गुरुवार, 15 जुलाई 2021

गद्य रचनाएं

 काफी हाउस में  वे रोज़ की  तरह ,  पांच बजे  इकट्ठे  हुए !!  उनकी टेबल  खिडकी  के पास  ही  थी ! वे सब बुद्धिवादी थे  और रोज़ देश की किसी  ना किसी  समस्या पर  बहस   करते  थे ! वे पूरी  बहस में सरकार और व्यवस्था की धज्जियां उडाते  और वर्तमान  को कोसते ....बहस में कभी कभी इतने  उत्तेजित हो  जाते कि लगता वे एक दूसरे  की  कालर  पकड़ लेंगे !!


        आज जब इकट्ठे  हुए तो घोष बाबू बहुत चिंतित थे ! सुबह के अखबार में  उनके शहर से सेकडों किलो  मीटर  दूर .मेरठ में एक भीषण  दुर्घटना हुई थी  जिसमे  एक युवक ट्रक के नीचे आ कर छितरा  गया  था ! घोष बाबू ने बात  शुरु की  कि ट्रेफिक  पुलिस कुछ नही देखती उसकी लापरवाही से .एक युवा और एक भरे पूरे घर का तो पूरा  भविष्य ही ऊजड  गया ! फौरन  ही तिवारी ,  भल्ला , मेहता , केलकर , नायर  ,विषय में  कूद गये ! पहले  पुलिस की ,फिर ट्रक ड्रायवरों की ,  फिर व्यवसाईयों की , फिर ज़िले की व्यवस्था की , फिर नेताओं की  , फिर राजनितिक पार्टियों से होती  हुई  बहस केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री  तक पहुँच गयीं !इस बीच तीन बार  काफी आई और खत्म हो गयी !आवाजें  इतनी तेज  हो गयीं , और चेहरे इतने तमतमा गये कि लगा हाथा पायी  ना हो जाये !


      खिडकी  से बाहर इस बीच एक बहुत जोर से आवाज  आयी ! लगा  जैसे  कोई गाडी किसी और गाडी से टकरा  गयीं ! एक मोटर सायकिल शायद एक ट्रक के नीचे आ गयीं थी ! थोडी देर में वहां भीड  हो गयीं .! कुछ लोग चिल्लाते हुए किसी घायल व्यक्ति को रिक्शे में टांग  कर ले गये ..उसे उठाते समय ट्रेफिक पुलिस के सफेद कपडे भी  खून में सन गये !  थोडी देर में ही भीड छंट  गयीं ! 


      काफी  हाउस की खिडकी  एयर टाईट  थी ! बाहर दिखा तो ज़रूर लेकिन आवाजे  नही  सुनाई दीं ! 

काफी हाउस के अन्दर उनकी बहस बदस्तूर चालू रही ! बात मेरठ की थी सभी का ह्रदय  बेध चुकी थी और तब भल्ला केन्द्र में नेत्रत्व परिवर्तन की  जोरदार वकालत  में लगा  था !


    आधा घंटे  बाद भल्ला को जब फ़ोन आया तो वे सब काफी छोड  कर बदहवास उठ  खड़े हुए .!


       भल्ला का  बेटा अस्पताल  में था  ...उसका एक एक्सीडेंट मोटर साएकिल से अभी अभी ..काफी  हाउस  के पास वाली रोड पर  हुआ  था !  सड़क चलते लोगों ने  ट्रेफिक पुलिस की सहायता से उठा कर समय  रहते अस्पताल  पहुँचा दिया था .!!


    कहते हैं मौके पर उपस्थिति लोगों  ने  बातचीत में समय जाया ना  करके तुरंत उसे अस्पताल पहुँचा दिया  इसलिये  उसकी जान बच गयीं !!


 ---- सभाजीत

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फिल्म इंडस्ट्री को प्रतिभावान  अभिनेता , डायरेक्टर , स्क्रिप्ट राइटर प्रदान करने हेतु स्थापित की गई   पूना फिल्म इंस्टीट्यूट भी साधारण विद्यार्थी को विद्यार्जन देने  हेतु उनकी  आर्थिक  सीमाओं  से सदा बाहर रही !  इसलिए यह संस्थान सिर्फ उस अभिजात्य वर्ग के ही काम आया , जो पैसा देकर , अपने बच्चे  को  शिक्षा प्राप्त करवा सकते थे !


