" सीता बनवास "
राम कथा में दो बनवास की घटनाएँ उद्धृत की गई हैं ! एक बनवास त्रिया हठ पर, पिता के वचन पालन करने हेतु , स्वयं स्वीकार किया गया बनवास है , जो राम को बुलाकर उन्हें पूरी स्थिति समझा कर दिया गया- तथा दूसरा बनवास एक पति द्वारा अपनी पत्नी सीता को दिया गया बनवास है जिसमेँ उसे बुला कर उसे स्थिति समझाने की कोई आवश्यकता नहीँ समझी गई ! एक बनवास , एक स्त्री द्वारा , एक पुरुष को , अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु दिया गया ,,,,,जबकि दूसरा बनवास एक पुरुष द्वारा एक स्त्री को , स्वयं को लोकोपवाद से बचने हेतु दिया गया ! एक बनवास मेँ पत्नी अपने पति का साथ देने हेतु उन दुरूह स्थानो पर जाने के लिए स्वयँ को समर्पित कर देती है जहाँ पग पग पर उसे खतरा है -- दूसरे बनवास में पति के साथ की बात तो दूर , पत्नी के जाते समय पति उससे मिलना भी नहीं चाहता , उससे मुह छिपाता है ! एक बनवास मेँ राज्य की पूरी जनता विचलित हो जाती दूसरे बनवास में किसी का मुह नहीँ खुलता ! एक बनवास खुले आम है , दूसरा चोरी- छिपे ! यह कैसी विडंबना है ?,,, क्या दूसरा बनवास, बनवास नहीँ बल्कि किसी राजा द्वारा रचित राज्य निष्कासन का किसी को दिया गया दंड है अथवा किसी पति द्वारा , पत्नी का त्याग है ? ,,,, या फिर राजा के निष्कलंक स्वरुप को अक्षुण रखने हेतु की गई कोई कार्यवाही है ,,? सीता वनवास का प्रसंग इन प्रश्नो के उत्तर आज भी ढूंढ रहा है !
राजा राम के दरबार की कल्पना जब की जाती है तो राज सिंहासन पर , राम , अपनी पत्नी के साथ बिराजे दिखाते हैं यानी राम-राज्य सीता के बिना अपूर्ण है ! राम के व्यक्तित्व को पूर्णता देने वाली यह वही सीता है , जिनका वियोग राम के लिए असह्य था ! यह वही सीता है , जिनकी की खोज में राम ने आकाश पाताल एक कर दिया था और यह वही सीता है , जिनके लिए राम ने महाबली रावण से दुर्दांत युद्ध करके , उसे समूल नष्ट किया था , और सीता को वापिस लाकर सिंहासन पर , अपने बाम अंग बैठाया था ! ,,,,,, जिस रावण के साथ राम ने हजारोँ वानरोँ की सहायता से , विभीषण की गुप्त सूचनाओं के सहयोग से , लक्ष्मण के अद्मय साहस और वीर हनुमान की समर्पित सेवा के सहयोग से युद्ध करके विजय पाई राम की उसी अर्धांग्नी सीता ने उसी रावण से प्रतिदिन अपनी तेजोमय वाणी , सतीत्व की की ढाल , अदम्य साहस , निर्भयता के कवच को बांधकर एक माह तक अकेले युद्ध किया और प्रतिदिन उसे हराया ! ,,,,,, सत्य तो ये है अपने बध से पूर्व ही , सीता का सामना प्रतिदिन करके रावण पहले ही मर चुका था ! ना तो उसमे आत्म बल बचा था और ना ही नीति बल जिससे वह राम के समक्ष थोड़ा भी टिक सकता !
लंका विजय के बाद लोकोपवाद के भय से राम अपनी पत्नी सीता को सहज ही तुरंत स्वीकार नहीँ करते ! वे जनमानस की उन कमजोरियोँ को जानते थे जो किसी पर भी , कभी भी , कोई उंगली उठाने से नहीँ हिचकती है ! इसलिए वे , सीता को अग्नि परीक्षा देने के लिए कहते हैँ ! अग्नि परीक्षा इस बात के लिए की जाती है सीता यह सिद्ध करें की पर-पुरुष की नगरी में , अपने हरण के बाद भी , एक पतिव्रता नारी रुप मेँ रही ,,,,, और उन्हें किसी ने स्पर्श नहीं किया ! अग्नि परीक्षा में स्वयं अग्नि ने उपस्थित होकर राम से कहा की सीता स्वयं अग्नि है और अग्नि सदा ही दोषमुक्त ही रहती है !! ,,, उसे कुदृष्टि से स्पर्श करने वाला स्वयं ही जल जाता है और इस प्रकार सीता पूर्णतः दोष रहित हे !
एक स्त्री के लिए इतनी परीक्षा काफी है जिसमेँ स्वयं देव ही आकर यह सिद्ध करदें की स्त्री निर्दोष हे,,,! और इसलिए राम उन्हें पुनः स्वीकार करते है !,,,वे उन्हें अर्द्धांगनी की प्रतिष्ठा देकर , सम्पूर्णता के साथ , राज्य सिंघासन पर प्रतिष्ठित करते हैँ,,,!
लेकिन वही राम , कैसी विडम्बना है की , फिर लोकोपवाद से बचने के लिए , अपनी ' सती ' पत्नी को , बनवास दे देते हैं , वह भी उस अवस्था में जब की वह ' गर्भवती ' है ! जिस राम-राज्य में , सिंहासन पर एक स्त्री ' पत्नी ' के रूप में , पुरुष के बराबर से बैठने की अधिकारिणी बनती है , उसी राम-राज्य में , वही स्त्री , बिना अपराध सिद्ध हुए , बिना सफाई का अवसर प्राप्त हुए , बनवास की अधिकारणी बन जाती है ! तब यह प्रश्न उठता है की " राम-राज्य ' की आदर्श अवधारणा में ' स्त्री ' की क्या स्थिति है ,,,??
रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास इस प्रश्न और प्रसंग पर चतुराई से कन्नी काट लेते हैँ ! वे राम राज्य में प्रजा और नर नारी को पूर्ण पाते हे ! उनकी निगाहोँ मेँ राजाराम के राज्य मेँ स्त्री पुरुष भी , उन्ही मूल्योँ से सुसज्जित हे , जिस से की स्वयं राम हे,,,! सभी जन , राग द्वेष , काम , क्रोध , लोभ , मोह , कपट , छल , जेसे सभी दुर्गुणोँ से दूर हे ,,,! ,,,, स्त्रियाँ पति अनुरागी है और पति एक पत्नी व्रत ,,,! सभी जनता , रघुनाथ और जानकी को आदर सहित पूजती है,,,!
" सासुन्ह सादर जानकी , मज्जन तुरंत कराई ,,,!
दिव्य बसन अरु भूषणः , अंग अंग सजे बनाई ,,,!!
राम -वाम दिस शोभती , रमा रूप गुन खानि ,
देख मातु सब हरसहि , जन्म सुफल निज जानि ,,,!!
प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा , तुरतहि दिव्य सिंहासन माँगा ,,!!
रवि सम तेज सो बरनि ना जाइ , बैठे राम द्विजन सर नाइ ,,,!!
' जनक-सुता ' समेत रघुराई ,,पेखि प्रहरसे मुनि समुदाई ,,!!
राम राज बैठे त्रैलोका , हर्षित भये , गए सब सोका ,,,!!
बयरु ना कर काहू सं कोई , राम प्रताप विषमता खोई ,,!!
दैहिक , दैविक , भौतिक तापा , राम राज काहू नहीं व्यापा ,,!!
सब नर करहि परस्पर प्रीती , चलही स्वधर्म निरत श्रुति नीति ,,!!
एक नारि व्रत रत सब झारी , ते मन वचन क्रम पति हितकारी ,,,!!
दूसरी और , सीता के बारे में गोस्वामी तुलसी दास कहते हैं --
' पति अनुकूल सदा रह सीता , सोभा खानि शुशील विनीता ,,!!
जानती कृपा-सिंधु प्रभुताई , सेवति चरण कमल मन लाइ ,,!!
दुइ सूत सुन्दर सीता जाये , लव- कुश वेद पुरानन्ह गाये ,,!!
दोउ विजई , बिनई गन मंदिर , हरि प्रतिबिम्ब मानहु अति सुन्दर ,,,!!
लेकिन संस्कृत रामायण के रचियता महर्षि बाल्मीक सीता बनवास के प्रसंग को विस्तार से उल्लेखित करते हैँ ! श्रीमद वाल्मीकीय रामायण के ४२ वे सर्ग से लेकर ९२ सर्ग तक जानकी बनवास की मार्मिक कथा हे ! ४४ वे सर्ग में भद्र ने राम को बताया - की पुरवासियों के मन में सीता के चरित्र को लेकर शंकाएँ उठ रही है ! वे कहते हैँ रावण पहले बलपूर्वक सीता को उठा कर ले गया उनका अपहरण किया फिर लंका में अपने अन्तःपुर के क्रीड़ावन , अशोक वाटिका में अनेक दिन रखा वे बहुत दिनोँ राक्षसो के वष में होकर रही , तब भी श्री राम उनसे घृणा क्यूँ नहीँ करते ? ,,, अब हम लोगोँ को भी स्त्रियोँ की ऐसी बातेँ सहन करनी पड़ेगी ,,,,क्यूंकि राजा जो करता है पृजा उसी का अनुसरण करती है,,!
राम सूचना से अत्यंत विचलित हो गए ! उन्होंने मित्रोँ से सलाह ली ! मित्रोँ ने कहा- यह दूत सही कहता हे !
तब राम ने अपने भाइयो को बुला कर कहा --- ' नर श्रेष्ठ बंधुओं !! मैँ लोक निंदा के भय से अपने प्राणोँ और तुम सब को भी त्याग सकता हूँ ,,,, फिर सीता को त्यागना कौन सी बडी बात है !,,, समस्त श्रेष्ठ महात्माओं का सारा शुभ आयोजन,,, उत्तम कीर्ति की स्थापना के लिए ही होता है,! ,, जिसकी अपकीर्ति लोक में चर्चा का विषय बन जाए,, वह नरक मेँ गिर जाता है ! अतः हे लक्ष्मण !! ,,,, तुम मेरी आज्ञा मानकर , कल प्रातः ही रथ पर आरुढ़ होकर , सीता को उस पर ले जाकर , राज्य की सीमा के बाहर छोड दो ! ,, मेरे निर्णय के विरुद्ध कुछ मत कहो,,,! यदि तुम लोग मेरा सम्मान करते हो तो सीता को यहाँ से वन में ले जाओ !
