती है कमर..,
कांपने लगते हैं पैर ,
क्योँ पहना रहे थे मुझे वह मुकुट ,
सनह सनह जर्जर होने के लिए ..??
मुझ से नज़र मिला कर ..,
क्योँ उडेला मुझ में यह ज़हर../
जबकि 'लघुता ' के अमृत से भींगा ,
में ताक रहा था तुम्हे विवश होकर ..??
शायद ..,
टटोल रहे थे तुम ,
मुझ में वह 'शिव' ..,
जिसे सोंप सको 'गरल'..,
जो कभी मरता नहीं ,
और जिसे धारण करना ..,
जरुरी है शिव के लिए ..,
पीढ़ी दर पीढ़ी ..!!
चाहता , ना चाहता .., तो भी ..,
गरल तो धारण करना ही था
पहले तुम्हें ,
और फिर मुझे ..,
जन्म दर जन्म ,
क्यूंकि हम और तुम ही तो थे ..,
जीवित ..,
धारण करने के लए उसे ..,
शेष तो ज़हर ही था ,
जो था 'अमर '
सदा के लिए ..!!
--सभाजीत
अब जब कोई नहीं है मुझसे बड़ा ..,
............तो तुम याद आते हो .., !!
वैसे सर पर आसमान ,
और पैरों की ज़मीन ही ,
शायद बोध है ,पिता और माता का ,
जो साथ रहते हैं , जन्म से मृत्यु तक .....,!
वो कल भी थे ,
और आज भी है मेरे साथ ..!!
जन्म तो था प्रकृति का खेल ,
जिसे होना ही था , मेरे लिए ,...सबके लिए ..,
मृत्यु ही होती है , सिर्फ खुद के लिए ,
की आँखें बंद ,
और सब कुछ अद्रश्य , ..!!
..तुम..!!,
जब बंद करने लगे आँखें ..,
तो भरपूर नज़रों से देखा मुझे ..,
जैसे समेट कर खोद लेना चाहते थे मेरा अक्स ..,
अपनी धुंधली आँखों के दर्पण में .., !
क्या ढूंढ़ रहे थे तुम मुझमें ..?
जो तुम में नहीं था ..??
जबकि में तो वही था ,
जो तुम थे ..!
जो में नहीं जान सका तब..,
अब जान पाया हूँ ..,
की चुक रहे थे तुम.. तिल तिल ,
और सोंप रहे थे मुझे ,
छोटे से बड़े होने का नुस्खा ...!!
बड़ा होना कोई ' गर्व ' की बात नहीं ,
बड़ा होना नहीं है कोई ' सम्मान ' का सिंहासन ' ..,
बड़ा होना नहीं है - 'आधिपत्य ' का पर्याय ..,
तुमसे ज्यादा भला कौन जनता था इस सत्य को उस वक्त ..?
बद्दप्पन के जिस बोझ से ,
धीरे धीरे झुक जाता है सर ,
दोहरी हो जाती है कमर..,
कांपने लगते हैं पैर ,
क्योँ पहना रहे थे मुझे वह मुकुट ,
सनह सनह जर्जर होने के लिए ..??
मुझ से नज़र मिला कर ..,
क्योँ उडेला मुझ में यह ज़हर../
जबकि 'लघुता ' के अमृत से भींगा ,
में ताक रहा था तुम्हे विवश होकर ..??
शायद ..,
टटोल रहे थे तुम ,
मुझ में वह 'शिव' ..,
जिसे सोंप सको 'गरल'..,
जो कभी मरता नहीं ,
और जिसे धारण करना ..,
जरुरी है शिव के लिए ..,
पीढ़ी दर पीढ़ी ..!!
चाहता , ना चाहता .., तो भी ..,
गरल तो धारण करना ही था
पहले तुम्हें ,
और फिर मुझे ..,
जन्म दर जन्म ,
क्यूंकि हम और तुम ही तो थे ..,
जीवित ..,
धारण करने के लए उसे ..,
शेष तो ज़हर ही था ,
जो था 'अमर '
सदा के लिए ..!!
--सभाजीत
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