     दूसरे  , यह संस्थान सिर्फ पूना जैसे ' महानगर ' की सीमा में  सिमट कर रह गया ! यह ' यूनिवर्सिटी ' नहीं बन पाया , और  "  डिस्टेंट  "  एजुकेशन देने के लिए योग्य नहीं बन पाया ! 

 इसके हास्टल खर्चे भी बहुत थे , और महानगर होने के कारण  विद्यार्थी की पाकिट मनी भी अधिक खर्च होती थी ! 


     वस्तुतः , जब तक फिल्मे , सेल्युलाइड आधारित रही ,,,उसकी तकनीक भी जटिल रही ! 

   पहले  तीव्र प्रकाश में फिल्म शूट करना होता था , फिर प्रोसेस करके , निगेटिव बनाना , फिर कांटेक्ट प्रिंट जिस पर एडीटिंग होती थी ,  विभिन्न  टुकड़ों  को मोबीला पर काट काट कर फिर जोड़ना ,  फिर साउंड स्टूडियो में  एडिटिंग , और फिर अंत में ' रिलीस प्रिंट ' !  


      इन जटिल कार्यो के लिए मुंबई में ही लेब स्थापित हुई , और साउंड स्टूडियो भी !  किन्तु इनके पोस्ट प्रोडक्शन का  व्यय  इतना अधिक था , की कलात्मक फिल्म बनाने वाला  यह व्यय  उठा ही नहीं सकता था ! इसलिए सत्यजित राय ने  ३५ एम एम की जगह पहले १६ एम एम कैमरे का उपयोग किया , जिसमे पोस्ट प्रोडक्शन  व्यय कम था ! 


      लेकिन , आज , digital   सिस्टम आने के बाद  जरूरी नहीं रहा की फिल्म को  ' उद्योग ' की तरह , एक चहारदीवारी में कैद रखा जा सके ! आज कैमरे में फिल्म की जगह छोटी सी मेमोरी कार्ड लगती है , जिसमे कई घंटे की शूटिंग रिकार्ड हो सकती है !  एक से एक इफेक्ट से सुसज्जित , एडिटिंग सॉफ्टवेयर  आ गए , जो एक कंप्यूटर सिस्टम पर काम करते हैं ,,,और अब एडिटिंग कोई कठिन काम नहीं रहा ! 


     ऐसे में भारी भरकम फीस युक्त  फिल्म इंस्टीट्यूटों  की प्रासिंगकता समाप्त ही मानी जानी चाहिए ! ,,, तकनीक के सरलीकरण के बाद , जो शेष बचता है , वह प्रतिभा पर निर्भर करता है -- जैसे अभिनय , निर्देशन ,   और इसके लिए कोई व्यक्ति किसी इस्टीट्यूट  पर निर्भर नहीं ! 


     दिलीप को एक्टिंग किसने सिखाई ,,,,मीना कुमारी किस इंस्टीट्यूट की क्षात्र थी ,,?? देवानंद  ने क्या पढ़ कर काम किया ,,,?? ,,,यह सवाल स्वयं फिल्म इंस्टीट्यूट  की निरर्थकता का जबाब हैं ! 


      इसलिए आज , बस फिल्म बनाने की लगन , और जज़्बा चाहिए ,,,, अगर वह है ,,,तो सब कुछ आपके आसपास ही है ,,,दूर जाने की जरुरत नहीं !! 


     एक बात और है , पिछले ६५ वर्षों से हम फिल्म को मुंबई की सीमाओं से मुक्त नहीं करवा पाये ,,, इसका कारण यह है की यह शिक्षा के पाठ्यक्रम में जोड़ा ही नहीं गया ! काश की यह विधा हर यूनिवर्सिटी  में , अन्य पाठ्यक्रम , एमबीएस , इंजीनियरिंग , की तरह पाठ्यक्रम से चालु करती ,,,क्यूंकि आज इस पाठ्यक्रम को संचालित करने के लिए ना तो  अलग से किसी बड़े केम्पस की जरुरत है , ना  किसी बड़े स्टूडियो या लेब की , और ना किसी बड़े बजट की !   '

--'सभाजीत '

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