46 वे सर्ग में , लक्ष्मण राम की आज्ञा अनुसार सीता को इस भ्रम मेँ रखकर , रथ पर आसीन करवाते हैं कि उन्होंने जो एक दिन पूर्व ऋषियों के आश्रम देखने की इच्छा राम से ब्यक्ति की थी , राम उसकी पूर्ति करना चाहते है ! सीता इसके लिए खुशी खुशी तैयार हो गई और रथ पर चलकर वन को चले दी ! 45 वेँ सर्ग में नाव से गंगा के उस पार उतरने के बाद , लक्ष्मण दुखी मन से सीता को राम का निर्णय सुनाते हे और रोककर अपनी मनोदशा व्यक्त करते हैँ ! राम द्वारा अपने त्यागे जाने का निर्णय सुनकर सीता बहुत दुखी होती है ,,, वे कहती है - ,, ', लक्ष्मण !! ' ,,,, निश्चय ही विधाता ने मेरे शरीर को केवल दुख भोगने के लिए ही रचा है ,,, मेने पूर्व जन्म में क्या पाप किए ,,, अथवा किसका स्त्री से विछोह करवाया की शुद्ध आचरण होने पर भी , महराज ने मुझे त्याग दिया ?? ,,,हे सौम्य ,,!! ,, पहले मेने बनवास के दुखों में पड़ कर भी , उसे सह कर , राम के चरणो का अनुसरण करते हुए , आश्रम में रहना पसंद किया था ,,,किन्तु अब में अकेली , प्रियजनों से रहित होकर , किस प्रकार आश्रम में निवास करूंगी ,,?? ,,,,किससे अपना दुःख कहूँगी ,,?? यदि मुनिजन मुझसे पूछेंगे की महात्मा राम ने किस अपराध पर तुम्हे त्याग दिया है तो मैं उन्हें अपना कौन सा अपराध बताउंगी ,,?? ,,,मैं चाहू तो अभी गंगा में डूब कर स्वयं को समाप्त कर दू किन्तु ऐसा अभी नहीं कर सकती क्योँकि ऐसा करने पर मेरे पति का ' राजवंश ' नष्ट हो जाएगा ! ( सीता उस समय गर्भवती थी ) ,,,किन्तु हे लक्षमण ,,!,,,, तुम तो वैसा ही करो , जैसा महराज ने आज्ञा दी है ,,,!! "
लक्ष्मण से सीता का यह कथन आज भी उन प्रश्नोँ को लेकर प्रासंगिक है जिसमेँ स्त्री का प्रथम मूल्य पुरुष के जीवन में भोग्या के रुप मेँ हे ! ,,, क्या सतीत्व का अर्थ , स्त्री के मात्र शरीर से संबंधित है और क्या स्त्री को एक धन के रुप में धारण करने वाला पुरुष , उसके ऊपर पर-पुरुष की छाया के विचार से ही आक्रांत हो उठता है ? ,,, भारत में राम राज्य से पूर्व किसी भी कथा में लोकोपवाद से बचने के लिए स्त्री के त्याग का कोई विवरण नहीँ मिलता है किंतु सीता के त्याग के बाद जैसे समाज में स्त्री त्याग , एक परिपाटी बन गया !! शरत चंद्र के कथा साहित्य में आजादी के पूर्व की सामाजिक स्थितियाँ में , स्त्री त्याग की घटनाएँ प्रचुरता में वर्णित है ! सतीत्व की परीक्षा पर , कसौटी पर स्त्रियाँ बार बार कसी जाती रही और उन्हें समाज में स्वयम को पति भक्त सिद्ध करना जरुरी रहा !
दूसरा प्रश्न उस न्याय को लेकर भी है जिसमेँ दंड देने के पूर्व पूर्व अपराधी को अपनी सफ़ाई देने अधिकार हे ! सीता को बनवास देते समय राम ने उनसे एक बार भी यह चर्चा करना उचित नहीं समझी की इन परिस्थितियों में वे क्या करें ,,? क्या अपनी सहधर्मणी पर लगने वाले मिथ्या दोष पर , अकुला कर वे स्वयं एक बार राजपाट त्यागने की पेशकश नहीं कर सकते थे ,,?
एक अन्य रामायण के रचनाकार --' राधेश्याम ' ने अपनी रचना में इन परिस्थितियों का वर्णन इस प्रकार किया ---
",,,लक्षमण बोले - व्यर्थ है - यह सब राय- उपाय ,,
जांच ' आंच ' से हो चुकी , फिर भी त्यागी जाय ,,?? "
हे नाथ दया करिये - छाती छलनी हो जाती है ,
शब्दों की लड़ी नहीं है ये - शूलों की लड़ी कहती है ,,
निर्दोषनि नारी दंड पाये , क्या यह ' अधर्म ' का काम नहीं ,,?
ऐसे कामो को करके , क्या रघुकुल होगा बदनाम नहीं ,,??
अबला अर्धांगनी , महासती , निर्दोष निकाली जाती हैं ,,
पृथ्वी आकाश देखते हैं , ' कौशलपुर ' कितना ' घाती ' है ,,!!
' धिक्कार ' उस प्रजा पालने पर , जो यु सर चढ़ जाए प्रजा ,,
संतोष पूर्ण शासन पर भी , पूरा संतोष ना पाये प्रजा ,,,!! "
इसी अवसर पर भरत कहते हैं ---
' तरह तरह की साक्ष्यों से , सबको संतोषित कर देंगे ,,
' माता ' में कोई दोष नहीं , यह बात प्रमाणित कर देंगे ,,!
दब जाना ऐसे अवसर पर , अपनी भीरुता बताता है ,
' सच्चा ' चुप रहे ' समय ' पर तो , झूठा ' सच्चा हो जाता है ,,!
फिर हाथ नहीं आएगा वह ,, जो हाथों से खो जाएगा ,
' गृहलक्ष्मी ' को गर त्यागोगे , तो गृह उजाड़ हो जाएगा ! "
पवनसुत हनुमान भी चुप नहीं रहते ,,,वे बोलते हैं ---
जिन आँखों ने सतवंती की , ' आभा ' देखी है लंका में ,
जिन कानो ने , क्षत्राणी की , गर्जना सुनी है लंका में ,,
जो ' अग्नि परिक्षा ' की घटना , अवलोक चुके हैं - आँखों से ,
वे ही निर्णय कर सकते हैं माता का चरित प्रमाणों से ,,!
इस पतिव्रत का उदाहरण , है कही नहीं त्रय लोको में ,
महलो में रहने वाली ने , रखा पति धर्म ' अशोकों ' में ,,!!"
हनुमान त्रिजटा को भी साक्षी बता कर आगे कहते हैं ---
उनसे पूछो - माता क्या है ,,जो साथ रही है माता के ,
जिनने अपनी आँखों देखे वे दिवस अशोक वाटिका के
यदि नहीं एक दिन वह होती , तो चिता वहां पर जल जाती ,
यह राज-सभा जो लगी आज , होकर सुनसान बदल जाती ,!!
माता ने रखा पतिव्रत है , अपनी हड्डिया सुखाकर है ,
छूना क्या ,,देखा ना कभी , निश्चर को दृष्टि उठा कर है ,,!
कब मिटता है ' सत ' का प्रकाश , ' शंका की ' रज ' छा ' जाने पर ,,
होता है ' चन्द्र ' नहीं मैला , बादल के आगे आ जाने पर ,,!
दुर्दैव , अवध के खेतों में , ' अपयश ' के बीज बो गया है ,
अंधे समाज को जाने क्या यह आज अचानक हो गया है ,,!!
यदि बदला इसका लेने को , ' जगजननी ' शीश उठाएगी ,
' सूरज ' काला पड जाएगा , पृथ्वी चौपट हो जाएगी ,,,!!
राधेश्याम रामायण के रचियता कवि , सीता के त्यागे जाने के बाद , प्रजा में और समाज में हुए बदलाव पर टिप्पणी करते हुए ,, खुद भी कहते हैं ----
जो अंग वेद पाठी था , वह बकवादी होता जाता है ,
जो वर्ण देश का ' रक्षक ' था वह व्यसनी होता जाता है ,,!
जो ज्योति दिव्य व्यवसायी थी , वह व्यभिचारों में धाई है ,
जो जाति सभी की सेवक थी ,, वो सबके सर चढ़ आई है ,,!
जो ब्रम्हचर्य व्रतधारी थे , लौकिक सुख उनका ' कर्म ' हुआ ,
पत्नीव्रत रखने के बदले , पत्नी त्यागन ही धर्म हुआ ,,!!
एक अन्य चित्रण में , बाद में सीता सुत लवकुश प्रजा को ललकारते हुए बोलते हैं --
जो जनता जनप्रिय राजा से , रानी का त्याग कराती है ,
सतवंती के पावन सत पर , मिथ्या संदेह उठाती है ,
जिनके विचार भ्रम भूल भरे , त्यागन की हद तक जाते हैं ,
उस जनता को गुरुकुल ही से , हमदोनो शीश नवाते हैं ,,!!
श्रीमद् बाल्मीकि रामायण में लव कुश राम दरबार में जाकर रामकथा गा कर सुनाते है जो बाल्मीक द्वारा रचित थी ! उसी समय राम को ज्ञान होता है की लव कुश उनके पुत्र हैं ! वे अपने दूतो को आश्रम भेजकर बाल्मीकि को यह सूचना भिजवाते है की यदि सीता दरबार मेँ आकर, समस्त प्रजा के समक्ष , अपने शुद्धता का परिचय दें तो वे पुनः उन्हें स्वीकार कर लेंगे !
सीता बाल्मीक के साथ आती हे और सभी उपस्थित प्रजा के सामने कहती है की अगर उन का सतीत्व सही है और यदि वे मन वचन और कर्म से मात्र राम अनुगामिनी है और किसी के प्रति भी अनुरागी नहीँ है तो प्रथ्वी उन्हें सम्मान सहित अपनी गोद मेँ स्थान दे !
यही होता है पृथ्वी फटती है और सीता उस में समा जाती है !
राम का सीता को त्यागना उन्हें ,, निरपराध बनवास भेजना निश्चय ही रामराज्य की एक कलंकनीय घटना हे ! विवश नारी का पराधीन रहना और स्वेच्छा से पर पुरुष पर आसक्त होने में बहुत अंतर है ! सीता ने तो रावण के अशोक वन मेँ रहते हुए सदेव अपने पति का ही ध्यान किया ,,,,वे सदेव राम- अनुरागी रही ,,,,यह जानते हुए भी राम ने उन्हें त्यागा ---यह न्याय विरुद्ध था !
राजा को लोक अपवाद से बचना चाहिए यह सत्य है ! आरोपोँ से घिरे राजा को कोई नेतिक अधिकार , राज करने का शेष नहीँ होता यह भी सत्य है ! किंतु ऐसी स्थिति मेँ राजा को स्वयं राज त्याग कर देना चाहिए जब उसके किसी प्रियजन पर ही प्रजा उंगली उठाये ! ,,,, समय सबसे बलवान चीज हे,,,, यदि वह मिथ्या आरोप मढ़वाता है तो वह सत्यता का भासं भी शीघ्र ही करवाता है ! राजा के लिए चाहे समुदाय हो अथवा एक व्यक्ति दोनों ही न्याय पाने के लिए सामान रूप से हकदार होते हे और समुदाय के आगे एक निर्दोष को दंड देकर अपना कर्तव्य पूर्ण मान लेना एक भयंकर भूल ही मानी जाएगी ! समुदाय को प्रसन्न करने के लिए किसी एक निर्दोष की बलि लेना एक बड़ा पाप हे !,
,,,, सीता हर काल में पैदा होती हे !! ,,,, पति- पत्नी का रिश्ता एक बहुत पवित्र रिश्ता हे इसमे परस्पर विश्वास ही रिश्ते के आधार स्तंभ हैँ ! यदि यह आधार स्तंभ रेत की दीवार जैसे होंगे और पति अपनी पत्नी पर अकारण ही संदेह करेगा तो सीता बनवास होते रहेंगे और अंत मेँ सीता के लोप हो जाने पर राम सिर्फ विलाप ही करते रह जायेंगे तथा उनकी कीर्ति भी उस चंद्र के समान रह जाएगी जिसमेँ एक दाग सदेव के लिए सबको दीखता रहेगा !
- सभाजीत ' सौरभ '
राम कथा में दो बनवास की घटनाएँ उद्धृत की गई हैं ! एक बनवास त्रिया हठ पर, पिता के वचन पालन करने हेतु , स्वयं स्वीकार किया गया बनवास है , जो राम को बुलाकर उन्हें पूरी स्थिति समझा कर दिया गया- तथा दूसरा बनवास एक पति द्वारा अपनी पत्नी सीता को दिया गया बनवास है जिसमेँ उसे बुला कर उसे स्थिति समझाने की कोई आवश्यकता नहीँ समझी गई ! एक बनवास , एक स्त्री द्वारा , एक पुरुष को , अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु दिया गया ,,,,,जबकि दूसरा बनवास एक पुरुष द्वारा एक स्त्री को , स्वयं को लोकोपवाद से बचने हेतु दिया गया ! एक बनवास मेँ पत्नी अपने पति का साथ देने हेतु उन दुरूह स्थानो पर जाने के लिए स्वयँ को समर्पित कर देती है जहाँ पग पग पर उसे खतरा है -- दूसरे बनवास में पति के साथ की बात तो दूर , पत्नी के जाते समय पति उससे मिलना भी नहीं चाहता , उससे मुह छिपाता है ! एक बनवास मेँ राज्य की पूरी जनता विचलित हो जाती दूसरे बनवास में किसी का मुह नहीँ खुलता ! एक बनवास खुले आम है , दूसरा चोरी- छिपे ! यह कैसी विडंबना है ?,,, क्या दूसरा बनवास, बनवास नहीँ बल्कि किसी राजा द्वारा रचित राज्य निष्कासन का किसी को दिया गया दंड है अथवा किसी पति द्वारा , पत्नी का त्याग है ? ,,,, या फिर राजा के निष्कलंक स्वरुप को अक्षुण रखने हेतु की गई कोई कार्यवाही है ,,? सीता वनवास का प्रसंग इन प्रश्नो के उत्तर आज भी ढूंढ रहा है !
राजा राम के दरबार की कल्पना जब की जाती है तो राज सिंहासन पर , राम , अपनी पत्नी के साथ बिराजे दिखाते हैं यानी राम-राज्य सीता के बिना अपूर्ण है ! राम के व्यक्तित्व को पूर्णता देने वाली यह वही सीता है , जिनका वियोग राम के लिए असह्य था ! यह वही सीता है , जिनकी की खोज में राम ने आकाश पाताल एक कर दिया था और यह वही सीता है , जिनके लिए राम ने महाबली रावण से दुर्दांत युद्ध करके , उसे समूल नष्ट किया था , और सीता को वापिस लाकर सिंहासन पर , अपने बाम अंग बैठाया था ! ,,,,,, जिस रावण के साथ राम ने हजारोँ वानरोँ की सहायता से , विभीषण की गुप्त सूचनाओं के सहयोग से , लक्ष्मण के अद्मय साहस और वीर हनुमान की समर्पित सेवा के सहयोग से युद्ध करके विजय पाई राम की उसी अर्धांग्नी सीता ने उसी रावण से प्रतिदिन अपनी तेजोमय वाणी , सतीत्व की की ढाल , अदम्य साहस , निर्भयता के कवच को बांधकर एक माह तक अकेले युद्ध किया और प्रतिदिन उसे हराया ! ,,,,,, सत्य तो ये है अपने बध से पूर्व ही , सीता का सामना प्रतिदिन करके रावण पहले ही मर चुका था ! ना तो उसमे आत्म बल बचा था और ना ही नीति बल जिससे वह राम के समक्ष थोड़ा भी टिक सकता !
लंका विजय के बाद लोकोपवाद के भय से राम अपनी पत्नी सीता को सहज ही तुरंत स्वीकार नहीँ करते ! वे जनमानस की उन कमजोरियोँ को जानते थे जो किसी पर भी , कभी भी , कोई उंगली उठाने से नहीँ हिचकती है ! इसलिए वे , सीता को अग्नि परीक्षा देने के लिए कहते हैँ ! अग्नि परीक्षा इस बात के लिए की जाती है सीता यह सिद्ध करें की पर-पुरुष की नगरी में , अपने हरण के बाद भी , एक पतिव्रता नारी रुप मेँ रही ,,,,, और उन्हें किसी ने स्पर्श नहीं किया ! अग्नि परीक्षा में स्वयं अग्नि ने उपस्थित होकर राम से कहा की सीता स्वयं अग्नि है और अग्नि सदा ही दोषमुक्त ही रहती है !! ,,, उसे कुदृष्टि से स्पर्श करने वाला स्वयं ही जल जाता है और इस प्रकार सीता पूर्णतः दोष रहित हे !
एक स्त्री के लिए इतनी परीक्षा काफी है जिसमेँ स्वयं देव ही आकर यह सिद्ध करदें की स्त्री निर्दोष हे,,,! और इसलिए राम उन्हें पुनः स्वीकार करते है !,,,वे उन्हें अर्द्धांगनी की प्रतिष्ठा देकर , सम्पूर्णता के साथ , राज्य सिंघासन पर प्रतिष्ठित करते हैँ,,,!
लेकिन वही राम , कैसी विडम्बना है की , फिर लोकोपवाद से बचने के लिए , अपनी ' सती ' पत्नी को , बनवास दे देते हैं , वह भी उस अवस्था में जब की वह ' गर्भवती ' है ! जिस राम-राज्य में , सिंहासन पर एक स्त्री ' पत्नी ' के रूप में , पुरुष के बराबर से बैठने की अधिकारिणी बनती है , उसी राम-राज्य में , वही स्त्री , बिना अपराध सिद्ध हुए , बिना सफाई का अवसर प्राप्त हुए , बनवास की अधिकारणी बन जाती है ! तब यह प्रश्न उठता है की " राम-राज्य ' की आदर्श अवधारणा में ' स्त्री ' की क्या स्थिति है ,,,??
रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास इस प्रश्न और प्रसंग पर चतुराई से कन्नी काट लेते हैँ ! वे राम राज्य में प्रजा और नर नारी को पूर्ण पाते हे ! उनकी निगाहोँ मेँ राजाराम के राज्य मेँ स्त्री पुरुष भी , उन्ही मूल्योँ से सुसज्जित हे , जिस से की स्वयं राम हे,,,! सभी जन , राग द्वेष , काम , क्रोध , लोभ , मोह , कपट , छल , जेसे सभी दुर्गुणोँ से दूर हे ,,,! ,,,, स्त्रियाँ पति अनुरागी है और पति एक पत्नी व्रत ,,,! सभी जनता , रघुनाथ और जानकी को आदर सहित पूजती है,,,!
" सासुन्ह सादर जानकी , मज्जन तुरंत कराई ,,,!
दिव्य बसन अरु भूषणः , अंग अंग सजे बनाई ,,,!!
राम -वाम दिस शोभती , रमा रूप गुन खानि ,
देख मातु सब हरसहि , जन्म सुफल निज जानि ,,,!!
प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा , तुरतहि दिव्य सिंहासन माँगा ,,!!
रवि सम तेज सो बरनि ना जाइ , बैठे राम द्विजन सर नाइ ,,,!!
' जनक-सुता ' समेत रघुराई ,,पेखि प्रहरसे मुनि समुदाई ,,!!
राम राज बैठे त्रैलोका , हर्षित भये , गए सब सोका ,,,!!
बयरु ना कर काहू सं कोई , राम प्रताप विषमता खोई ,,!!
दैहिक , दैविक , भौतिक तापा , राम राज काहू नहीं व्यापा ,,!!
सब नर करहि परस्पर प्रीती , चलही स्वधर्म निरत श्रुति नीति ,,!!
एक नारि व्रत रत सब झारी , ते मन वचन क्रम पति हितकारी ,,,!!
दूसरी और , सीता के बारे में गोस्वामी तुलसी दास कहते हैं --
' पति अनुकूल सदा रह सीता , सोभा खानि शुशील विनीता ,,!!
जानती कृपा-सिंधु प्रभुताई , सेवति चरण कमल मन लाइ ,,!!
दुइ सूत सुन्दर सीता जाये , लव- कुश वेद पुरानन्ह गाये ,,!!
दोउ विजई , बिनई गन मंदिर , हरि प्रतिबिम्ब मानहु अति सुन्दर ,,,!!
लेकिन संस्कृत रामायण के रचियता महर्षि बाल्मीक सीता बनवास के प्रसंग को विस्तार से उल्लेखित करते हैँ ! श्रीमद वाल्मीकीय रामायण के ४२ वे सर्ग से लेकर ९२ सर्ग तक जानकी बनवास की मार्मिक कथा हे ! ४४ वे सर्ग में भद्र ने राम को बताया - की पुरवासियों के मन में सीता के चरित्र को लेकर शंकाएँ उठ रही है ! वे कहते हैँ रावण पहले बलपूर्वक सीता को उठा कर ले गया उनका अपहरण किया फिर लंका में अपने अन्तःपुर के क्रीड़ावन , अशोक वाटिका में अनेक दिन रखा वे बहुत दिनोँ राक्षसो के वष में होकर रही , तब भी श्री राम उनसे घृणा क्यूँ नहीँ करते ? ,,, अब हम लोगोँ को भी स्त्रियोँ की ऐसी बातेँ सहन करनी पड़ेगी ,,,,क्यूंकि राजा जो करता है पृजा उसी का अनुसरण करती है,,!
राम सूचना से अत्यंत विचलित हो गए ! उन्होंने मित्रोँ से सलाह ली ! मित्रोँ ने कहा- यह दूत सही कहता हे !
तब राम ने अपने भाइयो को बुला कर कहा --- ' नर श्रेष्ठ बंधुओं !! मैँ लोक निंदा के भय से अपने प्राणोँ और तुम सब को भी त्याग सकता हूँ ,,,, फिर सीता को त्यागना कौन सी बडी बात है !,,, समस्त श्रेष्ठ महात्माओं का सारा शुभ आयोजन,,, उत्तम कीर्ति की स्थापना के लिए ही होता है,! ,, जिसकी अपकीर्ति लोक में चर्चा का विषय बन जाए,, वह नरक मेँ गिर जाता है ! अतः हे लक्ष्मण !! ,,,, तुम मेरी आज्ञा मानकर , कल प्रातः ही रथ पर आरुढ़ होकर , सीता को उस पर ले जाकर , राज्य की सीमा के बाहर छोड दो ! ,, मेरे निर्णय के विरुद्ध कुछ मत कहो,,,! यदि तुम लोग मेरा सम्मान करते हो तो सीता को यहाँ से वन में ले जाओ !
46 वे सर्ग में , लक्ष्मण राम की आज्ञा अनुसार सीता को इस भ्रम मेँ रखकर , रथ पर आसीन करवाते हैं कि उन्होंने जो एक दिन पूर्व ऋषियों के आश्रम देखने की इच्छा राम से ब्यक्ति की थी , राम उसकी पूर्ति करना चाहते है ! सीता इसके लिए खुशी खुशी तैयार हो गई और रथ पर चलकर वन को चले दी ! 45 वेँ सर्ग में नाव से गंगा के उस पार उतरने के बाद , लक्ष्मण दुखी मन से सीता को राम का निर्णय सुनाते हे और रोककर अपनी मनोदशा व्यक्त करते हैँ ! राम द्वारा अपने त्यागे जाने का निर्णय सुनकर सीता बहुत दुखी होती है ,,, वे कहती है - ,, ', लक्ष्मण !! ' ,,,, निश्चय ही विधाता ने मेरे शरीर को केवल दुख भोगने के लिए ही रचा है ,,, मेने पूर्व जन्म में क्या पाप किए ,,, अथवा किसका स्त्री से विछोह करवाया की शुद्ध आचरण होने पर भी , महराज ने मुझे त्याग दिया ?? ,,,हे सौम्य ,,!! ,, पहले मेने बनवास के दुखों में पड़ कर भी , उसे सह कर , राम के चरणो का अनुसरण करते हुए , आश्रम में रहना पसंद किया था ,,,किन्तु अब में अकेली , प्रियजनों से रहित होकर , किस प्रकार आश्रम में निवास करूंगी ,,?? ,,,,किससे अपना दुःख कहूँगी ,,?? यदि मुनिजन मुझसे पूछेंगे की महात्मा राम ने किस अपराध पर तुम्हे त्याग दिया है तो मैं उन्हें अपना कौन सा अपराध बताउंगी ,,?? ,,,मैं चाहू तो अभी गंगा में डूब कर स्वयं को समाप्त कर दू किन्तु ऐसा अभी नहीं कर सकती क्योँकि ऐसा करने पर मेरे पति का ' राजवंश ' नष्ट हो जाएगा ! ( सीता उस समय गर्भवती थी ) ,,,किन्तु हे लक्षमण ,,!,,,, तुम तो वैसा ही करो , जैसा महराज ने आज्ञा दी है ,,,!! "
लक्ष्मण से सीता का यह कथन आज भी उन प्रश्नोँ को लेकर प्रासंगिक है जिसमेँ स्त्री का प्रथम मूल्य पुरुष के जीवन में भोग्या के रुप मेँ हे ! ,,, क्या सतीत्व का अर्थ , स्त्री के मात्र शरीर से संबंधित है और क्या स्त्री को एक धन के रुप में धारण करने वाला पुरुष , उसके ऊपर पर-पुरुष की छाया के विचार से ही आक्रांत हो उठता है ? ,,, भारत में राम राज्य से पूर्व किसी भी कथा में लोकोपवाद से बचने के लिए स्त्री के त्याग का कोई विवरण नहीँ मिलता है किंतु सीता के त्याग के बाद जैसे समाज में स्त्री त्याग , एक परिपाटी बन गया !! शरत चंद्र के कथा साहित्य में आजादी के पूर्व की सामाजिक स्थितियाँ में , स्त्री त्याग की घटनाएँ प्रचुरता में वर्णित है ! सतीत्व की परीक्षा पर , कसौटी पर स्त्रियाँ बार बार कसी जाती रही और उन्हें समाज में स्वयम को पति भक्त सिद्ध करना जरुरी रहा !
दूसरा प्रश्न उस न्याय को लेकर भी है जिसमेँ दंड देने के पूर्व पूर्व अपराधी को अपनी सफ़ाई देने अधिकार हे ! सीता को बनवास देते समय राम ने उनसे एक बार भी यह चर्चा करना उचित नहीं समझी की इन परिस्थितियों में वे क्या करें ,,? क्या अपनी सहधर्मणी पर लगने वाले मिथ्या दोष पर , अकुला कर वे स्वयं एक बार राजपाट त्यागने की पेशकश नहीं कर सकते थे ,,?
एक अन्य रामायण के रचनाकार --' राधेश्याम ' ने अपनी रचना में इन परिस्थितियों का वर्णन इस प्रकार किया ---
",,,लक्षमण बोले - व्यर्थ है - यह सब राय- उपाय ,,
जांच ' आंच ' से हो चुकी , फिर भी त्यागी जाय ,,?? "
हे नाथ दया करिये - छाती छलनी हो जाती है ,
शब्दों की लड़ी नहीं है ये - शूलों की लड़ी कहती है ,,
निर्दोषनि नारी दंड पाये , क्या यह ' अधर्म ' का काम नहीं ,,?
ऐसे कामो को करके , क्या रघुकुल होगा बदनाम नहीं ,,??
अबला अर्धांगनी , महासती , निर्दोष निकाली जाती हैं ,,
पृथ्वी आकाश देखते हैं , ' कौशलपुर ' कितना ' घाती ' है ,,!!
' धिक्कार ' उस प्रजा पालने पर , जो यु सर चढ़ जाए प्रजा ,,
संतोष पूर्ण शासन पर भी , पूरा संतोष ना पाये प्रजा ,,,!! "
इसी अवसर पर भरत कहते हैं ---
' तरह तरह की साक्ष्यों से , सबको संतोषित कर देंगे ,,
' माता ' में कोई दोष नहीं , यह बात प्रमाणित कर देंगे ,,!
दब जाना ऐसे अवसर पर , अपनी भीरुता बताता है ,
' सच्चा ' चुप रहे ' समय ' पर तो , झूठा ' सच्चा हो जाता है ,,!
फिर हाथ नहीं आएगा वह ,, जो हाथों से खो जाएगा ,
' गृहलक्ष्मी ' को गर त्यागोगे , तो गृह उजाड़ हो जाएगा ! "
पवनसुत हनुमान भी चुप नहीं रहते ,,,वे बोलते हैं ---
जिन आँखों ने सतवंती की , ' आभा ' देखी है लंका में ,
जिन कानो ने , क्षत्राणी की , गर्जना सुनी है लंका में ,,
जो ' अग्नि परिक्षा ' की घटना , अवलोक चुके हैं - आँखों से ,
वे ही निर्णय कर सकते हैं माता का चरित प्रमाणों से ,,!
इस पतिव्रत का उदाहरण , है कही नहीं त्रय लोको में ,
महलो में रहने वाली ने , रखा पति धर्म ' अशोकों ' में ,,!!"
हनुमान त्रिजटा को भी साक्षी बता कर आगे कहते हैं ---
उनसे पूछो - माता क्या है ,,जो साथ रही है माता के ,
जिनने अपनी आँखों देखे वे दिवस अशोक वाटिका के
यदि नहीं एक दिन वह होती , तो चिता वहां पर जल जाती ,
यह राज-सभा जो लगी आज , होकर सुनसान बदल जाती ,!!
माता ने रखा पतिव्रत है , अपनी हड्डिया सुखाकर है ,
छूना क्या ,,देखा ना कभी , निश्चर को दृष्टि उठा कर है ,,!
कब मिटता है ' सत ' का प्रकाश , ' शंका की ' रज ' छा ' जाने पर ,,
होता है ' चन्द्र ' नहीं मैला , बादल के आगे आ जाने पर ,,!
दुर्दैव , अवध के खेतों में , ' अपयश ' के बीज बो गया है ,
अंधे समाज को जाने क्या यह आज अचानक हो गया है ,,!!
यदि बदला इसका लेने को , ' जगजननी ' शीश उठाएगी ,
' सूरज ' काला पड जाएगा , पृथ्वी चौपट हो जाएगी ,,,!!
राधेश्याम रामायण के रचियता कवि , सीता के त्यागे जाने के बाद , प्रजा में और समाज में हुए बदलाव पर टिप्पणी करते हुए ,, खुद भी कहते हैं ----
जो अंग वेद पाठी था , वह बकवादी होता जाता है ,
जो वर्ण देश का ' रक्षक ' था वह व्यसनी होता जाता है ,,!
जो ज्योति दिव्य व्यवसायी थी , वह व्यभिचारों में धाई है ,
जो जाति सभी की सेवक थी ,, वो सबके सर चढ़ आई है ,,!
जो ब्रम्हचर्य व्रतधारी थे , लौकिक सुख उनका ' कर्म ' हुआ ,
पत्नीव्रत रखने के बदले , पत्नी त्यागन ही धर्म हुआ ,,!!
एक अन्य चित्रण में , बाद में सीता सुत लवकुश प्रजा को ललकारते हुए बोलते हैं --
जो जनता जनप्रिय राजा से , रानी का त्याग कराती है ,
सतवंती के पावन सत पर , मिथ्या संदेह उठाती है ,
जिनके विचार भ्रम भूल भरे , त्यागन की हद तक जाते हैं ,
उस जनता को गुरुकुल ही से , हमदोनो शीश नवाते हैं ,,!!
श्रीमद् बाल्मीकि रामायण में लव कुश राम दरबार में जाकर रामकथा गा कर सुनाते है जो बाल्मीक द्वारा रचित थी ! उसी समय राम को ज्ञान होता है की लव कुश उनके पुत्र हैं ! वे अपने दूतो को आश्रम भेजकर बाल्मीकि को यह सूचना भिजवाते है की यदि सीता दरबार मेँ आकर, समस्त प्रजा के समक्ष , अपने शुद्धता का परिचय दें तो वे पुनः उन्हें स्वीकार कर लेंगे !
सीता बाल्मीक के साथ आती हे और सभी उपस्थित प्रजा के सामने कहती है की अगर उन का सतीत्व सही है और यदि वे मन वचन और कर्म से मात्र राम अनुगामिनी है और किसी के प्रति भी अनुरागी नहीँ है तो प्रथ्वी उन्हें सम्मान सहित अपनी गोद मेँ स्थान दे !
यही होता है पृथ्वी फटती है और सीता उस में समा जाती है !
राम का सीता को त्यागना उन्हें ,, निरपराध बनवास भेजना निश्चय ही रामराज्य की एक कलंकनीय घटना हे ! विवश नारी का पराधीन रहना और स्वेच्छा से पर पुरुष पर आसक्त होने में बहुत अंतर है ! सीता ने तो रावण के अशोक वन मेँ रहते हुए सदेव अपने पति का ही ध्यान किया ,,,,वे सदेव राम- अनुरागी रही ,,,,यह जानते हुए भी राम ने उन्हें त्यागा ---यह न्याय विरुद्ध था !
राजा को लोक अपवाद से बचना चाहिए यह सत्य है ! आरोपोँ से घिरे राजा को कोई नेतिक अधिकार , राज करने का शेष नहीँ होता यह भी सत्य है ! किंतु ऐसी स्थिति मेँ राजा को स्वयं राज त्याग कर देना चाहिए जब उसके किसी प्रियजन पर ही प्रजा उंगली उठाये ! ,,,, समय सबसे बलवान चीज हे,,,, यदि वह मिथ्या आरोप मढ़वाता है तो वह सत्यता का भासं भी शीघ्र ही करवाता है ! राजा के लिए चाहे समुदाय हो अथवा एक व्यक्ति दोनों ही न्याय पाने के लिए सामान रूप से हकदार होते हे और समुदाय के आगे एक निर्दोष को दंड देकर अपना कर्तव्य पूर्ण मान लेना एक भयंकर भूल ही मानी जाएगी ! समुदाय को प्रसन्न करने के लिए किसी एक निर्दोष की बलि लेना एक बड़ा पाप हे !,
,,,, सीता हर काल में पैदा होती हे !! ,,,, पति- पत्नी का रिश्ता एक बहुत पवित्र रिश्ता हे इसमे परस्पर विश्वास ही रिश्ते के आधार स्तंभ हैँ ! यदि यह आधार स्तंभ रेत की दीवार जैसे होंगे और पति अपनी पत्नी पर अकारण ही संदेह करेगा तो सीता बनवास होते रहेंगे और अंत मेँ सीता के लोप हो जाने पर राम सिर्फ विलाप ही करते रह जायेंगे तथा उनकी कीर्ति भी उस चंद्र के समान रह जाएगी जिसमेँ एक दाग सदेव के लिए सबको दीखता रहेगा !
- सभाजीत ' सौरभ '